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धुरंधरों को धूल चटानेवाले आम आदमी

लक्ष्मीनगर विधानसभा क्षेत्र में गत जुलाई-अगस्त माह में ही झाड़ू निशान के साथ विनोद कुमार बिन्नी के लिए वोट मांगनेवाले पोस्टर लग गये थे. बिन्नी दिल्ली के कद्दावर कांग्र्रेसी मंत्री अशोक कुमार वालिया को चुनौती देने की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने मोहल्ला सभाएं और घर-घर जाकर प्रचार करना भी शुरू कर दिया था. उन्हीं […]

लक्ष्मीनगर विधानसभा क्षेत्र में गत जुलाई-अगस्त माह में ही झाड़ू निशान के साथ विनोद कुमार बिन्नी के लिए वोट मांगनेवाले पोस्टर लग गये थे. बिन्नी दिल्ली के कद्दावर कांग्र्रेसी मंत्री अशोक कुमार वालिया को चुनौती देने की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने मोहल्ला सभाएं और घर-घर जाकर प्रचार करना भी शुरू कर दिया था. उन्हीं दिनों में पांडव नगर में एक प्रॉपर्टी डीलर के यहां बिन्नी से मुलाकात हुई.

बिन्नी के जाने के बाद उस प्रॉपर्टी डीलर से मैंने पूछा था, क्या लगता है आम आदमी पार्टी का क्या भविष्य है? नरेंद्र नाम के उस प्रॉपर्टी डीलर का जवाब था, इनका कुछ होना-वोना नहीं है. और ये बिन्नी! वालिया जी के यहां इसके जैसे दस पार्षद बैठे रहते हैं. फिर नवंबर के अंत में अशोक कुमार वालिया जब पांडव नगर में चुनाव प्रचार करने आये थे, संयोग से मैं नरेंद्र की दुकान पर ही था. वालिया लाल रंग की खुली जीप में थे. फूल-माला पहने, चेहरे पर मुस्कान चिपकाये, हाथ जोड़े, ऊपर खिड़कियों और बालकोनियों की ओर देखते हुए आगे बढ़ते गये. उनके साथ करीब 200 लोगों की भीड़ थी, जो ‘आ गया, छा गया वालिया-वालिया’ के नारे लगा रही थी. मजमा छंट जाने के बाद नरेंद्र ने कहा,‘देखो कितनी भीड़ है, वालिया जी तो निकल गये.’ जब मैं दफ्तर के लिए निकला, तो आप के टोपीधारी कार्यकर्ता पांच-पांच के जत्थों में घर-घर जाकर प्रचार करते नजर आये. कहां वालिया के साथ वह मजमा और कहां मोहल्ले के चार-पांच लोगों का राजनीति में शामिल होने का पहला प्रयास!

जब नतीजे सामने आये तो बिन्नी ने कांटे की टक्कर में चार बार के विधायक और शीला दीक्षित सरकार में वित्त मंत्री अशोक कुमार वालिया को धूल चटा दी थी. निर्दलीय पार्षद रह चुके बिन्नी को तो फिर भी राजनीति और चुनाव का पूर्व अनुभव था, लेकिन दिल्ली की राजनीतिक तसवीर इस बार कुछ यों बदल गयी, जिस पर एक साल पहले तक यकीन करना नामुमकिन था. मुख्यमंत्री शीला दीक्षित समेत कांग्रेस के ज्यादातर कद्दावर नेताओं-मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा. आप के हीरो अरविंद केजरीवाल के हाथों शीला दीक्षित की सनसनीखेज हार की चर्चा तो हर जगह है, पर दूसरी कई सीटों का नतीजा भी कम दिलचस्प नहीं है.

जरा इन मुकाबलों पर गौर कीजिए. 1958 से कभी कोई चुनाव न हारनेवाले व चार बार के विधायक प्रेमसिंह के खिलाफ इंटरमीडिएट तक शिक्षा पानेवाले अशोक कुमार चौहान. तीन बार के विधायक वीर सिंह धींगन के खिलाफ महज 20 हजार की घोषित संपत्तिवाले बेरोजगार धर्मेद्र कोली. चार बार के विधायक और मंत्री राजकुमार चौहान के खिलाफ 26 वर्षीय पूर्व पत्रकार राखी बिड़ला. तीन बार के विधायक भाजपा के कंवर सिंह तंवर के खिलाफ एनसजी के पूर्व कमांडो सुरेंद्र सिंह. रोहिणी से चार बार के भाजपा विधायक जय भगवान अग्रवाल के खिलाफ स्वरोजगार करनेवाले राजेश गर्ग रोहिणीवाला. मॉडल टाउन से तीन बार के कांग्रेस विधायक कंवर करण सिंह के खिलाफ 29 वर्षीय बेरोजगार अखिलेशपति त्रिपाठी. जब चुनावी रुझान आने शुरू हुए, तब भी दिल्ली में लोग मानने को तैयार नहीं थे कि इतने कद्दावर नेताओं को आम आदमी मात दे सकते हैं. लेकिन, नतीजा आने पर उलटफेर पर मुहर लग चुकी थी. दिल्ली के राजनीतिक ढांचे को आम आदमी के बवंडर ने तहस-नहस कर दिया था. दिल्ली की मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता जिन्हें पिद्दी मान रहे थे, उन्होंने ‘रानी’ ही नहीं, ‘वजीरों’ को भी मात दे दी थी. इन नामों के अलावा देवली से जीतनेवाले 25 वर्षीय प्रकाश, बुराड़ी से जीतनेवाले 34 वर्षीय संजीव झा के नामों का जिक्र भी जरूरी है, जिन्होंने किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि के बिना प्रभावशाली जीत दर्ज की.

दुनिया जीत की कहानी देखती है. लेकिन जैसे समुद्री तट पर थपेड़े मारनेवाला फैलिन जैसा तूफान एक दिन में नहीं बनता, वैसे ही आम आदमी की ताकत का राजनीतिक बवंडर एक दिन में नहीं बना. केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार, राजनेताओं के घमंड, महंगाई आदि का इस बवंडर के निर्माण में कितना हाथ रहा, इस पर काफी बहस हो रही है, पर यह नकारात्मक शक्ति की ही पैदाइश नहीं था. दरअसल, जब राजनीति अपनी चाल चल रही थी, राजनीतिक दल लोकपाल के आंदोलन को कुचल देने में अपनी सफलता पर मुस्करा रहे थे, उसी वक्त दिल्ली की सड़कों-गलियों में राजनीति की एक नयी सुबह लाने की कोशिशें जोर पकड़ रही थीं.

आंदोलन से राजनीतिक पार्टी के निर्माण और आखिर में कामयाबी तक का यह सफर आसान नहीं रहा. दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहनेवाले संतोष सिंह के लिए वे दुविधा के दिन थे. जन लोकपाल बिल के लिए केजरीवाल के अनशन को अन्ना के पहले अनशनों की तरह समर्थन नहीं मिला था. मीडिया भी केजरीवाल पर मेहरबान नहीं था. राजनीतिक दलों की चुनौती ‘दम है तो राजनीति में आकर दिखाओ’ को स्वीकारते हुए जंतर-मंतर से अन्ना हजारे, केजरीवाल, योगेंद्र यादव, मनीष सिसोदिया आदि ने नयी राजनीतिक पार्टी के गठन और चुनावी राजनीति में शामिल होने की घोषणा की.

हालांकि इस पर बहस छिड़ने के बाद अन्ना ने इस दल से खुद को दूर कर लिया. किरण बेदी ने भी केजरीवाल की टीम से नाता तोड़ लिया. ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो यह कह रहे थे कि ‘जन-लोकपाल के लिए शुरू हुआ एक व्यापक आंदोलन एक आदमी की महत्वाकांक्षा, जिद और जल्दबाजी की भेंट चढ़ गया.’‘क्रांति ऐसे नहीं होती, क्रांति के लिए धैर्य की जरूरत होती है.’ क्या केजरीवाल में सचमुच वह धैर्य नहीं था. वे अधीर थे. जब यही सवाल उनसे पूछा जाता, तो उनका एक ही जवाब होता, ‘हां मैं अधीर हूं. इतने साल इंतजार कर लिया. अब और वक्त नहीं गंवाया जा सकता.’ राजनीति को बदलने के लिए राजनीति में आना जरूरी है. संतोष जंतर-मंतर, रामलीला मैदान में हुए अन्ना के अनशन के उन सैकड़ों वॉलंटियरों में से एक थे, जिन्होंने बिना स्वार्थ उसमें हिस्सेदारी की थी. लेकिन, आंदोलन से राजनीति की ओर जाने का फैसला संतोष सिंह के समझ से परे था. संतोष कहते हैं, हमें लगता था कि सड़कों पर उमड़ा जनसैलाब देश को वैसे ही बदल सकता है, जैसे मिस्र में हुस्नी मुबारक की सत्ता तहरीर चौक के आंदोलन से चली गयी. जंतर-मंतर से जब कहा जाता कि पूरे देश को तहरीर चौक बना दो, तो हमारी उत्तेजना आसमान पर पहुंच जाती.. लेकिन अचानक आंदोलन समाप्त हो गया.

मीडिया ने भी केजरीवाल को तवज्जो देना लगभग बंद कर दिया था. संतोष बताते हैं, हम सड़क पर थे, क्योंकि हम नयी राजनीति का ख्वाब देख रहे थे. हमारे अभियान को मीडिया से ब्लैक आउट कर दिया गया था, लेकिन हम अंधेरे में नहीं थे. गलियों-मोहल्लों में हमें जिस तरह से लोगों का समर्थन मिलता, वह हमारे लिए टॉनिक के समान था. बिजली के बढ़े बिलों के खिलाफ जब केजरीवाल ने सुंदर नगर में दिवंगत संतोष कोली (कोली सीमापुरी से पहले ‘आप’ की प्रत्याशी थीं. सड़क हादसे में मौत के बाद उनके भाई धर्मेद कोली को टिकट दिया गया.) के घर 14 दिनों तक भूख हड़ताल की, उस वक्त दलों ने इसे केजरीवाल का स्टंट बताया था. लेकिन दिल्ली के दिलशाद गार्डन में रहनेवाले मनोज कुमार, जो डीयू में हिंदी पढ़ाते हैं, बताते हैं कि इस अनशन ने आम लोगों, खास कर झुग्गी-झोपड़ी में केजरीवाल और आप के प्रति जबरदस्त गुडविल पैदा किया.

पत्रकार अरुणोदय प्रकाश बताते हैं, आप की टीम जहां काम कर रही थी, उसे दिल्ली का तहखाना या डंपिंग यार्ड माना जा सकता है. ये वे जगहें हैं, जहां चीजें ही नहीं, लोगों को भी डंप कर दिया जाता है, उन्हें याद सिर्फ चुनावों में किया जाता है. इन इलाकों में आप द्वारा सतत कनवासिंग ने लोगों पर काफी असर डाला और राजनीति के बने-बनाये समीकरण पलट गये.

कवि दुष्यंत ने कहा था,‘कौन कहता है आसमान में सुराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों’. आम आदमी ने अपनी जिद में आसमान से बदलाव का पत्थर उछाला और हम हैरत से देख रहे हैं, परंपरागत सियासत का आसमान दरक गया है!

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