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मनरेगा पर ज्यादा सरकारी धन खर्च

मनरेगा देश की सबसे बड़ी योजना है, जिस पर केंद्र सरकार 40-42 हजार करोड़ रुपये सालाना खर्च करती है. इसके मकसद के बारे में सभी जानते हैं. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) एक कानून है, जो शासन को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वह किसी भी ग्रामीण परिवार के […]

मनरेगा देश की सबसे बड़ी योजना है, जिस पर केंद्र सरकार 40-42 हजार करोड़ रुपये सालाना खर्च करती है. इसके मकसद के बारे में सभी जानते हैं. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) एक कानून है, जो शासन को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वह किसी भी ग्रामीण परिवार के वैसे सदस्यों को एक साल में सौ दिन का रोजगार मुहैया कराये, जो 18 साल की उम्र पूरी कर चुके हैं और अकुशल मजदूर के रूप में काम करना चाहते हैं.

25 अगस्त 2005 को नरेगा कानून देश में लागू हुआ और तब से अब तक इसका पूरा-पूरा लाभ लोगों तक पहुंचाने के लिए सरकार की चुनौतियां कम नहीं हुई हैं. इसकी बड़ी वजह है कि इसमें सीधे तौर पर पैसे का हस्तांतरण होता है. मजदूर में जागरूकता, साक्षरता, एकजुटता और प्रतिरोध की क्षमता का अभाव है. राजस्थान को छोड़ दें, तो करीब-करीब सभी राज्यों में भुगतान को लेकर मजदूरों की स्थिति एक जैसी है. दूसरा कि जो तंत्र राज्य से ग्राम पंचायत स्तर तक इस मनरेगा के कार्यान्वयन में लगा है, वह भ्रष्ट है. इस भ्रष्ट तंत्र के आगे मनरेगा की कानूनी सख्ती भी कमजोर पड़ जाती है. इसलिए अब तक मनरेगा की योजनाओं के चयन, उनके कार्यान्वयन और मजदूरों के भुगतान को लेकर जितनी भी तकनीक विकसित किये गये, सब में दोष पैदा होता गया. नतीजा है कि ज्यादातर राज्यों में मजदूरों ने यह मान लिया कि मनरेगा उनके हित के लिए नहीं है और वे परंपरागत मजदूरी-पेशे तक खुद को सीमित कर लेना ज्यादा मुनासिब समझ रहे हैं. इस ने मजदूर पलायन में कमी नहीं आने दी.

चार साल बाद बदला नाम
मनरेगा शुरू में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी नरेगा कहा गया था. दो अक्तूबर 2009 को महात्मा गांधी की जयंती पर इसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा नाम दिया गया.

2008 में पूरे देश में हुई लागू
मनरेगा (तब नरेगा) योजना दो फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में शुरू की गयी थी. अगले साल इसे और 130 जिलों में विस्तारित किया गया. वर्ष 2008-09 में पहली अप्रैल से यह देश के सभी 593 जिलों में लागू की गयी. इसी अनुपात में मनरेगा का खर्च भी बढ़ा.

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम
यह कानून है. इसका पालन शासन और उसके तंत्र को करना है. इसलिए इसकी सफलता और विफलता का श्रेय उन्हीं पर है. यह अधिनियम राज्य सरकारों को मनरेगा को लागू करने के निर्देश देता है. मनरेगा के तहत केंद्र सरकार मजदूरी की लागत, माल की लागत का 3/4 और प्रशासनिक लागत का कुछ प्रतिशत वहन करती है. राज्य सरकारें बेरोजगारी भत्ता, माल की लागत का 1/4 और राज्य परिषद की प्रशासनिक लागत को वहन करती है. चूंकि बेरोजगारी भत्ता राज्य सरकार को देना है और यह सरकार के तंत्र द्वारा मजदूर को मांगने पर काम देने में विफल रहने पर दिया जाना है, तो यह उम्मीद की गयी कि राज्य सरकारें और उनका तंत्र इसे लेकर ज्यादा संवेदनशील होंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. तंत्र ने तमाम प्रावधानों और व्यवस्था के बाद भी बेरोजगारी भत्ते के भुगतान के मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया.

बेरोजगारी भत्ते की राशि राज्य सरकार का विषय
बेरोजगारी भत्ते की राशि को निश्चित करना राज्य सरकार पर निर्भर है, जो इस शर्त के अधीन है कि यह पहले 30 दिनों के लिए न्यूनतम मजदूरी के 1/4 भाग से कम ना हो और उसके बाद न्यूनतम मजदूरी का 1/2 से कम ना हो. प्रति परिवार 100 दिनों का रोजगार (या बेरोजगारी भत्ता) सक्षम और इच्छुक श्रमिकों को हर वित्तीय वर्ष में प्रदान किया जाना है.

किसे देना है आवेदन
ग्रामीण परिवारों के वयस्क सदस्य ग्राम पंचायत के पास एक तस्वीर के साथ अपना नाम, उम्र और पता जमा करते हैं. जांच के बाद पंचायत, घरों को पंजीकृत करती है और एक जॉब कार्ड प्रदान करती है. जॉब कार्ड में, पंजीकृत वयस्क सदस्य का ब्यौरा और उसका फोटो शामिल होता है. एक पंजीकृत व्यक्ति या तो पंचायत या कार्यक्र म अधिकारी को लिखित रूप से (निरंतर काम के कम से कम चौदह दिनों के लिए) काम करने के लिए एक आवेदन प्रस्तुत कर सकता है. आवेदन पर काम नहीं मिले, तो दैनिक बेरोजगारी भत्ता आवेदक पाने का अधिकारी है. इस अधिनियम के तहत पुरु षों और महिलाओं के बीच किसी भेदभाव की अनुमति नहीं है. इसलिए पुरु षों और महिलाओं को समान दर पर मजदूरी का भुगतान किया जाना है.

लक्ष्य से पीछे रही योजना
मनरेगा की योजनाओं के कार्यान्वयन में कई खामियां रही हैं, जिन्हें दूर करने की पहल अब भी जारी है. इस योजना के विशेषज्ञ और आलोचक इन कमियों की चर्चा तो करते ही रहे हैं, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने भी इसे स्वीकार किया. इन कमियों का ही नतीजा रहा कि मनरेगा में जॉब कार्डधारियों को रोजगार देने का राष्ट्रीय औसत केवल 48 कार्य दिवस रिकॉर्ड किया गया.

पैसे ही नहीं, संसाधन भी असुरक्षित
मनरेगा की समीक्षा में राष्ट्रीय स्तर पर जो तथ्य सामने आये हैं, उनमें यह बात उभरी है कि मनरेगा के पैसों की बंदरबांट तो हो ही रही है, इस योजना से तैयार होने वाले ग्रामीण विकास के आधारभूत संसाधन और संरचना भी असुरक्षित हैं. चाहे तालाब हो या सिंचाई कूप, गांव-पंचायत के दबंग किस्म के लोग उनका अतिक्रमण और निजी हित में इस्तेमाल करने में पीछे नहीं हैं. इसलिए सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग ऐसी संरचना की सूची बना कर उनकी निगरानी कर सकते हैं. इसमें सूचनाधिकार का भी प्रयोग कर सकते हैं. पंचायत सरकारें अगर ऐसे मामलों की अनदेखी करने पर झझकोरा जा सकता है.

मनरेगा में राजस्थान ज्यादा सफल
राजस्थान में मनरेगा की योजनाएं अन्य राज्यों के मुकाबले सफल रहीं. इसकी एक मात्र वजह रही कि वहां के जनसंगठन और लाभुक ज्यादा जागरूक हैं. उन्होंने नागरिक अधिकारों के लिए कई लंबे-लंबे आंदोलन किये. सूचना का अधिकार अधिनियम आने के पहले उन्होंने इस अधिकार की ताकत को जाना और उसका इस्तेमाल किया. पंचायतों में हुए एक-एक पैसे का खर्च उन्होंने गांधीवादी आंदोलन के जरिये सार्वजनिक कराया और उस पर जन सुनवाई की. भ्रष्टाचार को उजागर किया और अपने हक को हासिल करने की गांव-पंचायत स्तर पर मुहिम छेड़ी. जब मनरेगा की बारी आयी, तो उनकी इस जागरूकता ने उस पर भी प्रभाव छोड़ा. इस जागरूकता, जन सुनवाई और एकजुटता की मांग बिहार-झारखंड में भी है.

एकीकृत बाल विकास योजना
समन्वित बाल विकास योजना या एकीकृत बाल विकास योजना का संक्षिप्त नाम आइसीडीएस है. इसके तहत छह वर्ष तक के बच्चों, गर्भवती महिलाओं तथा स्तनपान कराने वाली महिलाओं को स्वास्थ्य, पोषण एवं शैक्षणकि सेवाओं का पैकेज प्रदान करने की योजना है. यह योजना महिला और बाल विकास मंत्रलय के अंतर्गत 1975 में शुरू की गयी थी. हाल में केंद्र सरकार द्वारा योजना को प्रभावपूर्ण ढंग से क्रि यान्वित कराने के लिए कुछ नये कदम उठाये गये हैं. इसके अंतर्गत 11-18 वर्ष के किशोर आयु वर्ग की बालिकाओं के लिए सेवाओं, गैर सरकारी संगठनों की प्रभावशाली भागीदारी और निगरानी को सुदृढ़ बनाया गया है. इस योजना के तहत सभी उपलब्ध सेवायें, प्रत्येक छह वर्ष के नीचे के बच्चों को गुणवत्ता के साथ सुनिश्चित कराना सरकार का संकल्प है. पिछले वित्त वर्ष में सरकार ने इस योजना के लिए 15850 करोड़ रु पये आवंटित किये थे.

स्वयंसिद्धा
इस योजना को वर्ष 2000-01 में इस उद्देश्य के साथ शुरू किया गया था कि महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और कानूनी सशक्तीकरण के लिए चलने वाली सभी योजनाओं को समन्वित रूप में संचालित किया जाये. यह केंद्र सरकार के महिला और बाल विकास मंत्रलय द्वारा शुरू की गयी थी. इसे पूरे आठ साल तक चलाया गया. इसके तहत महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को छोटी बचतों के लिए प्रोत्साहित किया गया. इस योजना का मकसद महिलाओं का वित्तीय समावेशन था. योजना सौ फीसदी केंद्र प्रायोजित थी. इसके तहत 70 हजार से अधिक महिला समूहों के बैंक खाते खोले गये. यह योजना 31 मार्च 2008 को समाप्त कर दी गयी है.

‘स्वाधार’ योजना
‘स्वाधार’ में दो शब्द हैं ‘स्व’ व ‘आधार’ यानी लाभुक को ऐसी मदद, जिससे वह अपने जीने-खाने का स्वयं का आधार प्राप्त कर सके. यह पूर्ण रूप से केंद्र प्रायोजित योजना है. केंद्र सरकार के महिला और बाल विकास मंत्रलय द्वारा इसे 2001-02 में शुरू किया गया. यह वैसी महिलाओं के लिए है, जो कठिन परिस्थितियों में रह रही हैं. इस योजना के अंतर्गत वेश्यावृत्ति, रिहा कैदी, प्राकृतिक आपदा अथवा अन्य किसी भी कारण से बेघर और बेसहारा पीड़ित महिलाओं को स्वाधार गृह लाया जाता है, जहां उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें. यह परियोजना समाज कल्याण, महिला एवं बाल विकास विभागों, महिला विकास निगमों, शहरी निकायों के निजी, सार्वजनिक ट्रस्टों या स्वैच्छिक संगठनों आदि के माध्यम से कार्यान्वित की जाती है. पूर्वशर्त यह है कि उन्हें अलग-अलग परियोजनाओं के आधार पर इस तरह की महिलाओं के पुनर्वास का वांछित अनुभव और कौशल हो.

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