बस्तर के स्कूलों में लौटने लगे हैं शिक्षक
शुभ्रांशु चौधरी बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए के. रमेश जैसे सैकड़ों शिक्षक हैं जो बिना स्कूल गए वेतन उठाते रहे हैं. के. रमेश सरकारी शिक्षक हैं पर बीते छह साल से यानी जब से उनकी नौकरी लगी है वे अपने स्कूल नहीं जाते थे. हालांकि उनको महीने में 21,000 रूपये की तनख्वाह मिलती है. बस्तर […]
के. रमेश सरकारी शिक्षक हैं पर बीते छह साल से यानी जब से उनकी नौकरी लगी है वे अपने स्कूल नहीं जाते थे. हालांकि उनको महीने में 21,000 रूपये की तनख्वाह मिलती है.
बस्तर में ऐसे सैकड़ों के. रमेश हैं जो झंडा शिक्षक के नाम से जाने जाते हैं. ये लोग 15 अगस्त और 26 जनवरी को अपने स्कूल में राष्ट्रीय झंडा फहराने जाते हैं. उनके झंडा फहराने के बाद नक्सली उसे उतार देते है और विरोध स्वरुप काला झंडा फहराते हैं. ऐसा हर साल होता है.
पर पहली बार कुछ अलग भी हुआ है. बीजापुर बस्तर संभाग का सबसे संवेदनशील ज़िला है. ज़िले के बहुत बड़े हिस्से में नक्सलियों की ही सरकार चलती है. ऐसे ही एक गाँव गुंडराजगुडा में के. रमेश का सरकारी स्कूल है.
पहली बार बीजापुर के कलेक्टर यशवंत कुमार ने यह आदेश दिया कि जो शिक्षक स्कूल नहीं जाते उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाए. उन्हें सुझाव दिया गया कि शिक्षकों को एक आख़िरी मौक़ा दिया जाए. इसके बाद से दो को छोड़कर बाकी शिक्षक अब नियमित स्कूल जाने लगे हैं.
के. रमेश नौकरी गुंडराजगुडा में करते हैं पर उन्हें सरकारी आवास ब्लॉक मुख्यालय आवापल्ली में मिला हुआ है. वहां जब हमने उनसे मुलाक़ात की तो उन्होंने बताया कि गुंडराजगुडा में बिजली और पानी नहीं है इसलिए वे स्कूल नहीं जाते थे पर कलेक्टर के फरमान के बाद अब वे वहीं रहते हैं.
उन्होंने बताया कि गाँव वालों ने ही उन्हें एक झोपड़ी बनाकर दी है और बगल की झोपड़ी में जो स्कूल है वहां वे 33 बच्चों को पढ़ाते हैं. उनके स्कूल में अभी भी दोपहर भोजन की कोई व्यवस्था नहीं है. वे बगल के तालपेरू नदी से पानी लाकर पीते हैं जैसा गाँव वाले भी करते हैं.
हमने पूछा कि क्या नक्सलियों से कोई परेशानी है तो उन्होंने बताया नहीं. क्या नक्सली पहले भी उन्हें स्कूल आकर पढ़ाने का अनुरोध करते थे उन्होंने कहा हाँ.
ब्लॉक शिक्षा अधिकारी बी एस नागेश कहते हैं, “हम अगली बैठक में उन दोनों शिक्षकों की नौकरी की समाप्ति का प्रस्ताव भेजने वाले हैं जो अब भी स्कूल नहीं जा रहे हैं.”
माइनिंग के साथ महुआ इकॉनमी
दंतेवाड़ा वहां हो रही हिंसा के अलावा वहां की लोहे की खदान के लिए भी प्रसिद्ध है. नेशनल मिनरल डेवेलपमेंट कारपोरेशन के खदानों से राष्ट्र को हर साल औसतन 6000 करोड़ रुपये से ज़्यादा की आमदनी होती है पर उसका अधिक फ़ायदा स्थानीय लोगों को पिछले 50 सालों में नहीं हुआ है.
वहां नौकरी पर पांच फ़ीसदी लोग भी स्थानीय नहीं है और अधिकारी वर्ग में तो लगभग कोई भी नहीं. आकाश बडवे प्रधानमंत्री रूरल डेवेलपमेंट फेलो हैं जो पिछले तीन सालों से दंतेवाडा में काम कर रहे हैं.
ये फेलो नक्सल प्रभावित जिलों में कलेक्टर और लोगों के बीच की कड़ी का काम करते हैं.
आकाश कहते हैं, “प्रधानमंत्री ने भी यहाँ आकर विकास और शान्ति के लिए सिर्फ स्टील प्लांट की ही बात की, पर उससे कितने स्थानीय लोगों का भला होगा?”
वे हमें मोचो बाड़ी (मेरा खेत) योजना का प्रयोग दिखाने ले गए. इसके बारे में वे बताते हैं, “यहाँ बरसात के बाद जानवर खुले में छोड़ दिए जाने का रिवाज़ है जिससे बाकी के आठ महीनों में कोई खेती संभव नहीं है तो हम एनएमडीसी के कारपोरेट सोशल रेस्पांसिबिलिटी फंड से किसानों के खेतों में फेंसिंग लगवा रहे हैं. हम उन्हें सोलर वाटर पंप दिलवाते हैं और उन्हें जैविक खेती की ट्रेनिंग देकर प्रोत्साहित करते हैं.”
रतिराम यादव कहते हैं, “सरकार ने पहले हमें रासायनिक खाद का उपयोग करने के लिए बोला तो हम लोग उसका उपयोग करते थे पर उससे हमारी मिट्टी खराब हो रही है. अब मोचो बाड़ी (मेरा खेत) योजना से हमारी ज़मीन में फेंसिंग लग गयी है तो हम लोग सब्जी उगा रहे हैं. जैविक रीति से थोड़े सालों में उत्पादन भी पहले जैसा होने लगेगा और खर्च तो इसमें बहुत कम है और बाज़ार में भी हमारी जैविक सब्जी सबसे पहले बिक जाती है.”
आकाश कहते हैं, “आज लगभग एक हज़ार किसान जैविक खेती कर रहे हैं अब हम दंतेवाड़ा के जैविक चावल को आदिम नाम से शहरी बाज़ार में बेचना चाहते हैं. माइनिंग के साथ महुआ इकोनोमी को भी बढ़ावा दिया जाए तो आम लोगों का भी फायदा होगा.”
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