अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव: उम्मीदवारी की होड़ में ट्रंप और हिलेरी आगे
अमेरिका में इस साल आठ नवंबर को होनेवाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ रही है. पांच राज्यों में हुए चुनावों में रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप और डेमोक्रेटिक हिलेरी क्लिंटन सबसे आगे चल रहे हैं. हालांकि इतिहास में शायद पहली बार दोनों ही प्रमुख पार्टियों के ज्यादातर मतदाता अपने […]
अमेरिका में इस साल आठ नवंबर को होनेवाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ रही है. पांच राज्यों में हुए चुनावों में रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप और डेमोक्रेटिक हिलेरी क्लिंटन सबसे आगे चल रहे हैं. हालांकि इतिहास में शायद पहली बार दोनों ही प्रमुख पार्टियों के ज्यादातर मतदाता अपने अग्रणी उम्मीदवारों से खुश नहीं हैं. जहां अतिवादी तथा प्रदर्शनप्रिय ट्रंप का उनकी अपनी ही पार्टी में विरोध हो रहा है, वहीं हिलेरी क्लिंटन भी भरोसे की कमी का सामना कर रही हैं. जानें इस चुनाव से जुड़ी कुछ खास और दिलचस्प बातों को.
गोविंद तलवलकर, वरिष्ठ पत्रकार
अ मेरिका के राष्ट्रपति को विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है. यही वजह है कि अभी जब अगले राष्ट्रपति के चुनाव की प्राथमिक प्रक्रिया चल रही है, तब उस पर पूरे विश्व की निगाहें टिकी हैं.
डेमोक्रेटिक पार्टी में हिलेरी क्लिंटन तथा रिपब्लिकन पार्टी में डोनाल्ड ट्रंप सबसे आगे चलते हुए फ्लोरिडा, ओहियो, इलेनॉइस, नॉर्थ कैरोलिना तथा मिसौरी में कुछ अहम जीत दर्ज कर चुके हैं. हिलेरी अमेरिका के दक्षिणी राज्यों के साथ फ्लोरिडा, ओहियो तथा इलेनॉइस जैसे बड़े राज्यों को भी फतह करते हुए ट्रंप से आगे हो गयी हैं. उनकी अपनी पार्टी में उनके प्रतिद्वंद्वी, बर्नी सैंडर्स उनसे काफी पीछे चलते हुए अपनी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में नामांकित होने की उम्मीद खो चुके हैं और अब यह मंजिल हिलेरी के लिए आसान नजर आ रही है. मगर सैंडर्स ने हिलेरी की राह में एक चुनौती तो खड़ी की ही.
ट्रंप से आशंकित है अपनी ही पार्टी
दूसरी ओर, रिपब्लिकन पार्टी पार्टी में कुछ अजीब-सा नजारा है. हालांकि ट्रंप बहुत-से राज्यों में जीत हासिल कर चुके हैं, पर पार्टी नेतृत्व इस पर प्रसन्न नजर नहीं आ रहा. वजह यह है कि पार्टी ट्रंप को अपनी व्यवस्था के लिए खतरा मान रही है.
दरअसल, पार्टी में किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि ट्रंप, जो कभी राजनीति में सक्रिय नहीं रहे, अपने लिए निर्वाचकों का ऐसा समर्थन जुटा कर पार्टी के नामांकन के लिए लड़ते अन्य दो उम्मीदवारों को पीछे छोड़ देंगे. पार्टी नेतृत्व को यकीन था कि पूर्व ओहियो गवर्नर जेब बुश निर्वाचकों का बहुमत पा जाएंगे, किंतु जेब को जहां एक ओर भितरघात का सामना करना पड़ा, दूसरी ओर उन्हें निर्वाचकों ने भी नापसंद कर दिया. उनके पिछड़ने के बाद, रिपब्लिकन नेतृत्व ने रुबियो को अपना समर्थन दिया, मगर उनके पास निर्वाचकों के लिए कुछ भी नहीं था. हालांकि बातें तो वे 21वीं सदी की कर रहे थे, पर उनके विचारों से 19वीं सदी की बू आती थी. ट्रंप ने उन्हें विचलित कर दिया और बदले में रुबियो शालीनता की सारी सीमाएं लांघ गाली-गलौज की भाषा पर उतर आये. पार्टी के लोग टेक्सास से सीनेटर टेड क्रूज से भी खुश नहीं हैं. पार्टी अथवा सीनेट में उनका कोई खैरख्वाह नहीं है.
श्वेत मतदाताओं के चहेते सैंडर्स
74 वर्षीय सैंडर्स तो हिलेरी क्लिंटन के लिए चुनौती बन कर इसलिए उभर सके कि वे 18-35 वर्ष उम्रवर्ग के क्रुद्ध श्वेत अमेरिकियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो ऐसा महसूस करते हैं कि उनकी उपेक्षा की गयी है और अमेरिका ने जिस नयी दौलत का सृजन किया है, उसने उन्हें कोई फायदा नहीं पहुंचाया है.
उन्हें इस बात पर भी गुस्सा है कि बड़ी-बड़ी कंपनियों के ऐसे सीइओ, जिनके नेतृत्व में वे कंपनियां डूब गयीं, खुद लाखों-करोड़ों डॉलर में अपनी पगार उठाते रहे. सैंडर्स का कहना है कि वे एक संदेश देना चाहते हैं और वे दौड़ से बाहर नहीं निकलेंगे. विडंबना यह है कि वे अपने संदेश का वास्तविकता की रोशनी में विश्लेषण करना नहीं चाहते. वाल स्ट्रीट की आलोचना करते हुए वे यह कहते हैं कि इन
संस्थानों पर सरकार का स्वामित्व होना चाहिए. वे यह महसूस नहीं कर पाते कि सरकारी स्वामित्व भी दोषरहित नहीं होता.
इंग्लैंड के अपने प्रधानमंत्रित्व काल में क्लेमेंट एटली ने एक बार कहा था कि हेरॉल्ड लास्की जैसे राजनीतिशास्त्रियों ने राजनीति के व्याकरण पर तो पुस्तकें लिख डालीं, पर वे राजनीति के दस्तूर से बिल्कुल अनजान बने रहे. सैंडर्स के भाषण एटली के उद्गार की याद दिलाते हैं.
अमेरिका में अफ्रीकी तथा लातीनी मूल के नागरिक सैंडर्स से उतने प्रभावित नहीं हैं, जितने वहां के श्वेत युवा हैं. यही वजह है कि सैंडर्स के भाषणों में श्वेतों की ही भीड़ जुटती रही है. दूसरी ओर अश्वेतों का बहुमत हिलेरी के पीछे है. कुछ अश्वेत निर्वाचन क्षेत्रों में तो उन्हें 80 फीसदी तक मत हासिल हुए, जो उनके और उनके पति द्वारा अश्वेतों तथा लातीनियों से लगातार वैयक्तिक संपर्क बनाये रखने का नतीजा है. अपने राष्ट्रपतित्व काल में बिल क्लिंटन के कई कदम अश्वेतों के लिए लाभकारी सिद्ध हुए थे.
रिपब्लिकन पार्टी का असमंजस
ओबामा द्वारा शानदार बहुमत हासिल कर राष्ट्रपति बन जाने के बाद रिपब्लिकनों ने अपनी पार्टी को अधिक समावेशी तथा बहुलवादी बनाने के लिए सुधारात्मक कदम उठाये तो जरूर, मगर उनके नतीजों की बाबत किसी रिपोर्ट पर गौर नहीं किया. परिणाम यह हुआ कि पिछले सात वर्षों में पार्टी पर प्रतिक्रियावादियों ने कब्जा जमा लिया और पार्टी किसी रचनात्मक दिशा में नहीं बढ़ सकी. अब पार्टी इस षड्यंत्र में लगी है कि ट्रंप आवश्यक संख्या में प्रतिनिधियों के मत हासिल करने में विफल रह कर कैसे पार्टी के नामांकित उम्मीदवार बनने से रह जायें. वे अपने पसंदीदा उम्मीदवार की जीत तय करना चाहते हैं, मगर इससे पार्टी में टूट भी हो सकती है. नतीजतन, पार्टी में भारी असमंजस की स्थिति बनी हुई है.
सच तो यह है कि पार्टी ट्रंप अथवा क्रूज में से किसी को भी नहीं चाहती और तीसरे उम्मीदवार, कसिच अपने राज्य ओहियो को छोड़ और कहीं जीत नहीं सके हैं. बदलते विश्व के परिवर्तनों से अनजान बनी यह पार्टी प्रतिनिधि सभा तथा सीनेट में अभी भी विश्व पर अमेरिकी प्रभुत्व की बातें करती हुई शीतयुद्ध के काल में ही जीती प्रतीत होती है.
मोटे तौर पर, अमेरिकी जनता भी अब और युद्ध नहीं चाहती. राष्ट्रपति ओबामा द्वारा दुनिया के कई मोर्चों से अमेरिकी सैनिकों की क्रमशः वापसी के फैसले से जनता खुश है. अमेरिकी नेतृत्व को अपने नजरिये में समयानुरूप बदलाव लाकर यह समझ लेना चाहिए कि दुनिया अब सहयोग और विचारों का आदान-प्रदान चाहती है, उपदेश अथवा आदेशनहीं. यूरोप शरणार्थियों की समस्या से स्वयं निबटा है और उसने अमेरिका से सहायता अथवा मार्गदर्शन की मांग नहीं की.
भरोसे की कमी से जूझतीं हिलेरी
डेमोक्रेटिक पार्टी में अपनी ही समस्याएं हैं. हालिया प्राथमिक चुनावों ने पार्टी तथा इसके नेतृत्व की कई खामियां उजागर कर दीं. पार्टी में कोई आधार नहीं रहते हुए भी सैंडर्स का उदय यह दर्शाता है कि पार्टी नेतृत्व दब्बू जैसा है. सैंडर्स जीतनेवाले उम्मीदवार नहीं हैं, पर कोई अन्य उम्मीदवार भी उभर नहीं सका.
हिलेरी नामांकन तो हासिल कर लेंगी, पर सामान्य मतदाता सारे समय उनकी विश्वसनीयता के प्रति सशंकित रहेंगे, क्योंकि वे जब तब अपने रुख बदलती रहती हैं. दूसरी बात यह है कि क्लिंटन परिवार के फाउंडेशन द्वारा फंड इकठ्ठा करने के जज्बे की कोई सीमा नहीं है, जो अपने आप में ही एक समस्या है. अभी की स्थिति में तो मतदाता किसी भी उम्मीदवार से खुश नहीं हैं. दुनिया के बाकी देशों की तरह यहां के भी ज्यादातर लोग अपने राजनेताओं से ऊबे हुए हैं.
(न्यूयॉर्क से प्रकाशित ‘द इंडियन पैनोरमा’ से साभार) (अनुवाद : विजय नंदन)
ट्रंप से बेहतर साबित होंगी हिलेरी
प्रो चिंतामणि महापात्रा
सेंटर फॉर कनाडियन, यूएस एंड लैटिन अमेरिकन स्टडीज.
स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू
इस साल नवंबर में अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव होना है. डेमोक्रेटिक पार्टी की हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के मुकाबले में आगे चल रहे हैं. राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर राजनीतिक गतिविधियों के बीच बहुत से ऐसे बयान आ रहे हैं, जो जाहिर ताैर पर आगे चल कर नये राष्ट्रपति के बनने में अपनी महती भूमिका निभायेंगे.
मसलन, डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले दिनों कहा था कि गैर-अमेरिकियों की नौकरियों पर नियंत्रण करेंगे. लेकिन, साथ ही यह भी कहा कि अमेरिकी संस्थानों में पढ़ रहे भारतीय छात्रों को बाहर नहीं निकाला जा सकता, ऐसे मेधावी छात्रों की अमेरिका को जरूरत है. यह एक ऐसा बयान है, जिसमें दोहरापन नजर आता है. एक तरफ तो ट्रंप की खुंदक है कि अमेरिका में भारतीयों के नौकरी करने से वहां की नौकरियाें का ज्यादातर लाभ भारत में चला आता है, वहीं दूसरी तरफ वे चाहते हैं कि जो भारतीय अमेरिका जायें, तो वहीं रुक जायें, ताकि जीवनपर्यंत अमेरिका की सेवा कर सकें.
यानी ट्रंप एक तरफ विदेशी कौशल को गाली भी देते हैं और दूसरी तरफ उनकी मदद भी चाहते हैं. दरअसल, उनके इस दोहरे रवैये में ही उनका अमेरिकी हित है. जाहिर है कि अमेरिकियों का वोट पाने के लिए ट्रंप अमेरिकी युवाओं के लिए नौकरियों की बात कर रहे हैं. ऐसा करना गलत नहीं है, लेकिन जिस आक्रामक अंदाज में वे अपनी बात कहते हैं, बेरोजगारी के शिकार अमेरिकियों के लिए यह उचित जान पड़ता है और इसलिए वे ट्रंप को सुनना चाहते हैं. अमेरिकी तो इस बात से खुश ही होंगे कि उनकी नौकरियां अब गैर-अमेरिकियों के हाथ में नहीं जायेंगी.
अब चाहे हिलेरी क्लिंटन राष्ट्रपति बनें या डोनाल्ड ट्रंप, ये दोनों अपने-अपने तरीके या अपनी-अपनी नीतियों के ऐतबार से अपने देश के हित की ही बात करते हैं. लेकिन, जहां तक भारत या दुनिया के बाकी देशों के लिए नये अमेरिकी राष्ट्रपति के महत्व का सवाल है, तो इन दोनों में हिलेरी क्लिंटन भारत की पसंद होंगी. इसका कारण यह है कि डोनाल्ड ट्रंप बहुत आक्रामक और उल-जुलूल बात करनेवाले हैं और उनका कोई राजनीतिक अनुभव भी नहीं है.
वे विशुद्ध रूप से उद्यमी हैं. उनके बयानों को गौर से सुनें तो यही लगता है कि अगर वे राष्ट्रपति बनते हैं, तो हो सकता है अमेरिकियों के लिए कुछ अच्छा कर जायें, लेकिन विदेश नीति के लिहाज से उनके फेल होने की पूरी संभावना है. लेकिन, हिलेरी क्लिंटन बेहतरीन राजनीतिक समझ रखती हैं. विदेश मंत्री रहते हुए वे दुनियाभर की राजनीति से रूबरू होती रही हैं. वे अमेरिका के लिए भी अच्छा साबित होंगी, भारत के लिए भी और पूरी दुनिया के लिए भी.
पिछले दिनों जिस तरह से बराक ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन का समर्थन करते हुए निजी तौर पर अमेरिकियों से कहा कि वे क्लिंटन के साथ आयें, उससे लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति पद की दावेदारी के चुनाव में हिलेरी क्लिंटन का पलड़ा भारी रहनेवाला है.
दरअसल, घरेलू राजनीति में ओबामा और क्लिंटन के बीच कोई बड़ा मतभेद नहीं है, छोटे-मोटे मतभेद तो रहते ही हैं. दूसरी बात यह है कि विदेश नीति के मामले में भी ओबामा और क्लिंटन की नीति में कुछ खास फर्क नहीं है. ऐसे में ओबामा के समर्थकों के बीच एक संदेश तो जायेगा ही कि वे क्लिंटन के साथ जायें. ट्रंप की आक्रामकता के मद्देनजर क्लिंटन को मिले ओबामा के समर्थन से अमेरिकी जनता में एक सकारात्मक संदेश जरूर जायेगा.
दुनिया के हर देश के चुनावी मौसम में मुद्दों की भरमार तो रहती ही है, अमेरिका में भी कुछ प्रमुख मुद्दे हैं. गन कंट्रोल, आतंकवाद, हेल्थ केयर आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर दोनों नेताओं ने बहुत कुछ कहा नहीं है. अमेरिका में हथियारों को लेकर गन कंट्रोल पर कोई भी अमेरिकी नेता कुछ बोलना नहीं चाहता है.
दरअसल, ट्रंप की लॉबी पूरी अमेरिका में है, उनकी आक्रामकता तो गन कंट्रोल पर कुछ बोलने से रही, लेकिन हिलेरी भी इसलिए नहीं बोल सकतीं, क्योंकि दुनियाभर में आतंकवाद को खत्म करने को लेकर उन्हें हथियार तो चाहिए ही. इसलिए दोनों नेता गन कंट्रोल पर कोई काम नहीं करने जा रहे. आतंकवाद को लेकर कोई भी अमेरिकी नेता किसी तरह का समझौता नहीं कर सकता.
जहां तक हेल्थ केयर की बात है, तो अगर क्लिंटन जीत गयीं, तो इस सफल नीति को आगे बढ़ायेंगी, ऐसी उम्मीद है. लेकिन, अगर ट्रंप जीत गये, तो वे इस स्वास्थ्य नीति को शायद खत्म कर दें. कुल मिला कर देखें, तो अमेरिका की घरेलू राजनीति के लिहाज से, उसकी विदेश नीति के लिहाज से, डेमाेक्रेसी के लिहाज से और विभिन्न अमेरिकी मुद्दों के लिहाज से डोनाल्ड ट्रंप के मुकाबले हिलेरी क्लिंटन का राष्ट्रपति बनना ज्यादा बेहतर होगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
वायरल हुआ ट्रंप के नाम एक खुला खत
(‘ह्यूमेन्स ऑफ न्यूयार्क’ के संस्थापक ब्रैंडन स्टेन्टन ने डोनॉल्ड ट्रंप के नाम एक खुला खत लिखा है. फेसबुक पर उनके इस पोस्ट पर 20 लाख से ज्यादा लाइक, 10 लाख से ज्यादा शेयर और करीब 64 हजार कमेंट्स हैं. इस तरह इस पोस्ट ने फेसबुक के सारे पुराने रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये हैं. ह्यूमेन्स ऑफ न्यूयॉर्क के फेसबुक पेज पर आप इसे अंगरेजी में पढ़ सकते हैं. यहां प्रस्तुत है पोस्ट का हिंदी अनुवाद.)
प्रिय ट्रंप,
मैंने बहुत कोशिश की कि मैं राजनीतिक ना होऊं. मैंने आपके बहुत सारे साथी उम्मीदवारों का इंटरव्यू करने से मना कर दिया. इस विवादित चुनाव में किसी का पक्ष लेकर मैं निजी साख को दावं पर नहीं लगाना चाहता था. मुझे लगा, ‘शायद वक्त सही नहीं है.’ लेकिन अब यही महसूस किया है कि हिंसा और पूर्वाग्रह की भर्त्सना का इससे बेहतर कोई समय नहीं है. यही वो समय है, क्योंकि लाखों अमेरिकी नागरिकों की तरह, मैंने भी यह महसूस किया है कि आपका विरोध अब एक राजनीतिक मामला नहीं है. यह एक नैतिक सवाल है.
मैंने देखा है कि आप नस्लवादी तस्वीरें शेयर करते हैं. मैंने देखा है कि आप नस्लवादी झूठ फैलाते हैं. मैंने देखा है कि आप खुशी-खुशी हिंसा को प्रोत्साहित करते हैं. ऐसे लोगों की कानूनी फीस भरने का वादा करते हैं, जो आपकी तरफ से हिंसा करें. मैंने देखा है कि आप आतंकवादियों के घरवालों के लिए यातना और उनकी हत्या का समर्थन करते हैं. मैंने देखा है कि आप सुअर के खून में डुबो कर मुसलमानों को मारी गयी गोलियों की कहानियां खुशी-खुशी सुनाते हैं. मैंने देखा है कि आप शरणार्थियों की तुलना सांप से करते हैं और दावा करते हैं कि इसलाम हमसे नफरत करता है.
प्रिय ट्रंप, मैं एक पत्रकार हूं. पिछले दो वर्षों में मैंने सैकड़ों मुसलमानों का इंटरव्यू किया है. ईरान, इराक और पाकिस्तान की गलियों-सड़कों पर बिना सोचे-समझे इंटरव्यू के लिए उनका चुनाव किया है. सीरिया और इराक के शरणार्थियों का इंटरव्यू करने के लिए मैंने सात देशों का दौरा किया है. इसके बाद मैं दावा कर सकता हूं कि नफरत से भरे आप हैं, वो नहीं.
हममें से जो भी सावधान हैं, वो आपको आपकी दुकान चमकाने की इजाजत नहीं देंगे. आप एक यूनिफायर नहीं हैं. आप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नहीं हैं. आप उस गुस्से का शिकार नहीं हैं, जिसे कुछ महीनों में आपने चटखारे लेकर भड़काया है. आप एक ऐसा आदमी हैं, जिसने ताकत हासिल करने के लिए पूर्वाग्रह और हिंसा को प्रोत्साहित किया है. और हां, अगले कुछ महीनों में आपकी भाषा यकीनन बदल जायेगी, लेकिन आप हमेशा वही रहेंगे जो अभी हैं.
आपका, ब्रैंडन स्टेन्टन
(शहनवाज मलिक की फेसबुक वॉल से)
चुनाव की शुरुआती प्रक्रिया
अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए होनेवाले चुनाव की प्रक्रिया भारत के मुकाबले काफी पेचीदा और लंबी है. यहां राष्ट्रपति का चुनाव चार साल में होता है. मतदान के लिए नवंबर में 2 से 8 तारीख के बीच का मंगलवार तय है. इस बार यह दिन 8 नवंबर को है.
1. मैदान में बराक ओबामा क्यों नहीं?
1951 में लागू हुए 22वें संशोधन में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए एक तय अवधि का प्रावधान किया गया. इसके तहत कोई भी व्यक्ति दो कार्यकाल यानी आठ साल से अधिक राष्ट्रपति निर्वाचित नहीं हो सकता. 1967 में लागू हुए 25वें संशोधन में राष्ट्रपति के पद छोड़ने या उनका निधन होने पर उपराष्ट्रपति को देश का नया राष्ट्रपति नामित करने के नियम और शर्तें तैयार की गयीं. अब तक हुए 56 राष्ट्रपति चुनावों में से 52 में निवर्तमान उम्मीदवारों की जीत हुई है. चूंकि वर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने दो कार्यकाल पूरे कर चुके हैं, इसलिए वे इस बार चुनाव नहीं लड़ सकते.
2. कौन लड़ सकता है चुनाव?
अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए प्रारंभिक तौर पर चार मानदंडों पर खरा उतरना जरूरी है. पहला, व्यक्ति की अमेरिकी नागरिकता जन्म आधारित हो. दूसरा, वह कम-से-कम लगातार 14 वर्षों से अमेरिका का निवासी हो. तीसरा, उसकी न्यूनतम उम्र 35 वर्ष हो और चौथा, उसे अंगरेजी का ज्ञान हो. यह जरूरी नहीं है कि उपर्युक्त चारों मानदंडों को पूरा करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रपति का चुनाव लड़ सकता है. उसे एक लंबी और कड़ी प्रक्रिया से गुजरना होता है. चुनाव लड़ने का ख्वाब देखनेवाले व्यक्ति सबसे पहले एक समिति बनाते हैं. यह समिति चुनाव के लिए चंदा इकट्ठा करती है. साथ ही लोगों के मन को भांपने का काम करती है. यह काम चुनाव से दो साल पहले ही शुरू हो जाता है.
दरअसल, अमेरिकी जनता सीधे तौर पर देश के राष्ट्रपति का चुनाव नहीं करती है, बल्कि उसे एक निर्वाचन मंडल का चुनाव करना होता है. अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में वैसे तो किसी भी दल को अपने-अपने उम्मीदवार खड़े करने का अधिकार है, लेकिन 1853 के बाद कभी भी ऐसा नहीं हुआ, जब डेमोक्रेटिक अथवा रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों के अलावा किसी तीसरे दल का उम्मीदवार इस पद पर काबिज हुआ हो.
3. प्राइमरी और कॉकस
प्राइमरी और कॉकस अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की अहम प्रक्रिया हैं. ये जनवरी से जून तक चलती है. इसमें दोनों पार्टियां अपने उम्मीदवारों की सूची जारी करती हैं. इसके बाद अमेरिका के 50 राज्यों के वोटर्स पार्टी प्रतिनिधि (पार्टी डेलीगेट) चुनते हैं. हालांकि, प्राइमरी स्तर पर पार्टी प्रतिनिधि चुनने के लिए अमेरिकी संविधान में कोई लिखित निर्देश नहीं है. दोनों पार्टियों ने अपने-अपने हिसाब से इसे अपना रखा है. प्राइमरी तरीका ज्यादा परंपरागत है और अधिकतकर राज्यों में इसे ही अपनाया जाता है.
इसमें आम नागरिक हिस्सा लेते हैं और पार्टी को बताते हैं कि उनकी पसंद का उम्मीदवार कौन है. वहीं, कॉकस का प्रयोग ज्यादातर उन राज्यों में होता है, जहां पर पार्टी के गढ़ होते हैं. कॉकस में ज्यादातर पार्टी के पारंपरिक वोटर ही हिस्सा लेते हैं. प्रत्येक राज्य के मतदाता अपने-अपने उम्मीदवार के डेलीगेट के नाम वोट देते हैं और फिर वो डेलीगेट अपनी-अपनी पार्टी नेशनल कन्वेंशन में इकट्ठे होते हैं और सभी राज्यों से जिस प्रत्याशी के डेलीगेट ज्यादा होते हैं, उसे उम्मीदवार घोषित कर दिया जाता है. रिपब्लिकन उम्मीदवार को 1,237 डेलिगेट्स की जरूरत पड़ती है और डेमोक्रेटिक उम्मीदवार को 2,383 डेलिगेट्स चाहिए होते हैं.
4. जबरदस्त चुनाव प्रचार
दोनों पार्टियों की ओर से उम्मीदवारों का चयन होने के बाद शुरू होता है जबरदस्त चुनाव प्रचार. इसमें तमाम उभरती हुई तकनीकों का जम कर इस्तेमाल होता है. अमेरिका में जहां शुरुआती दौर में ग्रामोफोनो के जरिये चुनाव प्रचार किया जाता था, वहीं 1920 का दशक आते-आते इसने तेजी से उभर रही नयी तकनीक रेडियो को अपना लिया. बाद में चल के टेलीविजन का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया. टीवी डिबेट अमेरिका में टीवी पर राष्ट्रपति उम्मीदवारों के बीच बहस होने की एक बेहद महत्वपूर्ण परंपरा है.
औपचारिक रूप से 1960 में पहली बार उम्मीदवारों के बीच टीवी पर बहस हुई थी. इस वर्ष रिचर्ड निक्सन और जॉन एफ कैनेडी के बीच चार बार बहस हुई थी. मतदाताओं का मूड अपने पक्ष में करने के लिए यह बहस काफी अहम मानी जाती है. मौजूदा राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चार साल पूर्व इंटरनेट का इस्तेमाल करके युवाओं को अपने से जोड़ने का अभूतपूर्व प्रयास किया था. इस चुनाव में तो उम्मीदवार और आगे निकल चुके हैं. वे ‘सोशल मीडिया’ का जम कर इस्तेमाल कर रहे हैं. आखिरी 6 हफ्तों में दोनों उम्मीदवार तीन टीवी डिबेट में शामिल होते हैं और फाइनल वोटिंग इलेक्शन डे को होती है.
5. इलेक्टोरल कॉलेज
राष्ट्रपति चुनाव का अहम पड़ाव है मतदाताओं द्वारा इलेक्टोरल का चुनाव. ये इलेक्टोरल राष्ट्रपति पद के किसी उम्मीदवार का समर्थक होता है. यदि इनमें से कोई इलेक्टोरल अपनी राजनीतिक निष्ठा के खिलाफ जाता है, तो उस पर कानूनी कार्रवाई का प्रावधान है. चुने हुए इलेक्टर एक ‘इलेक्टोरल कॉलेज’ बनाते हैं, जिसमें कुल 538 सदस्य होते हैं. ये संख्या अमेरिका के दोनों सदनों की संख्या का जोड़ है. अमेरिकी सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स यानी प्रतिनिधि सभा और सीनेट का जोड़ है.
प्रतिनिधि सभा में 435 सदस्य होते हैं, जबकि सीनेट में 100 सांसद. इन दोनों सदनों को मिला कर संख्या होती है 535. अब इसमें 3 सदस्य और जोड़ दीजिए और ये तीन सदस्य आते हैं अमेरिका के 51वें राज्य कोलंबिया से. इस तरह कुल 538 इलेक्टोरल अमेरिकी राष्ट्रपति चुनते हैं. ‘इलेक्टर्स’ चुनने के साथ ही आम जनता के लिए चुनाव खत्म हो जाता है. यदि तकनीकी रूप से देखा जाये, तो अमेरिकी जनता वोटिंग डे के दिन प्रेजिडेंट के लिए वोट नहीं करती है.
-अवधेश आकोदिया