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माता-पिता की तकलीफ को समझिए प्यार नहीं, पढ़ाई पर फोकस करिए

वीना श्रीवास्तव साहित्यकार व स्तंभकार, इ-मेल : veena.rajshiv@gmail.com, फॉलो करें – फेसबुक : facebook.com/veenaparenting ट्विटर : @14veena एक इधर कुछ वर्षों में बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा बढ़ी है. इसके अलावा प्रेम प्रसंगों में न जाने कितनी हत्याएं त्रिकोणीय प्रेम में, छोटी-छोटी बातों पर ब्रेकअप होने और फिर अपनी गर्ल-ब्वॉय फ्रेंड को किसी […]

वीना श्रीवास्तव
साहित्यकार व स्तंभकार, इ-मेल : veena.rajshiv@gmail.com, फॉलो करें –
फेसबुक : facebook.com/veenaparenting
ट्विटर : @14veena
एक इधर कुछ वर्षों में बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा बढ़ी है. इसके अलावा प्रेम प्रसंगों में न जाने कितनी हत्याएं त्रिकोणीय प्रेम में, छोटी-छोटी बातों पर ब्रेकअप होने और फिर अपनी गर्ल-ब्वॉय फ्रेंड को किसी और के पास जाता ना देख पाने, उसे वापस अपने पास लाने के चक्कर में हुईं.
कुछ घटनाओं में तो भाई और घरवाले शामिल थे. आज हमारे एक परिचित की सोसाइटी में एक बच्ची की ऊपर से गिरकर मृत्यु हो गयी. उनकी बेटी हॉस्टल में रहती थी. प्रोफेशनल कोर्स कर रही थी. जाननेवाले कह रहे हैं कि वह आत्महत्या नहीं कर सकती. आशंका है किसी ने उसे ऊपर से नीचे धक्का दिया हो. यह सच है कि बड़े होकर बच्चों की अपनी सोच होती है. अपने फ्रेंड्स, अपना दायरा होता है. बच्चे काफी कुछ शेयर करते हैं मगर फिर भी बहुत कुछ छुपा जाते हैं.
इसकी वजह एक तो कम्युनिकेशन गैप होता है और घर में माता-पिता उन्हें ऐसा माहौल ही नहीं देते कि वे अपनी, अपने दिल की बात उन्हें बता सकें. पहला डर तो यह रहता है कि अफेयर जानने के बाद वे कहीं घर से निकलना न बंद कर दें. उन्हें उल्टी-सीधी बातें न सुनाएं. उन्हें और उनके प्यार को समझने के बजाय उल्टा उन्हें ही ताने न मारें. इसके अलावा ब्वॉय-गर्ल फ्रेंड बदलना फैशन में है. किसकी कितनी गर्ल फ्रेंड हैं, यह लड़कों की पॉपुलेरिटी बताता है. ठीक यही स्थिति लड़कियों के साथ भी है. इसी कारण कई बार स्थिति बहुत चिंताजनक हो जाती है.
अभी हाल ही में सैफायर स्कूल में जो कांड हुआ, उसमें भी मामला प्रेम का ही था. वहां भाई नहीं बर्दाश्त कर सका कि उसकी बहन का किसी के साथ अफेयर हो और इस कारण एक छोटी उम्र के बच्चे को जान से हाथ धोना पड़ा. इस मामले में आप सोचिए कि माता-पिता के दिल पर क्या गुजर रही होगी. यह बात उस बच्चे ने भी नहीं सोची होगी. इसीलिए माता-पिता प्रेम संबंधों के खिलाफ होते हैं.
वे हर संभव प्रयास करते हैं कि बच्चे अपनी उम्र और उम्र का कच्चापन समझें. बच्चो, प्यार के लिए तो जीवन पड़ा है. आप सबको पहले अपने कैरियर पर ध्यान देना चाहिए. जिस बच्चे को माता-पिता जन्म देते हैं, अपनी पूरी लगन से पालते हैं, उसकी परवरिश में खुद को भूल जाते हैं. अगर उसी बच्चे को उन्हें कंधा देना पड़े तो उस माता-पिता की पीड़ा-दुख का अंदाजा क्या आप लगा सकते हैं ? दो दिन पहले मिली लड़की-लड़का इतना महत्वपूर्ण कैसे हो जाता है कि जिसने जन्म दिया, जो अपना खून-पसीना एक करके आपको पाल रहा है, आप उन्हीं को भूल जाते हैं और वे आपको मना तो नहीं करते, लेकिन जिस उम्र में आपको सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई करना चाहिए, उस समय आप प्रेम संबंधों में पड़कर अपना जीवन बरबाद कर लेते हैं.
आप केवल यह सोचिए तो जवाब मिल जायेगा कि आप जिस लड़के या लड़की से कुछ समय पहले मिले और उससे दूर जाने का ख्याल आपको विचलित कर देता है तो जिसने आपको जन्म दिया वह आपको खोकर कैसे जियेगा ? एक बार सोचकर देखिए. बहुत तकलीफ देता है जब बच्चे आत्महत्या जैसा कदम उठाते हैं. ऐसा करके वे खुद तो इस जहां से चले जाते हैं, मगर अपने माता-पिता को जीते जी मार जाते हैं और माता-पिता को मन मारकर जीना पड़ता है अपने दूसरे बच्चों का मुंह देखकर.
बच्चों को हॉस्टल भेजनेवाले माता-पिता से एक प्रश्न है कि छोट-सी उम्र में ही हॉस्टल क्यूं? जितना सुरक्षित और संस्कारी वह मां के आंचल की छांव में होगा, उतना हॉस्टल में हो ही नहीं सकता.
आखिर छोटी उम्र में बच्चों के लिए हॉस्टल ही क्यूं और अगर कोई ऐसी समस्या है कि बच्चों को हॉस्टल भेजना ही पड़े तो बच्चों से बराबर संपर्क में रहें. एक कहावत है ना- आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माइंड. जब हम बड़े दूर रहकर घर को भूल जाते हैं तो फिर छोटे बच्चे कैसे नहीं दिल से दूर होंगे ? आजकल तो हर शहर में अच्छे स्कूल हैं.
वैसे भी स्कूल से ज्यादा खुद बच्चे पर निर्भर करता है कि वह पढ़ाई में कैसा है. यह सोच एकदम गलत है कि बच्चों का भविष्य केवल अच्छे स्कूल में ही बनता है या हॉस्टल में रहनेवाले बच्चे ज्यादा आत्म निर्भर होते है. ये कहने की बातें हैं. अगर बच्चा तेज है तो वह कहीं भी अपना स्थान बना लेगा. जितनी अच्छी देखभाल मां-पिता कर सकते हैं बच्चे की, उतनी भला कौन करेगा ?
आप यह क्यों भूल जाते हैं कि जब रिक्शा चालक, आया या ठेला लगानेवाले के बच्चे बोर्ड में टॉप कर सकते हैं, यहां तक कि आइएएस में सेलेक्ट हो सकते हैं, तो हमारे बच्चे क्यों नहीं हमारे साथ रहकर पढ़ सकते ? उनके पास धन, ज्ञान और सही गाइडेंस का अभाव होता है. फिर भी बच्चे खबरों में सुर्खियां बटोरते हैं. मेरी कुछ मित्रो ने बच्चों को डे-बोर्डिंग में इसलिए रखा है कि बच्चे घर में रहकर केवल धमाल करते हैं. वहां रहेंगे तो कुछ सीखेंगे, होमवर्क वहीं हो जायेगा. कोई तनाव नहीं रहेगा.
बच्चे 6 बजे सुबह निकलकर पांच बजे तक घर पहुंचते हैं. यह तो देहाड़ी मजदूर से भी ज्यादा समय तक काम करते हैं. जब बच्चा लौटता है तो इतना थका होता है कि वह कुछ करने लायक नहीं बचता. खाना खाकर थोड़ा-बहुत खेलता है, अपने मित्रो के साथ रहता है या टीवी देखता है और सुबह 5 बजे उठने के लिए सो जाता है. मां-पिता को भी कहां समय मिलता है कि वे बच्चों को समय दें. बच्चे डे-बोर्डिंग में रहेंगे तो घर में धमाल नहीं करेंगे, यह सोचकर बच्चों को डे-बोर्डिंग में डालना क्या उचित है?
क्रमश:

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