हाथ के संग दिल भी मिले, तो बात बने
चीन के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने के बाद अपने पहले विदेश दौरे में ली केचियांग सबसे पहले रविवार को भारत पहुंचे. इसे जहां चीन के नये सत्ता संस्थान द्वारा भारत की अहमियत के स्वीकार के तौर पर देखा जा रहा है, वहीं चंद रोज पहले जम्मू-कश्मीर के लद्दाख में चीनी सेना द्वारा की […]
चीन के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने के बाद अपने पहले विदेश दौरे में ली केचियांग सबसे पहले रविवार को भारत पहुंचे. इसे जहां चीन के नये सत्ता संस्थान द्वारा भारत की अहमियत के स्वीकार के तौर पर देखा जा रहा है, वहीं चंद रोज पहले जम्मू-कश्मीर के लद्दाख में चीनी सेना द्वारा की गयी घुसपैठ के ठीक बाद हो रहे इस दौरे ने द्विपक्षीय संबंधों को लेकर कई महत्वपूर्ण सवालों को भी जन्म दिया है.
हाल के वर्षो में जहां भारत-चीन रिश्तों में एक तरह की परिपक्वता देखी गयी है, वहीं लद्दाख जैसी घटना चीन के वास्तविक मंशे पर सवाल भी खड़ा करती है. चीनी प्रधानमंत्री के दौरे के क्या हैं निहितार्थ और भारत को इससे कितनी उम्मीद लगानी चाहिए, ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशता आज का नॉलेज..
।। रंजन राजन ।।
यह अनायास नहीं है कि चीनी प्रधानमंत्री ली केचियांग 19 मई से शुरू हुए अपने पहले विदेश दौरे में सबसे पहले भारत पहुंचे हैं. और यह भी अनायास नहीं है कि उनके दौरे से कुछ सप्ताह पहले चीनी सैनिक लद्दाख के पास भारतीय सीमा का अतिक्रमण कर तीन सप्ताह तक जमे रहे. दरअसल, चीन के द्वारा ये दोनों ही कदम सोची-समझी रणनीति के तहत उठाये गये हैं, जिसे व्यापक फलक पर समझने की जरूरत है.
चीन और भारत की बढ़ती धाक
वैश्वीकरण की राह पर कुछ दशकों के सफर के बाद अब दुनिया का पुराना शक्ति संतुलन अपना अस्तित्व पूरी तरह खो चुका है. आज यदि चीन और भारत, दोनों को दुनिया की नयी महाशक्तियों में गिना जाता है, तो यह आकलन उनकी सेनाओं और सैन्य साजो-सामान के आधार पर नहीं, बल्कि उनकी अर्थव्यवस्था में निहित ताकत के आधार पर गिना जाता है.
चीन को उम्मीद है कि वह 2020 तक अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जायेगा. उसका आकलन यह भी है कि इस मामले में भारत भी 2060 तक अमेरिका को पीछे छोड़ सकता है.
फिलहाल खरीद की क्षमता के आधार पर भारत की जीडीपी का आकार अब केवल अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और चीन से ही कम है (सीआइ वल्र्ड फैक्टबुक के मुताबिक). इस मामले में भारत ने हाल में जर्मनी और जापान को पीछे छोड़ दिया है. (देखें टेबल)
उधर, ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओइसीडी) ने लंबी अवधि के आर्थिक रुझानों का विश्लेषण करते हुए कहा है कि एशिया 2030 तक दुनिया की आर्थिक ताकत का केंद्र बन जायेगा.
वैश्विक उत्पादन में इस समय ओइसीडी के सदस्य देशों (कुल संख्या 34, जिनमें ज्यादातर विकसित देश) का योगदान करीब दो तिहाई है, जबकि सिर्फ चीन और भारत का सम्मिलित योगदान करीब एक चौथाई तक पहुंच चुका है.
इतना ही नहीं, अनुमान तो यहां तक लगाया जा रहा है कि 2060 तक वैश्विक जीडीपी में दोनों देशों का योगदान आधे से थोड़ा ही कम रह जायेगा, जबकि ओइसीडी देशों का योगदान घट कर एक चौथाई के करीब हो जायेगा. इस बीच विकासशील देशों में भोजन, पानी और ऊर्जा की मांग भी 2060 तक दोगुनी हो जाने का अनुमान है.
ऐसे में यह जरूरी है कि मानवीय जरूरतों को बेहतर तरीके से पूरा करने के लिए दुनिया के दो सबसे ज्यादा आबादी वाले देश आपस में मिल कर नये सिरे से रणनीति तैयार करें. एक-दूसरे के प्राकृतिक संसाधनों और मानव निर्मित तकनीकों के अधिकतम उपयोग की रणनीति बनाएं. यह न केवल इन दोनों देशों और यहां के लोगों के भविष्य के लिए जरूरी है, बल्कि इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा.
दो महाशक्तियों में मेल-मिलाप
पड़ोसी मुल्क में मार्च में नयी पीढ़ी को सत्ता हस्तांतरित किये जाने के बाद 57 वर्षीय ली केकियांग अपने पहले विदेश दौरे पर निकले हैं, जिसमें भारत के बाद पाकिस्तान, जर्मनी और स्विट्जरलैंड जायेंगे. दौरे की शुरुआत भारत से करने का संकेत साफ है. चीन के सरकारी अखबार ने लिखा है- चीन का नया नेतृत्व भारत के साथ अपने रिश्तों को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है.
भारत यात्रा शुरू करने से पहले ली ने कहा, एशिया को ‘विश्व अर्थव्यवस्था का इंजन’ बनाने के लिए चीन और भारत को हाथ मिलाना चाहिए. इन दोनों देशों के विशाल बाजारों के बीच संपर्क से दोनों ओर के लोगों को बहुत फायदा होगा और इससे एशिया के साथ ही वैश्विक आर्थिक वृद्धि तथा समृद्धि को बड़ी मदद मिलेगी.
जाहिर है, चीन और भारत के प्रधानमंत्रियों की मुलाकात में आपसी व्यापार का मुद्दा सबसे अहम होगा. चीन और भारत के बीच 2011 में 73 अरब डॉलर से अधिक का व्यापार हुआ था और इसके 2015 तक 100 अरब डॉलर से अधिक हो जाने की उम्मीद थी. लेकिन 2012 में यह आंकड़ा गिर कर 66 अरब डॉलर पर पहुंच गया. इसमें भारत से चीन को हो रहे निर्यात में करीब 24 फीसदी की बड़ी गिरावट आयी है, जो भारतीय व्यापार जगत के लिए बड़ी चिंता का विषय है.
ऐसा नहीं है कि दोनों देशों में सहयोग बढ़ाने की कोशिशें ली के दौरे से ठीक पहले शुरू हुई हैं. बीते मार्च में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की डरबन में ब्रिक्स सम्मेलन से इतर हुई पहली मुलाकात में भी आपसी हितों के मुद्दों पर सहयोग बढ़ाने का वादा किया गया था.
इसके बाद दोनों देशों के बीच आधिकारिक और राजनयिक स्तर पर वार्ताओं का दौर चला, जिसके आखिर में भारतीय विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद चीन गये. चीनी प्रधानमंत्री ने खुर्शीद से बीजिंग में 10 मई को कहा था, भारत और चीन के संबंधों का केवल दोनों देशों के लिए ही रणनीतिक महत्व नहीं है, बल्कि इसका वैश्विक प्रभाव है, क्योंकि दोनों बड़े विकासशील देश हैं और दुनिया के दो बड़े उभरते बाजार भी.
तो फिर जंग की बातें क्यों!
हालांकि लद्दाख के घटनाक्रम के बाद द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने के प्रयासों पर पानी फिरता नजर आया. ऐसे में यह सवाल लाजमी है कि जब दोनों देश मौजूदा वैश्विक हकीकत और जरूरतों को समझ रहे हैं, तो फिर चीनी सैनिकों ने सीमा को लांघ कर अपने प्रधानमंत्री के इस पहले दौरे को खतरे में क्यों डाला? इसके जरिये वे आखिर क्या संदेश देना चाहते थे? इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (आइडीएसए), नयी दिल्ली के डायरेक्टर जनरल अरविंद गुप्ता के मुताबिक, लद्दाख के घटनाक्रम में भारत के लिए कई सबक छिपे हैं.
पहला, इसे बीजिंग की दबाव बनाने की रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए. दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर में भी अपने पड़ोसियों के प्रति चीन का रुख पहले से आक्रामक बना हुआ है. दूसरा संकेत यह है कि विवादों को सुलझाने में चीन निर्णायक भूमिका में रहने का प्रयास कर रहा है.
उसकी रणनीति स्पष्ट है, पहले मुद्दे को गरमाना, फिर खुद के द्वारा तय समय पर इसे हल करने के लिए दबाव बनाना. चीन की इस रणनीति ने लद्दाख में भारत को रक्षात्मक रुख अपनाने के लिए मजबूर कर दिया. तीसरा, चीन ने फिलहाल अपने सैनिक भले ही वापस बुला लिये हैं, लेकिन उसने जता दिया है कि वह शर्ते मानने नहीं, बल्कि मनवाने की स्थिति में है.
ऐसे में हो सकता है कि ली के दौरे के दौरान भी चीनी प्रतिनिधिमंडल ऐसी ही मंशा से कुछ नये प्रस्ताव सामने लाएं. इसलिए भारत के प्रतिनिधियों को अपने लोगों के हितों की रक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए और चीनी प्रतिनिधियों की मंशा का अत्यंत सावधानी से जवाब देना चाहिए. भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि द्विपक्षीय संबंधों में वह चीन का पिछलग्गू नहीं, बल्कि बराबर का भागीदार है.
क्या विश्वसनीय पड़ोसी बन पायेगा चीन!
मेल-मिलाप की कोशिशों के बीच समय-समय पर सीमा पर धौंस जमाते रहने के कारण ही चीन हमारा विश्वसनीय पड़ोसी नहीं बन पा रहा है. 1962 की जंग के समय की पीढ़ी के ज्यादातर लोग आज भी चीन को दुश्मन देश ही मानते हैं. हालांकि, मेड इन चाइना को अपने दैनिक जीवन में जगह देते वक्त हम कभी नहीं सोचते कि यह किसी दुश्मन देश को समृद्ध बनायेगा.
लेकिन कड़वी सच्चाई यह भी है कि जब तक सीमा पर बीच-बीच में तनातनी होती रहेगी, सीमा के आर-पार रह रहे लोगों में एक-दूसरे के लिए कड़वाहट कमोबेश बनी रहेगी. इसलिए इसका स्थायी हल जितनी जल्दी तलाश लिया जाये, उतना ही बेहतर होगा.
हालांकि यह अत्यंत जटिल मुद्दा है, जिसका दो दिन में कोई समाधान मुमकिन नहीं है, फिर भी ली के दौरे से पहले दोनों देशों की मीडिया रिपोर्टो में उम्मीद जतायी गयी है कि दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात में सीमा पर बेहतर प्रबंधन और विश्वास बहाली की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाये जायेंगे. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में ऐसे कदम धरातल पर भी नजर आयेंगे.