रांची: अब नहीं सुनायी देगा. … जी कहीं का हाल बा. सब खैरियत बा न. कहां से आवत बानी. लीं थोड़ा पानी पी ली. पीढ़ियों के चहेते रांची कॉलेज के मोरहाबादी परिसर में वर्ष 1960 से रहनेवाले मुंशी बाबा अब नहीं रहे. मुंशी बाबा के हाथों के बने समोसे आैर चाय का स्वाद अब कोई नहीं ले पायेगा. 85 वर्ष की अवस्था में उनका निधन एक मार्च को हो गया. आज उनका श्राद्ध कर्म था. हातमा स्थित उनके छोटे से घर पर लोग उनके श्राद्ध कर्म में शामिल होने के लिए दूर-दूर से आ रहे थे. उनके चित्र पर पुष्प अर्पित कर उनके विषय में चर्चा कर रहे थे. मुंशी बाबा का असली नाम नंदलाल प्रसाद था.
शिक्षक, छात्र-छात्राएं व आम लोग उन्हें प्यार से मुंशी बाबा कहते थे. उनको जाननेवाले झारखंड में ही नहीं, बल्कि देश-विदेश में भी हैं. यह नाम क्यों पड़ा, इस बारे में पूछने पर शंकर प्रसाद, श्यामलाल पंडित व सुभाष महली कहते हैं कि जब रांची कॉलेज बिल्डिंग बन रहा था, तो वे ठेकेदार के मुंशी हुआ करते थे. बाद में वे इसी नाम से मशहूर हो गये. उनका असली नाम उनको जाननेवाले अधिकतर लोगों को पता नहीं है. उनके करीबी लोगों को ही उनका असली नाम पता है. उन्हें जानने व प्यार करनेवाले सैकड़ों लोग आज ऊंचे पदों पर हैं. वर्तमान में रांची विवि के कुलपति भी मुंशी बाबा को जानते व पहचानते हैं. इस कैंपस में उनकी कमी हमेशा खलती रहेगी.
वर्ष 1960 में बिहार के सीवान जिले से आये थे रांची, 1976 में खोला था होटल
मोरहाबादी कैंपस में रांची विवि के जनजातीय व क्षेत्रीय भाषा विभाग तथा कॉमर्स डिपार्टमेंट से सटे मुंशी बाबा की समोसे व चाय की खपरैल की होटल है. उनके निधन के बाद से होटल बंद पड़ी है. उनकी पत्नी उर्मिला देवी का निधन वर्ष 2011 में हो गया था. उनके दो पुत्र सुशील कुमार व संतोष कुमार हैं. बगल में शंकर प्रसाद की भी होटल है. शंकर प्रसाद से नंद लाल प्रसाद जी (मुंशी बाबा) के विषय में पूछने पर उन्होंने कहा कि वे वर्ष 1960 में बिहार के सीवान जिले के रघुनाथपुर थाना के मुरारपट्टी गांव से आये थे. उस वक्त रांची कॉलेज की बिल्डिंग थी, जो हैंडअोवर हो रही थी. बाकी जंगल-झाड़ी था.
कॉलेज में छुट्टी के बाद सन्नाटा पसरा रहता था. इक्का-दुक्का लोग आते थे. उस समय अधिकतर लोग इस तरफ आने से भी डरते थे. कॉलेज के कैंपस में उनकी कैंटीन थी. साथ में वे पीएचइडी में नाैकरी भी कर रहे थे. बाद में 1965 में उन्होंने नाैकरी छोड़ कर पूरी तरह से अपनी दुकान संभाल ली. वर्ष 1976 में उन्होंने खपरैल के इस दुकान में होटल खोली थी. वे मृदुभाषी व मिलनसार व्यक्तित्व के थे. दुकान पर जब भी कोई आता था, तो वे उनका कुशलक्षेम पूछते थे. उनका हाल-चाल लेते थे. समोसे व चाय खिलाते थे. लोग प्यार से उनके हाथों के बने खाद्य पदार्थ ग्रहण करते थे.
लोगों की सेवा करने में जुटे रहते थे
जीवन के अंतिम वर्षों में भी मुंशी बाबा खुद को पूरी तरह से सक्रिय रखे हुए थे. उन्होंने अपने को किसी पर बोझ बनने नहीं दिया. दुकान में ही उनका रहना-खाना होता था. दुकान चलाने के पीछे उनका मकसद पैसा कमाना नहीं रह गया था, बल्कि अपने को सक्रिय रखना तथा बाकी की जिंदगी लोगों की सेवा करना रह गया था. होटल ही उनकी दुनिया थी. छात्रावास में रहनेवाले छात्र सुबह-सुबह नाश्ता-चाय के लिए पहुंच जाते थे. मोरहाबादी कैंपस में विद्यार्थियों से घुले-मिले मुंशी बाबा गार्जियन होने का आभास कराते थे. कॉलेज हो, शिक्षक हो या कर्मचारी, यहां तक कि विद्यार्थी के बारे में उन्हें जानकारी रहती थी. बाहर से आनेवाले लोग मुंशी बाबा से ही जानकारी हासिल करते थे. उसके बाद संबंधित जगह या व्यक्ति के पास जाते थे. वे सभी के प्रिय मुंशी बाबा थे.
सरल व्यक्ति थे मुंशी जी
मुंशी जी बहुत सरल व्यक्ति थे. विद्यार्थियों में उनकी पहचान थी. वे बड़े प्यार से चाय-समोसा खिलाते थे. कभी पैसा नहीं मांगते थे. 44 वर्षों से मैं खुद उन्हें जानता हूं. मुंशी जी के कैंपस में रहने से वहां चहल-पहल रहती थी. उनके निधन की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी. भगवान उनको शांति दे. उनके परिवार को इस दु:ख की घड़ी को सहने की शक्ति दे.
डॉ रमेश कुमार पांडेय, कुलपति, रांची विवि