-सरयू राय-
खाद्य आपूर्त्ति मंत्री, झारखंड सरकार
पिछले दिनों सरयू राय जब अपने परिचित गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा और उनके पति डॉ रामकृपाल सिन्हा से मिलने गोवा पहुंचे, तो वहां के राजभवन में हुए अनौपचारिक वार्तालाप के क्रम में डॉ रामकृपाल सिन्हा द्वारा चारा घोटाले के प्रसंग में छेड़ी गयी चर्चा से उनकी अतीत की यादें सामने आकर खड़ी हो गयीं. गोवा में विविध पक्षीय और बहुआयामी िचंतन से वह इस समाधान तक पहुंचे कि बिहार के पशुपालन घोटाला के लिए केवल किसी एक को ही दोषी ठहराना पर्याप्त नहीं है.
दोष में कमोबेश उन सबका अपना-अपना हिस्सा है, जो समय-संदर्भ में इस व्यवस्था के अंग हैं या रहे हैं. व्यवस्था की त्रुटियों से आंखें मूंद लेना मुनासिब नहीं होगा. हमारी संवैधानिक राज व्यवस्था के तीनों अंगों – विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका – में निहित खामियों की भूमिका को नजरअंदाज करना वास्तविकता से नजर चुराना होगा. व्यवस्था की विफलता अपने समय के इस सबसे बड़े घोटाले का कारण है. व्यवस्था की विफलता के परिप्रेक्ष्य में पशुपालन घोटाले का मूल्यांकन भविष्य में स्वस्थ राजनय के लिए पथ-प्रदर्शक हो सकता है. सवाल है यह बीड़ा कौन उठाये? पढ़ें यह लेख.
गोवा के राजभवन में वहां की राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा जी से मिला तो अनायास ही कई पुराने संस्मरण चर्चा के दौरान उभर आये. विभिन्न विषयों पर काफी देर तक चर्चा हुई. मृदुला जी एक अनुभवी राजनीतिकर्मी और साहित्यकार तो हैं ही, वे एक संवेदनशील समाजकर्मी और स्नेहिल व्यक्तित्व की धनी भी हैं. वहां उनके पतिदेव डाॅ रामकृपाल सिन्हा से भी मुलाकात हुई.
डॉ सिन्हा बिहार विश्वविद्यालय के प्राध्यापक रहे हैं. वे राज्य सभा के और बिहार विधान परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं. 1977 में जब पहली बार केंद्र में कांग्रेस की सरकार अपदस्थ हुई थी और श्री मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी, तो रामकृपाल बाबू उस सरकार में वित्त राज्य मंत्री बने थे. बाद में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय कार्यालय के प्रभारी का दायित्व भी निभाया.
अरसा बाद रामकृपाल बाबू से मिलना हुआ था. उनका स्वास्थ्य पहले से काफी कमजोर हो गया है. परंतु उनकी मेधा और स्मरण शक्ति पूर्ववत तीक्ष्ण है. बातों ही बातों में वे 1993-95 के उन दिनों में चले गये, जब वे बिहार भारतीय जनता पार्टी के पूर्णकालिक मुख्यालय प्रभारी हुआ करते थे और करीब 14 वर्ष तक संघ परिवार के संगठनों से अलग रहने के बाद भाजपा में मेरी वापसी की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी. तब मैं एक मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार के नाते विभिन्न समाचार पत्रों, विशेषकर नवभारत टाइम्स के पटना संस्करण के लिए लिखा करता था. नभाटा के तत्कालीन संपादक श्री अरुण रंजन ने मुझे बिहार की आर्थिक स्थिति पर किश्तों में विशेष आलेख तैयार करने का जिम्मा दिया था, जिसे वे एक स्थायी स्तंभ के रूप में संपादकीय पृष्ठ पर छापते थे.
इसके अतिरिक्त मेरे द्वारा संग्रहित समाचारों को अखबार के प्रथम पृष्ठ के एंकर न्यूज, यानी प्रथम पृष्ठ के सबसे नीचे आधार पर प्रकाशित होनेवाली खबर, के रूप में छापने का एक अलिखित करार उनके साथ था. पत्रकारीय लेखन का यह सिलसिला 1991 से 1993 के बीच निर्बाध चला और भाजपा के मंच से पुन: बिहार की राजनीति में सक्रिय होने के साथ रुक गया.
इस अवधि में मुझे बिहार के वार्षिक बजट, योजना, वार्षिक योजनाओं के लिए तैयार किये जाने वाले वित्तीय अनुमानों एवं बिहार सरकार द्वारा वित्त आयोग आदि को समय-समय पर भेजे जाने वाले स्मारपत्रों के विवरणों को पढ़ने और समझने का मौका मिला.
इस दरम्यान उपलब्ध सीमित वित्तीय दस्तावेजों के अध्ययन-विश्लेषण से मुझे आभास हो गया था कि बिहार सरकार के खजाना से अवैध निकासी हो रही है और खासकर पशुपालन विभाग में इसका सुनियोजित सिलसिला चल रहा है. आगे चल कर यही सिलसिला बिहार के चर्चित पशुपालन घोटाला के रूप में उजागर हुआ, जो उस समय का देश का सबसे बड़ा घोटाला था. इस समय तक पूर्व के बड़े घोटालों में बोफोर्स तोप घोटाला का नाम ही घोटालों की सूची के शीर्ष पर था.
पशुपालन घोटाला उजागर होने और अंजाम तक पहुंच जाने की अवधि में और उसके पूर्व-पश्चात चली राजनीतिक उठा-पटक, कानूनी दांव-पेच, राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप, न्यायिक निर्णयों पर टीका-टिप्पणियों, नामचीन हस्तियों की गिरफ्तारियों-रिहाइयों के बीच मैं इन बातों को करीब-करीब भूल चुका था.
बिहार और देश की राजनीति को लंबे समय तक प्रभावित करते रहनेवाली इस बड़ी घटना के पीछे के विनम्र लघु पत्रकारीय हस्तक्षेप पर किसी का ध्यान भी इस दौर में नहीं गया कि इसे याद रखा जाये. परंतु राम कृपाल बाबू के थकने की कगार पर पहुंच चुके संस्कारी शरीर के भीतर के ज्वलंत एवं मेधावी मस्तिष्क में यह वाकया आज तक ताजा है. गोवा के विस्तृत समुद्र, जिसे राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा अपना निकटतम पड़ोसी बताती हैं, से घिरे वहां के विस्तृत राजभवन में राज्यपाल दंपति के साथ पारिवारिक-राजनीतिक सुख-दुख और भूले-बिसरे कथानकों तथा पुरानी राजनीतिक घटनाओं-परिघटनाओं के संदर्भ में परस्पर बातचीत का अनौपचारिक सिलसिला आरंभ हुआ तो इसके दौरान मेरे मानस पटल से करीब-करीब उतर चुका यह वृत्तांत रामकृपाल बाबू की स्मृति पटल स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित हो गया.
उन्होंने स्मरण दिलाया कि इस विषय की चर्चा मैं भाजपा कार्यालय में उनसे अक्सर किया करता था पर उन्हें इस पर विश्वास नहीं होता था कि कोषागार संहिता, वित्तीय नियमावली, बजट मैनुअल आदि के होते हुए आखिर सरकार के खजाने से अवैध निकासी कैसे हो सकती है. बजट में किसी विभाग को जितनी राशि आवंटित हुई है उससे अधिक राशि की निकासी वह विभाग कैसे कर सकता है, वह भी एक साल नहीं बल्कि साल दर साल, कई वर्षों तक लगातार.
मैं उन्हें बजट आंकड़ों का हवाला देकर समझाने की चेष्टा करता, परंतु वे बार-बार सीएजी से लेकर विधानसभा की लोक लेखा समिति और केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री रहने के दिनों के अनुभवों का हवाला देकर साफ इनकार करते कि ऐसा संभव नहीं है. केवल रामकृपाल बाबू ही नहीं, बल्कि हर जानकार आदमी भी यही कहता था कि आवंटन से अधिक निकासी सरकारी खजाना से संभव नहीं. घटनाक्रम के 22-23 साल बाद गोवा के राजभवन में डॉ रामकृपाल सिन्हा ने इस वाकये की याद दिलायी तो अन्य कई प्रसंग मेरे दिमाग में कौंधने लगे.
एक ऐसा ही प्रसंग 1994 के अक्तूबर महीने का है. तब मैं भारतीय जनता पार्टी, बिहार प्रदेश का महामंत्री था और प्रदेश प्रवक्ता भी. बिहार भाजपा के तत्कालीन दो शीर्ष नेताओं – प्रदेश अध्यक्ष श्री अश्विनी कुमार और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री कैलाशपति मिश्र ने तय किया कि लोकनायक जय प्रकाश नारायण के जन्मदिन 11 अक्तूबर को बिहार सरकार के विरुद्ध एक आरोप पत्र जारी किया जाये.
कैलाशपति मिश्र जी ने मुझे बुलाकर कहा कि आप बराबर बिहार सरकार में बढ़ते भ्रष्टाचार और सरकारी खजाना से अवैध निकासी की बातें करते रहते हैं, तो क्या आप बिहार की लालू प्रसाद सरकार के खिलाफ एक आरोप पत्र तैयार कर सकते हैं. उस समय तक लालू प्रसाद सरकार के खिलाफ कोई ठोस गंभीर आरोप नहीं लगा था. आम धारणा थी कि यह सरकार गरीब एवं पिछड़ा वर्ग परस्त सरकार है, जिसका नेतृत्व भ्रष्टाचार एवं महंगाई विरोधी जेपी आंदोलन का छात्र नेता रहा वह व्यक्ति कर रहा है जो गरीब घर में पैदा हुआ है़
जिसने गरीबी को झेला है, चपरासी का भाई है और पिछड़ों-गरीबों का कल्याण करने वाली एक ईमानदार सरकार चला रहा है. मैंने कैलाश जी को आश्वस्त किया कि मैं पार्टी के लिए एक आरोप पत्र तैयार कर दूंगा, जिससे उपरोक्त धारणाएं ध्वस्त हो जायेंगी और सरकार चलाने वाले की ईमानदारी पर गंभीर प्रश्न खड़े होंगे.
कतिपय पत्रकार मित्रों, सरकार के अंदरूनी सूत्रों और मेरे पास विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर मैंने लालू प्रसाद सरकार के विरुद्ध एक 44 सूत्री आरोप पत्र का प्रारूप तैयार कर बिहार भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष श्री अश्विनी कुमार को सौंप दिया, ताकि उसमें आवश्यक सुधार कर पार्टी के शीर्ष नेताओं द्वारा जेपी के जन्म दिन 11 अक्तूबर को सार्वजनिक रूप से जारी किया जा सके. 11 अक्तूबर के एक दिन पूर्व मेरी बुलाहट प्रदेश मुख्यालय में हुई.
अश्विनी जी और कैलाश जी दोनों वहां मौजूद थे. उन्होंने कहा कि आरोप पत्र तो आपने बढ़िया बनाया है, परंतु इसमें राज्य सरकार के विरुद्ध जो गंभीर आरोप लगाये गये हैं वे प्रमाणित कैसे होंगे?
यदि आपके पास इनके ठोस प्रमाण मौजूद हैं तो हमें दीजिए. मैंने बिहार सरकार के बजट दस्तावेजों एवं सरकार के कतिपय अन्य आंकड़ों का विश्लेषण कर उन्हें आरोपों की गंभीरता के प्रति आश्वस्त करने का भरपूर प्रयास किया पर सफल नहीं हुआ. अंत में मैंने उन्हें बताया कि आरोपों के सत्य होने की पूरी जिम्मेदारी मैं स्वयं लेने के लिए तैयार हूं. इस पर उन्होंने कहा कि यदि ऐसा है तो आप ही यह आरोप पत्र प्रेस वार्ता कर जारी कर दीजिए. ऐसा ही हुआ. मैंने प्रेस वार्ता बुलाये बिना पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता की हैसियत से अपने वक्तव्य के रूप में जारी कर दिया. अगले दिन के समाचार पत्रों में यह वक्तव्य छपा तो सरकार में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई जिसका उल्लेख यहां प्रासंगिक नहीं होगा.
इस संदर्भ के यहां उल्लेख की प्रासंगिकता फिलहाल इतनी ही है कि जिस प्रकार रामकृपाल बाबू पशुपालन विभाग में घोटाला होने और सरकारी खजाना से अवैध निकासी होने की मेरी पुष्ट अवधारणा से इस कारण सहमत नहीं हो पाते थे कि बजट मैन्युअल, फाइनांस रूल्स, ट्रेजरी कोड, सीएजी, लोकलेखा समिति, रिजर्व बैंक के नियम आदि के प्रभावी नियंत्रक प्रावधानों के रहते सरकारी खजाना से अवैध निकासी और सरकार के किसी विभाग द्वारा बजट आवंटन से काफी अधिक व्यय साल दर साल होते रहना संभव नहीं है. उसी प्रकार हमारी पार्टी के दो शीर्ष नेताओं को भी मैं इस बारे में भरोसा नहीं दिला पाया कि बिहार सरकार के पशुपालन विभाग में बड़ा घोटाला हो रहा है और सरकारी खजाना से अवैध निकासी साल दर साल होते आ रही है.
वरना बिहार का चर्चित पशुपालन घोटाला उसी समय 11 अक्तूबर 1994 को लोकनायक जय प्रकाश नारायण के जन्म दिन पर प्रकाश में आ गया होता और इसके उजागर होने के लिए 25 जनवरी 1996 के दिन का इंतजार नहीं करना पड़ता कि उस दिन अमित खरे नामक बिहार (अब झारखंड) के पश्चिमी सिंहभूम जिले का उपायुक्त चाईबासा ट्रेजरी पर छापा मारे और पशुपालन घोटाला एवं खजाना से हो रही अवैध निकासी का भंडा फोड़ने वाले सबूत बाहर लाये.
श्री अमित खरे द्वारा की गयी इस कार्रवाई के पहले एकाध और अवसर आये जब ज्ञानवान और समझदार लोगों ने इस बारे में मेरी बातों पर भरोसा नहीं किया. एक वाकया उस समय का है जब मैंने भाजपा में सक्रिय होने के बाद नवभारत टाइम्स सहित अन्य अखबारों के लिए स्वतंत्र लेखन करना बंद कर दिया था, कारण कि एक विचारधारा विशेष वाले विपक्षी राजनीतिक दल से जुड़ जाने के बाद स्वतंत्र एवं निष्पक्ष लेखन की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खड़ा होने की संभावना प्रबल हो गयी थी. फिर भी समाचार पत्रों से और पत्रकार जगत से सूचनाओं के आदान-प्रदान का सिलसिला जारी था.
ऐसे समय में एक सनसनीखेज समाचार हाथ आया. समाचार की प्रकृति और प्रमाण स्वरूप प्राप्त उपलब्ध दस्तावेज पर सहसा विश्वास होना कठिन प्रतीत हो रहा था. देवघर कोषागार से पशुपालन विभाग के खाता से जिला पशुपालन निदेशक द्वारा की गयी एक बड़ी अवैध निकासी के जो कागजात मुझे उपलब्ध कराये गये थे, वे हस्तलिखित थे और विहित प्रपत्र में नहीं थे.
जबकि ये कागजात उपलब्ध करानेवाले सूत्र, जो पशुपालन विभाग से थे, का दावा था कि हस्तलिखित होने और विहित प्रपत्र में नहीं होने के बावजूद इन्हीं दस्तावेजों से बड़ी निकासी हुई है और निकासी उस वक्त हुई है जब संथाल परगना के प्रमंडलीय पशुपालन निदेशक पद के प्रभार में भी कुछ दिनों तक देवघर जिला के पशुपालन निदेशक ही थे.
उन्होंने जिला निदेशक के नाते भुगतान का विपत्र तैयार किया, प्रमंडलीय निदेशक के नाते इसे संपुष्ट किया और कोषागार पदाधिकारी को मिला कर निकासी कर ली. देवघर जिला उपायुक्त तक को इसकी भनक नहीं लगने दी गयी. श्री सुखदेव सिंह जो संप्रति झारखंड सरकार में प्रधान सचिव पद पर हैं, उस समय देवघर के जिला उपायुक्त थे.
हर तरफ से इस खबर की सच्चाई से संतुष्ट होने के उपरांत मैंने इसकी चर्चा रामकृपाल बाबू सहित कई अन्य से भी की और समाचार पत्रों में यह गंभीर खबर प्रमुखता से छपे, इसका प्रयास भी किया़ परंतु इस तरीके से भी सरकारी खजाना से निकासी हो सकती है, इस पर विश्वास करने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ.
अंत में मैंने भाजपा के प्रदेश बुद्धिजीवी मंच के महामंत्री के नाते इस आशय का एक प्रेस वक्तव्य जारी किया. यह वक्तव्य भी हिंदी के एकाध अखबारों को छोड़ कर कहीं नहीं छपा. मीडिया से लेकर राजनीतिक दलों के नेताओं तक को यह विश्वास दिला पाना संभव नहीं हो पा रहा था कि तमाम नियमों-कानूनों के बावजूद बिहार सरकार का एक विभाग इत्मीनान से निर्भीक होकर सरकारी खजाना को चूना लगा रहा है और उस विभाग के कतिपय अधिकारियों का एक छोटा समूह इसके बूते सरकार में अपनी धाक जमा रहा है.
1995 के दिसंबर में बिहार विधान सभा के शीत सत्र में सीएजी के विगत तीन वित्तीय वर्षों, 1991-92, 1992-93 और 1993-94 का लेखा-जोखा एवं अंकेक्षण प्रतिवेदन बिहार विधान सभा के पटल पर रखा गया तो उसमें कई टिप्पणियां ऐसी थीं जिनके विश्लेषण से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता था कि पशुपालन विभाग में वह सब धड़ल्ले से हो रहा है, जिसके बारे में मैं लंबे समय से आशंका व्यक्त कर रहा था़ पर ठोस सबूत के अभाव मे लोगों को भरोसा नहीं दिला पा रहा था.
इस बारे में सबसे पहले मेरा ध्यान आकृष्ट किया नवभारत टाइम्स के वरीय पत्रकार सुकांत जी ने. नवभारत टाइम्स के लिए काम करते समय सुकांत जी से अक्सर इस बारे में मेरी बात होती रहती थी और मेरे वित्तीय आलेखों की संदर्भ सामग्रियों एवं वित्तीय आंकड़ों के विश्लेषण से उभरने वाले निष्कर्षों के बारे में भी उनसे चर्चा हुआ करती थी. 31 दिसंबर 1995 को सुबह-सुबह सुकांत जी ने मुझे टेलीफोन किया और विधान सभा में वितरित की गयी सीएजी अंकेक्षण रिपोर्ट के बारे में बताया. उन्होंने यह भी बताया कि विगत तीन वर्षों के अंकेक्षण प्रतिवेदन की प्रतियां उनके घर पर हैं और उन्होंने इनका अध्ययन भी कर लिया है.
बिना समय गंवाये मैं सुकांत जी के घर पहुंचा. उन्होंने सीएजी प्रतिवेदनों के प्रासंगिक अंशों को दिखाया और कहा कि आज तक आप सरकारी खजाना से अवैध निकासी की जो बात कहते रहे हैं उसका पुष्ट प्रमाण इन प्रतिवेदनों में है. मैने सरसरी तौर पर प्रतिवेदनों को देखा. वाकई सुकांत जी ने इनका गहन अध्ययन किया था. प्रासंगिक पृष्ठों की महत्व की पंक्तियों के नीचे उन्होंने लाल कलम से लकीरें खींच रखी थीं. उनके वे प्रतिवेदन आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं.
इन प्रतिवेदनों में सरकार के कतिपय अन्य विभागों में भी बजट आवंटन से अधिक निकासी होने के आंकड़े भी थे, परंतु अन्य विभागों की अधिकाई निकासी और पशुपालन विभाग की अधिकाई निकासी में अंतर यह था कि अन्य विभागों की अधिकाई निकासियां लोकलेखा समिति के माध्यम से पुनर्विनियोग की श्रेणी की थीं जबकि पशुपालन विभाग द्वारा की गयी निकासियां कपटपूर्ण निकासी की श्रेणी में रखी जाने वाली अवैध निकासी थीं.
हमलोगों ने तय किया कि इसके विरुद्ध हाइकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की जाये. इस हेतु मैं भाजपा के एक वरीय नेता (अब दिवंगत) और पटना हाइकोर्ट के नामी अधिवक्ता से समय लेकर 2 जनवरी की शाम उनके घर पहुंचा. उनके एक कनीय सहायक अधिवक्ता की मार्फत उन्हें सीएजी के प्रतिवेदनों के सार तत्व के बारे में बताया. इस संबंध में अपनी धारणा/ आशंका से भी उन्हें अवगत कराया और कहा कि मैं इस संबंध में सरकार के विरुद्ध हाइकोर्ट मे पीआइएल दाखिल करना चाहता हूं.
उन्होंने इस मामले में पीआइएल करने पर असहमति जाहिर की और स्पष्ट किया कि हाइकोर्ट किसी भी मामले में सबूत पर जाता है और सीएजी प्रतिवेदन की टिप्पणियां हाइकोर्ट में पीआइएल करने के लिए समाधान कारक प्रमाण नहीं हो सकतीं. उनके कनीय सहयोगी अधिवक्ता ने इस मामले में उनका दृष्टिकोण विस्तार से मुझे समझाया कि सीएजी प्रतिवेदनों में अंकित तथ्यों की समीक्षा करने के बाद विधान सभा की लोक लेखा समिति प्रतिवेदन तैयार कर विधान सभा में पेश करती है, इसलिए हाइकोर्ट इन प्रतिवेदनों के निष्कर्षों के आधार पर न्यायिक हस्तक्षेप करने के पक्ष में नहीं होगा़
इसलिए इस मामले में पीआइएल करना समाधानकारक नहीं होगा. रामकृपाल बाबू की ही तरह उन (अब स्वर्गीय) माननीय वरीय अधिवक्ता को मैं अपने दृष्टिकोण से सहमत कराने में सफल नहीं हो सका कि यह सामान्य अधिकाई निकासी नहीं है बल्कि कपटपूर्ण निकासी है, अवैध निकासी है और एक सुनियोजित घोटाला है.
इसके बाद हमने तय किया कि यह मामला वित्त आयुक्त के सामने रखा जाये. तब श्री विजय शंकर दूबे बिहार के वित्त सचिव सह आयुक्त थे जिनकी छवि एक कर्मठ और ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी की थी. मैने सुकांत जी की मदद लेकर सीएजी प्रतिवेदनों के निष्कर्षों के आधार पर एक विस्तृत स्मारपत्र वित्त सचिव सह आयुक्त के नाम तैयार किया और 6 जनवरी 1996 को उनके कार्यालय में प्राप्त करा दिया.
उसी दिन शाम को एक प्रेस नोट बनाकर यह स्मारपत्र समाचार पत्रों में भी प्रकाशनार्थ भेज दिया. पटना से प्रकाशित केवल एक अखबार ने यह समाचार छापा. मुझे उम्मीद नहीं थी कि इस पर कोई कारवाई होगी. बाद में पता चला कि वित्त सचिव सह आयुक्त ने सीएजी अंकेक्षण प्रतिवेदनों को गंभीरता से लिया है और कोषागारों से तथ्य संग्रह करने के उपरांत कार्रवाई करने का मन बनाया है.
उन्होंने सरकारी खजाना से अधिकाई निकासी की जानकारी हेतु सभी जिला कोषागारों से विगत वर्षों में विभिन्न विभागों के खाते से हुई निकासी की अद्यतन जानकारी उपलब्ध कराने के लिए राज्य के जिलाधिकारियों/उपायुक्तों को एक्सप्रेस आर्डर भेजा.
इस आदेश के अनुपालन में पश्चिमी सिंहभूम के तत्कालीन उपायुक्त अमित खरे ने चाईबासा ट्रेजरी का औचक निरीक्षण किया तो वहां पशुपालन विभाग के खाता से बड़े पैमाने पर अवैध निकासी के प्रमाण मिले. सीएजी प्रतिवेदनों में जिन अधिकाई निवासियों का जिक्र था, न केवल उनकी पुष्टि हुई, बल्कि प्रमाणित हो गया कि ये अधिकाई निकासियां कपटपूर्ण हैं और एक सुनियोजित घोटाला हैं.
यहीं से उस पशुपालन घोटाला का और सरकारी खजाना से अवैध निकासी का सप्रमाण भंडाफोड़ होना शुरू हुआ जिसके बारे में मैंने 1994 के 11 अक्तूबर को सार्वजनिक घोषणा की थी, पर पार्टी ने, कानूनविदों ने और यहां तक कि मीडिया ने भी विश्वास नहीं किया था. यदि श्री विजय शंकर दूबे जैसे प्रशासनिक पदाधिकारी ने भी सीएजी के अंकेक्षण प्रतिवेदनों पर कार्रवाई को लकीर के फकीर की तरह संविधान के प्रावधानों के अनुसार विधान सभा की लोकलेखा समिति के भरोसे छोड़ दिया होता और श्री अमित खरे ने इसके आलोक में चाईबासा ट्रेजरी पर छापा मारकर कागजात को जब्त नहीं किया होता, तो बिहार के सरकारी खजानों से अवैध निकासी बदस्तूर जारी रहती और पशुपालन घोटाला के बारे में मेरे जैसे लोगों की आवाज सत्ता के गलियारों में अरण्य रुदन की तरह दब जाती और विपक्ष के नाहक प्रलाप की श्रेणी में शुमार होकर रह जाती.
गोवा के राजभवन में हुए अनौपचारिक वार्तालाप के क्रम में डाॅ रामकृपाल सिन्हा द्वारा छेड़े गये इस प्रसंग ने भूली बिसरी स्मृतियों पर से विस्मृति के धूल की परत क्या हटायी, अतीत के वातायन से ऐसे अनेक प्रसंग अनायास मानस पटल पर उभरने लगे. गोवा के चार दिवसीय प्रवास में मिले एकांत ने इन्हें घनीभूत कर दिया. तब से अब तक के अनेक संस्मरण मानस पटल पर आते जाते रहे.
इस दौर में किसके साथ क्या घटा, किसने क्या भूमिका निभायी, किसने क्या पाया, किसने क्या खोया, बिहार की राजनीति में क्या बदला, अफसरशाही पर क्या असर हुआ, ऐसे सवाल कौंधते रहे. लगता रहा कि इस प्रकरण को लिपिबद्ध किया जाये. इसका लेखन रोचक तो होगा, पर इसके एकांगी होने का खतरा भी है. आत्मश्लाघा और परनिंदा से परे होकर तटस्थ भाव से इसका लेखन कितना कठिन होगा तथा स्वनिर्मित परिधि की सीमा के बाहर जा पाना कितना मुमकिन होगा, यह सवाल भी मन में उमड़ता-घुमड़ता रहा.
इस संदर्भ में बहुआयामी और विविध पक्षीय चिंतन से एक समाधान अवश्य हुआ कि बिहार के पशुपालन घोटाला के लिए केवल किसी एक को ही दोषी ठहराना पर्याप्त नहीं है. दोष में कमोबेश उन सबका अपना अपना हिस्सा है जो समय संदर्भ में इस व्यवस्था के अंग हैं या रहे हैं. व्यवस्था की त्रुटियों से आंख मूंद लेना मुनासिब नहीं होगा.
हमारी संवैधानिक राज व्यवस्था के तीनों अंगों – विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका – में निहित खामियों की भूमिका को नजरअंदाज करना वास्तविकता से नजर चुराना होगा. व्यवस्था की विफलता अपने समय के इस सबसे बड़े घोटाले का कारण है. व्यवस्था की विफलता के परिप्रेक्ष्य में पशुपालन घोटाला का मूल्यांकन भविष्य में स्वस्थ राजनय के लिए पथ प्रदर्शक हो सकता है. सवाल है यह बीड़ा कौन उठाये?