रंग अपना रंग कभी नहीं बदलते

‘बहते हैं रंग, दिशाएं भी बहती हैं, स्मृतियां बूंद -बूंद उन्हीं-सी किन्हीं अल्पविरामों के नितांत, पार- अपार.’ युवा चित्रकार और कवि अमित कल्ला की ये पंक्तियां उनके चित्र और शब्द संसार दोनों को अभिव्यक्त करती हैं. चित्र-रचना में निमग्न अमित कल्ला से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत के अंश. चित्रकला की ओर रुझान कब और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 15, 2013 11:50 AM

‘बहते हैं रंग, दिशाएं भी बहती हैं, स्मृतियां बूंद -बूंद उन्हीं-सी किन्हीं अल्पविरामों के नितांत, पार- अपार.’ युवा चित्रकार और कवि अमित कल्ला की ये पंक्तियां उनके चित्र और शब्द संसार दोनों को अभिव्यक्त करती हैं. चित्र-रचना में निमग्न अमित कल्ला से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत के अंश.

चित्रकला की ओर रुझान कब और कैसे हुआ?

बचपन से ही भीतर कहीं एक ऊर्जा थी, जो हमेशा कुछ न कुछ क्रिएट करने की क्षमता विकसित करती रहती थी. घर के सामने पड़े पत्थरों से कुछ गढ़ना हो या कॉपी पर चित्र उकेरना. लेकिन, कॉलेज के बाद एक सही दिशा में पूरी तरह से इस कला को अपना लिया.

चित्र कैनवास में उतरने से पहले ही दिमाग में होता है या कूची स्वत: रंगों से खेलती जाती है?

मैं अमूर्तन का चित्रकार हूं. मेरी कोशिश एक ऐसे कल्पना लोक को रचने की होती है, जहां मौन की मात्रएं भी कुछ कहें, जहां अभिलाषित यथार्थ के अपूर्ण प्रसंग अर्थ के साथ गहराएं. मेरे चित्रों का विजन ऊर्जा है. मुङो लगता है कि कला की हर विधा के केंद्र में ऊर्जा का तत्व प्रवाहमान होता है. मैं रंगों, बिंदुओं, रेखाओं, टेक्शचर के माध्यम से ऊर्जा को चित्र में रूपांतरित करता हूं.

कहा जाता है कि चित्रकला अनंत से अंतर (अंदर) की यात्र का परिणाम है. आपके लिए यह क्या है?

यह सवाल ही अपने आप में बहुत खूबसूरत है. मैं मानता हूं कि यह अनंत से अंतर ही नहीं, अंतर से अनंत की भी यात्र है.

आपको ज्ञनपीठ का नवलेखन पुरस्कार भी मिला है. आप चित्रकार हैं और कवि भी. किस विधा को अपने ज्यादा नजदीक पाते हैं?

देखिए, जब शब्द ठहर जाते हैं, तब मैं रंगों का दामन थामता हूं और जब रंग खत्म हो जाते हैं, तो शब्द स्वत:स्फूर्त आने लगते हैं. दोनों ही चीजें बराबर चलती रहती हैं.

आपकी कविताएं आपके चित्रों का ही विस्तार लगती हैं.

जी, बिल्कुल. चित्र की अपनी एक सीमा है उसके पार कविता आगे लेकर जाती है और जहां पर कविता रुकती है, वहां चित्र पूर्णता देते हैं. एक कविता है-‘गलत कहा किसी ने कि रंग धोखा देते हैं, शब्द पहले या रंग, क्या कहते हैं, चीजें रंग बदलती हैं, इंसान रंग बदलते हैं, लेकिन रंग अपना रंग कभी नहीं बदलते, शब्दों की जुबान तो तुम्हारी है कल्पित, रंगों का अपना व्याकरण, अपना गणित होता है, रंग दिमागी चतुराई से नहीं पढ़े जाते, रंग ज्ञान की छलनी से नहीं छाने जाते, वह तो बस सत्यराम, दादूराम.’ दरअसल, मेरी कला शैली है कि एक रंग से कितने और रंग निकाले जा सकते हैं. कितने भावों के साथ खेल सकते हैं एक रंग के अंदर. मैं रेगिस्तान का व्यक्ति हूं और रेगिस्तान का कैनवस बहुत विशाल है.

अगर कभी पहचान के तौर पर कविता या चित्रकला में से किसी एक को चुनना पड़े?

मैं अपने आप को दोनों के साथ पाऊंगा. पर जहां तक पहचान की बात है, तो आखिर में मैं चाहूंगा कि सारी पहचानें मिट जाएं, क्योंकि कला की यात्र अपने आप को मिटाने की यात्र है.

पूरी तरह चित्रकार हो जाने के फैसले के सामने कुछ चुनौतियां भी आयी होंगी?

शुरुआती दौर में आर्थिक चुनौती तो होती ही है. लेकिन जब आप यह फैसला लेते हैं कि आर्टिस्ट बनेंगे, तो एक बड़ी चुनौती होती है कि आप करते क्या हैं? कोई भी जब यह सोचता है कि मैं चित्रकार या कवि बनूंगा, तो उसे ऐसे सवालों का बार-बार सामना करना पड़ता है कि कविता तो आप लिखते हैं लेकिन करते क्या हैं? या आप जब कहते हैं कि मैं चित्र बनाता हूं, तो आपसे कहा जाता है कि चित्र तो आपकी हॉबी हुई, लेकिन आप करते क्या हैं? इस तरह एक बड़ा सवाल सामने रख दिया जाता है. मेरे पिता व्यवसायी थे और परिवार के अधिकतर लोग ऊंचे सरकारी ओहदों पर थे. मैंने जब पढ़ाई पूरी करने के बाद तय किया कि पेंटिंग ही करूंगा और कुछ नहीं, तो घर में ही एक तरह का संघर्ष शुरू हो गया. बाद में जब लोगों को लगा कि अब तो ये यही करेगा, तब धीरे-धीरे सबने मेरे काम को स्वीकारा.

एक चित्रकार के तौर आप सबसे अधिक किनसे प्रभावित रहे हैं?

मुङो जे स्वामीनाथन ने सबसे अधिक प्रभावित किया. स्वामीनाथन ने जमीन से जुड़ी चीजों, आदिवासी जीवन और लोक-कलाओं के तत्वों को बहुत सुंदर तरीके से रीकंस्ट्रक्ट किया. साथ ही रजा साहब और जैक्सन पोलोक के चित्र भी हमेशा सोचने को विवश करते हैं.

चित्रकला समाज को कैसे प्रभावित करती है?

बहुत आसान है यह कहना कि मैं तो अपने लिए चित्र बनाता हूं. लेकिन यह पूरा सच नहीं हैं. आप बेशक अपने लिए चित्र बनाते हैं, लेकिन आप यह भी चाहते हैं कि लोग आपके चित्रों को देखें, उस पर अपनी प्रतिक्रिया दें. हम जिस समाज में रहते हैं, उससे जुड़े सरोकारों का प्रभाव हमारी कला में आना स्वाभाविक है. कलाकार एक योद्धा की तरह होता, जिसे सामाजिक विसंगतियों से लड़ने के लिए अपने ढंग से प्रयास करना होता है. अपनी अलग रेखा खींचनी पड़ती है.

आप कविताएं भी पढ़ते होंगे. किनका लेखन पंसद है?

मुङो अ™ोय और मुक्तिबोध पसंद हैं. मैंने सबको पढ़ा है और मेरा मानना है कि मैं न तो लेफ्ट और न राइट में जाना चाहता हूं. मैं एक भारतीय रहना चाहता हूं. इसलिए मुङो अ™ोय जितने प्रिय हैं, उतने ही मुक्तिबोध भी प्रिय हैं. मुङो मुक्तिबोध ने भी उतना ही दिया है, जितना अ™ोय ने दिया है.

एक चित्रकार के रूप में आपका रूटीन क्या होता है?
चित्र बनाने का एक फेज चलता है. इस दौरान बहुत सारी चीजें आती हैं. मैं सपनों के अंदर रंगों को देखता हूं. ऐसा नहीं है कि यह कोई मेटामाफरेसिज्म है या मनोवैज्ञानिक स्थिति. आप जब चित्र में डूबे होते हैं, तो स्वप्न में भी रंग-चित्र आपके साथ चलते हैं. यही स्वप्न फिर बाहर भी आते हैं. एक लंबा फेज होता है जिसमें आप बस लगातार पेंटिंग करते रहते हैं. सिर्फ रंग और कैनवस ही सामने होते हैं और कुछ नहीं. इस दुनिया में रहते हुए भी आप इस दुनिया में नहीं रहते. यह एक तरीके की अत्यंत पवित्र साधना है. इसमें आप बिल्कुल अपनी कला के अंदर तन्मय हो जाते हैं. यह अनुभूतियों की यात्र ज्यादा है. इसमें स्थिरता भी होती है, बेचैनी भी.

आप जब चित्र नहीं बना रहे होते हैं तो क्या करना पसंद करते हैं?
मैं दूर तक टहलना पसंद करता हूं. घर के पास छोटे-छोटे पहाड़ हैं, वहां तक जाता हूं. गली के बच्चों के साथ खेलता हूं. ध्यान और योग को भी समय देता हूं. किताबें पढ़ता हूं और संगीत भी सुनता हूं. मल्लिकाजरुन मंसूर, कुमार गंधर्व और किशोरी अमोनकर का गायन बहुत पसंद है. आजकल कुछ दोस्त फिल्में दे जाते हैं, तो विश्व की क्लासिक फिल्मों को देखने की कोशिश करता हूं. मूलत: जीवन को सहजता से जीता हूं.

अंतत: फिर वही प्रश्न कि आप कुछ भी हो सकते थे, लेकिन चित्रकार होना ही क्यों चुना?
मेरी नियति यही थी. मैंने नेशनल म्यूजियम, दिल्ली से आर्ट हिस्ट्री और जेएनयू से आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स की पढ़ाई की. कुछ दिन आर्कियोलॉजी में भी काम किया, लेकिन नियति को जहां आपको ले जाना होता था, वह आपको अंतत: वहां ले जाती है. कहीं न कहीं यही मेरी इच्छा भी थी. वो कहते हैं न कि ‘देखना नियति है आंखों की, पहचानने का क्या, मसलन, चलना नियति पांव की, पहुंचना कहां.’ तो यह एक यात्रा है, जिसमें हर रोज कुछ न कुछ सीखने को मिलता है.

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