आइवीएफ में क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ का खत्म होगा दौर!

दुनियाभर में संतानहीनता से जूझ रहे लाखों दंपती हर साल संतान की आखिरी उम्मीद लेकर मेडिकल साइंस की शरण लेते हैं. इसका हल ढूंढ़ने के लिए वैज्ञानिक, मेडिकल विशेषज्ञ और डॉक्टर नयी तकनीकों को विकसित करने में जी-जान से जुटे रहते हैं. ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ की तकनीक मेडिकल साइंस में दर्ज कामयाबी का सबसे बड़ा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 26, 2016 8:22 AM
दुनियाभर में संतानहीनता से जूझ रहे लाखों दंपती हर साल संतान की आखिरी उम्मीद लेकर मेडिकल साइंस की शरण लेते हैं. इसका हल ढूंढ़ने के लिए वैज्ञानिक, मेडिकल विशेषज्ञ और डॉक्टर नयी तकनीकों को विकसित करने में जी-जान से जुटे रहते हैं. ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ की तकनीक मेडिकल साइंस में दर्ज कामयाबी का सबसे बड़ा अध्याय है. अब एक नयी कामयाबी ने न केवल तकनीकी जटिलता को कम कर दिया है, बल्कि दंपतियों को मनोवैज्ञानिक सहायता भी दी है. इस तकनीक के विभिन्न पहलुओं और उम्मीदों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..
ब्रह्मानंद मिश्र
मातृत्व जिंदगी का सबसे खूबसूरत और सुखद एहसास है. इससे जुड़ा रिश्ता ताउम्र अटूट रहता है. लेकिन, इसे प्रकृति का अभिशाप कहें या आज की जीवनशैली की समस्या, एक रिपोर्ट बताती है कि सात में एक महिला को गर्भधारण में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. हालांकि मेडिकल साइंस का यह भी मानना है कि बांझपन की समस्या महिला या पुरुष किसी के भी साथ हो सकती है. वर्ष 1970 में आइवीएफ (इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन) तकनीक (इसे टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक के नाम से भी जानते हैं) आने के बाद बांझपन की समस्याओं से जूझ रहे दंपतियों को संतान प्राप्त करने की उम्मीद जगी थी.
इसके बाद वर्ष 1990 में इंट्रासाइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजेक्शन (इस प्रक्रिया में शुक्राणुओं को अंत:क्षेपित किया जाता है) की तकनीक भी आयी. इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन (आइवीएफ) तकनीक से दुनिया के पहले बच्चे के जन्म ने मेडिकल साइंस की कामयाबी का नया अध्याय लिख दिया है. 25 जुलाई, 1978 को ग्रेटर मैनचेस्टर के डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल में दुनिया के पहले आइवीएफ शिशु ‘लुइस जॉय ब्राउन’ का जन्म हुआ था. उसके बाद पिछले चार दशकों में दुनिया भर में हजारों बच्चों का जन्म इस तकनीक के सहारे संभव हो सका है.
दरअसल, टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक (आइवीएफ) में भ्रूण मां के गर्भ में विकसित होने के बजाय लेबोरेटरी में विकसित किया जाता है. फैलोपियन ट्यूब्स के बंद होने या गर्भधारण की अज्ञात समस्याओं की वजह से निषेचन की प्रक्रिया शरीर के बाहर संपन्न करायी जाती है.
इस प्रकार तैयार भ्रूण को फाइन प्लास्टिक ट्यूब के माध्यम से महिला के गर्भाशय में प्रतिरोपित कर दिया जाता है. फिलहाल, शोधकर्ताओं ने इस जटिल समस्या का समाधान ढूंढ निकाला है. नयी आइवीएफ तकनीक के माध्यम से निषेचन की पूरी प्रक्रिया अब लैब के बजाय गर्भाशय में संभव हो गयी है. पहली बात तो यह कि पूरी प्रक्रिया प्राकृतिक विधि के काफी करीब है, दूसरी बात इससे स्वस्थ्य शिशु के जन्म की संभावनाएं ज्यादा बढ़ जाती हैं.
नयी तकनीकों से गर्भाशय में होगा फर्टिलाइजेशन
अब ब्रिटिश डॉक्टरों की एक टीम ने आइवीएफ (इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन) तकनीक को एक नये प्रारूप में विकसित करने में कामयाबी हासिल की है. इस तकनीक के द्वारा निषेचन या फर्टिलाइजेशन की पूरी प्रक्रिया लैब के बजाये गर्भाशय में संपन्न होगी, जोकि सामान्य प्रेग्नेंसी की ही तरह होगी. इससे न केवल पति-पत्नी को मनोवैज्ञानिक तौर पर संतुष्टि मिलेगी, बल्कि तकनीकी सुगमता भी बढ़ेगी. यह कामयाबी मेडिकल साइंस के क्षेत्र में बड़े स्तर पर क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है.
दरअसल, इस तकनीक में महिला के अंडाणु (एग्स) को शुक्राणु कोशिकाओं (स्पर्म सेल) के साथ बेहद छोटे सिलिकॉन कैप्शूल (चावल के दाने के बराबर) में रख कर महिला के गर्भाशय में सन्निविष्ट (इन्सर्ट) कर दिया जाता है.
इसके लगभग 24 घंटे बाद कैप्शूल को हटा दिया जाता है और सबसे स्वस्थ भ्रूण को निकाल कर गर्भाशय के प्राकृतिक तरीके से इंप्लांट कर दिया जाता है. डॉक्टरों का मानना है कि इससे पति-पत्नी को इस बात की मनोवैज्ञानिक संतुष्टि मिलती है कि गर्भधारण प्राकृतिक तरीके से हुआ है. दूसरा पहलू यह भी है कि भ्रूण को विकसित होने में बेहद अनुकूल परिस्थिति मिल जाती है. गर्भाशय में करीब 360 छिद्रों से निकलने वाले फ्लूड से अंडाणु और शुक्राणु को प्राकृतिक सुरक्षा भी मिलती है.
बच्चे के स्वस्थ्य होने की संभावनाएं ज्यादा
निश्चित तौर पर यह पूरी प्रक्रिया पैरेंट्स को मनोवैज्ञानिक तौर पर इस बात की संतुष्टि देती है कि फर्टिलाइजेशन प्रक्रिया में दोनों प्राकृतिक रूप से शामिल हैं और शुरुआती दौर में भ्रूण का विकास भी मां के गर्भ में हो रहा है. लेकिन, इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि यह तकनीक स्वस्थ्य शिशु के जन्म के लिए बेहतर परिवेश तैयार करती है. इस तकनीक में इस्तेमाल की जानेवाली बेहद छोटे आकार की डिवाइस, जिसे ‘एनिविवो’ नाम दिया गया है, की लंबाई मात्र एक सेंटीमीटर और चौड़ाई एक मिलीमीटर होती है. डॉक्टरों को इस बात का पूरा विश्वास है कि इससे पैदा होनेवाले बच्चे का भार और स्वास्थ्य दोनों ही संतुलित रहता है.
दुनिया भर से जारी होनेवाली कई रिपोर्टों में इस बात का दावा किया जाता रहा है कि जन्म के समय नवजात शिशुओं का भार अपेक्षा से कम होता है. यह मां-बाप से साथ-साथ स्वास्थ्य विभागों और एजेंसियों के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय है. ‘टेलीग्रॉफ’ की एक रिपोर्ट के अनुसार कंपलीट फर्टिलिटी सेंटर साउथंप्टन के मेडिकल डायरेक्टर प्रोफेसर निक मैक्लॉन का दावा का मानना है कि इस डिवाइस के आ जाने से आइवीएफ तकनीक में एक बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन की उम्मीद जगी है.
पहली बार यह संभव हो सका है कि शुरुआती चरण में ही महिला खुद भ्रूण को विकसित कर पाने में सक्षम हो जायेगी. सबसे खास बात तो यह कि ‘एनिविवो’ के आने से फर्टिलाइजेशन गर्भाशय में होगा, जिससे प्राकृतिक रूप पोषक तत्व मिलेंगे. चूंकि अब तक की तकनीक में भ्रूण को लोबोरेटरी में विकसित करने के लिए सिंथेटिक फ्लूड का इस्तेमाल करना पड़ता है. इस डिवाइस को विकसित करने वाले स्विस मेडिकल साइंटिस्ट पास्कल मॉक के अनुसार सामान्य प्रेग्नेंसी में भ्रूण पर पर्यावरण का प्रभाव नहीं पड़ता यानी तापमान, दवाब और प्रकाश का प्रभाव अपेक्षाकृत बेहद कम होता है.
उम्मीदें हैं बड़ी
इस डिवाइस के आ जाने से आइवीएफ तकनीक में एक बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन की उम्मीद जगी है. पहली बार यह संभव हो सका है कि शुरुआती चरण में ही महिला खुद भ्रूण को विकसित कर पाने में सक्षम हो जायेगी. सबसे खास बात तो यह कि ‘एनिविवो’ के आने से फर्टिलाइजेशन गर्भाशय में होगा, जिससे प्राकृतिक रूप से भ्रूण को रूप पोषक तत्व मिलेंगे. चूंकि अब तक की तकनीक में भ्रूण को लेबोरेटरी में विकसित करने के लिए सिंथेटिक फ्लूड का इस्तेमाल करना पड़ता है.
आइवीएफ यानी टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक
इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन (आइवीएफ) प्रेग्नेंसी में सहायता के लिए इस्तेमाल की जानेवाली सबसे प्रभावी असिस्टेड री-प्रोडेक्टिव टेक्नोलॉजी (एआरटी) है. कई बार महिलाएं फैलोपियन ट्यूब के बंद या चोटिल हो जाने, ओवोल्युशन डिसऑर्डर या जेनेटिक डिसऑर्डर (अनुवांशिक विकार) की वजह से प्राकृतिक रूप से गर्भधारण नहीं कर पाती हैं. कई मामलों में पुरुषों के स्पर्म काउंट कम होने से भी ऐसी समस्या आती है. कुछ मामलों में बांझपन का पता लगा पाना संभव नहीं हो पाता है. ऐसे में प्रजनन के लिए आइवीएफ तकनीक का सहारा लिया जाता है. आइवीएफ तकनीक विकसित करने के लिए रॉबर्ट एडवर्ड को वर्ष 2010 में फिजियोलॉजी या मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार दिया गया था. यह तकनीकी प्रक्रिया कुल पांच चरणों में संपन्न होती है.
पहला चरण : सबसे पहले महिला को दो हफ्ते तक लगातार सप्रेसिव दवाएं दी जाती है. सामान्य तौर पर इस प्रक्रिया में रोजना इंजेक्शन दिया जाता है. इससे प्राकृतिक रूप से होने वाले मासिक चक्र (मेंस्ट्रल साइकिल) को दबा दिया जाता है.
दूसरा चरण : इस चरण में प्रजनन हार्मोंस एफएसएच (फॉलिकल स्टीमुलेटिंग हार्मोन) को बढ़ानेवाली दवाएं दी जाती हैं. इससे सामान्य से ज्यादा अंडाणु बनने लगते हैं. इस दौरान अल्ट्रासाउंड की मदद से अंडाशय की पूरी प्रक्रिया की निगरानी रखी जाती है.
तीसरा चरण : बेहद छोटे ऑपरेशन द्वारा ओवरीज से एग्स को इकट्ठा कर लिया जाता है. यह प्रक्रिया सावधानीपूर्वक कई बार दोहरायी जाती है. यूनिवर्सिटी ऑफ बर्मिंघम के ‘ह्यूमन रीप्रोड्क्शन’ जर्नल के मुताबिक पूरे एक चरण के दौरान डॉक्टर महिला की ओवरीज से लगभग 15 एग्स इकट्ठा करते हैं.
चौथा चरण : इकट्ठा किये गये अंडाणुओं को पुरुष के शुक्राणुओं के साथ पर्यावरणीय तरीके से नियंत्रित चेंबर में एक साथ रख दिया जाता है. कुछ घंटों के बाद स्पर्म एग्स में इंजेक्ट होने लगते हैं. इस प्रक्रिया को इंट्रासाइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजेक्शन (आइसीएसआइ) कहते हैं. इस प्रकार फर्टिलाइज्ड एग्स भ्रूण बन जाते हैं. इसमें एक या दो सबसे स्वस्थ्य भ्रूण को गर्भाशय में प्रतिरोपित करने के लिए चुन लिया जाता है.
पांचवां चरण : चुने हुए एक या दो भ्रूण को कैथटर द्वारा गर्भाशय में प्रतिरोपित कर दिया जाता है. इस दौरान महिलाओं को कुछ दवाएं दी जाती हैं. नयी तकनीक में लैब में लंबी प्रक्रिया के इतर ‘एनिविवो’ नाम की बेहद छोटी डिवाइस की मदद से एग्स और स्पर्म को गर्भाशय में प्रतिरोपित कर दिया जाता है.
संतानहीनता से बचने के लिए जीवनशैली में लाएं बदलाव
आधुनिक जीवनशैली की वजह से उपजनेवाली समस्याओं में संतानहीनता भी एक प्रमुख समस्या है. इस समस्या से बचने के लिए कुछ सावधानियां जरूरी हैं. कुछ पीढ़ियों पहले संतानहीनता की समस्याएं इतनी जटिल नहीं थी, जितनी कि आज के दौर में जीवन शैली की वजह से उपज रही हैं.
दरअसल, कैरियर की पसोपेश में पड़े लोग लंबे समय तक बच्चे का प्लान नहीं कर पाते. बाद में यह समस्या इतनी बड़ी हो जाती है कि मेडिकल साइंस में इलाज के रास्ते बंद होने लगते हैं. दूसरी समस्या टीनएज में स्मोकिंग, मोटाई और सेक्शुअल ट्रांसमिटेड डिजीजेज हैं. प्राकृतिक बांझपन के इलाज के लिए भले ही हमें मेडिकल साइंस की शरण लेनी पड़े, लेकिन खान-पान और जीवन शैली से उपजने वाली समस्याओं से हम आसानी से बच सकते हैं.
गर्भधारण न कर पाने की एक समस्या विटामिन-डी की कमी के कारण भी आती हैं. इसलिए शरीर में विटामिन और अन्य पोषक तत्वों को संतुलित बनाकर रखना जरूरी होता है. कई लाइफ स्टाइल फैक्टर हैं, जिनमें बदलाव लाकर इन तमाम समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है.
कैफीन और स्मोकिंग से बचें : सिगरेट पीने से कैंसर और हृदय संबंधित बीमारियां तो ही है. साथ ही बांझपन जैसी समस्याएं भी आपको मुश्किल में डाल सकती है. यूके की एक रिपोर्ट दावा करती है कि महिलाओं में होनेवाले कुल बांझपन में 13 प्रतिशत सिगरेट पीने की वजह से होता है. प्रेग्नेंसी के लिए कैफीन और स्मोकिंग से बचना जरूरी है.
वजन को रखें संतुलित : मोटापा जैसी समस्याएं भी बड़ा कारण बनती हैं. संतुलित भोजन और व्यायाम से बढ़ते वजन को नियंत्रित किया जा सकता है. एपिडिमायोलॉजिकल के अध्ययन के अनुसार अधिक भार या अावश्यकता से कम भार की वजह से छह प्रतिशत महिलाओं को गर्भधारण करने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
पुरुषों पर भी है जिम्मेवारी : कई अध्ययनों में दावा किया गया है कि स्टेरॉयड, सिगरेट, शराब की वजह से स्पर्म प्रोडक्शन में कमी आती है. पुरुषों में दूसरी सबसे बड़ी समस्या सेक्शुअल ट्रांसमिटेड डिजीज की वजह से आती है.
वर्कप्लेस जनित समस्या : कामगार पुरुषों के लिए यह समस्या बड़े अभिशाप की तरह है. मर्करी, पीसीबी, डीडीटी जैसे कई रासानियक यौगिकों और पेपर इंडस्ट्री जैसे कारखानों के खतरनाक प्रदूषक तत्व बांझपन की समस्या खड़ी कर सकते हैं.
समस्याओं से बचने के लिए इन बातों का रखें ख्याल
नियमित रूप से व्यायाम करें और वजन संतुलित रखें.
लड़कियों को 26-27 वर्ष की उम्र तक शादी कर लेनी चाहिए, ताकि 30 वर्ष की उम्र तक पहली संतान को जन्म दे सकें.अगर तीस की उम्र से पहले शादी होने के बावजदू 32-33 की उम्र तक कोई स्त्री गर्भधारण न कर पायी, तो स्त्री रोग विशेषज्ञ से सलाह लेनी चाहिए, क्योंकि आमतौर पर 35 की उम्र के बाद ओवरीज में कमियां आने लगती हैं, जिसका असर हर माह रिलीज होनेवाले एग्स पर पड़ता है.
शादी के बाद पति-पत्नी दोनों ही धूम्रपान और शराब के सेवन से बचें.डॉक्टरी सलाह के लिए अच्छे इन्फर्टिलिटी क्लिनिक से संपर्क करें, जहां आधुनिक जांच की सुविधाएं मौजूद हों.

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