भाषाई पत्रकारिता और हिंदी

-हरिवंश- हिंदी को राष्ट्रभाषा या बहुसंख्यकों की भाषा कहकर हम चाहे जी भर अपनी पीठ थपथपा लें, पर हकीकत यही है कि अन्य भाषाई पत्र-पत्रिकाओं की तुलना में हिंदी पत्रकारिता हीन स्थिति में है. मेरा आशय बेहतर सेवा शर्तों या लेखकों-फ्रीलांसरों को बेहतर भुगतान से नहीं है. ये अलग मुद्दे हैं. अत्यंत गंभीर पर इन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 29, 2016 5:41 PM

-हरिवंश-

हिंदी को राष्ट्रभाषा या बहुसंख्यकों की भाषा कहकर हम चाहे जी भर अपनी पीठ थपथपा लें, पर हकीकत यही है कि अन्य भाषाई पत्र-पत्रिकाओं की तुलना में हिंदी पत्रकारिता हीन स्थिति में है. मेरा आशय बेहतर सेवा शर्तों या लेखकों-फ्रीलांसरों को बेहतर भुगतान से नहीं है. ये अलग मुद्दे हैं. अत्यंत गंभीर पर इन पर अलग से विचार करना होगा. विचार, सूचना, विश्लेषण, खबर, ले आउट और स्तर की दृष्टि से कई भाषाओं की पत्रकारिता हिंदी के मुकाबले बहुत आगे, आधुनिक और संपन्न है. हालांकि एक कटुसत्य है कि हिंदी भाषा को सरकारी स्तर पर केंद्र सरकार और छह राज्य सरकारों का प्रत्यक्ष समर्थन और संरक्षण है.

दरअसल अंगरेजी अखबारों को राष्ट्रीय अखबार मान लिया गया है, यह एक बड़ी भ्रांति है. अंगरेजी के किसी भी अखबार की प्रसार संख्या पूरे देश में नहीं है. ‘ इंडियन एक्सप्रेस’ जो अपने को ‘एकमात्र राष्ट्रीय अखबार’ मानता है, 11 केंद्रों से छपता है. पर पूर्वोत्तर भारत के किसी भी केंद्र से नहीं. ‘हिंदू’ भी खुद को ‘भारत का राष्ट्रीय अखबार’ घोषित करता है, पर मद्रास में इसका कार्यालय है और उपग्रह संचार माध्यम के बाद दिल्ली से इसका प्रकाशन आरंभ हुआ है. इसके पहले दक्षिण के कुछ और शहरों से इसका फेसिमाइल संस्करण निकलता था.

अंगरेजी पत्रकारिता सिकुड़ रही है, फिर भी सत्ता और शक्ति के स्रोतों पर उसका आधिपत्य है. 1983-1990 के बीच अंगरेजी पाठकों की संख्या घटी है. इसके अनुपात में हिंदी पाठकों की संख्या बढ़ी है. हिंदी अखबारों की आज कुल 25 लाख प्रतियां बिक रही हैं, तो अंगरेजी की 8.29 लाख. स्रोत एनआरएम-4. लेकिन इस अनुपात में हिंदी अखबारों को विज्ञापन नहीं मिल रहा. अंगरेजी अखबारों को हिंदी अखबारों के मुकाबले पांच गुना अधिक विज्ञापन मिल रहे हैं. ओआरजी ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार अंगरेजी अखबारों की कुल विज्ञापन मद में 56.2 फीसदी खर्च होता है, तो हिंदी अखबारों पर 13.5 फीसदी.

1989 में अंगरेजी अखबारों पर विज्ञापन का 56 फीसदी खर्च होता था, तो हिंदी पर 15 फीसदी, जबकि 1990 के दशक में हिंदी अखबारों की विकास पर 147 फीसदी रही है. पर अंगरेजी पत्रकारिता ‘पावर’ से जुड़ी है. पर इसके समानांतर अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता हिंदी के मुकाबले काफी फल-फूल रहे हैं. भाषाई पत्रकारिता में ही नये पाठकों का वर्ग उभरा है. हालांकि भाषाई पत्रकारिता के विकास मार्ग में दो प्रमुख अड़चनें हैं. संचार माध्यमों में अंगरेजी का वर्चस्व. रोमन वर्णमाला के माध्यम से अभिव्यक्ति. हिंदी टाइप भी आ गये हैं. पर गैर हिंदी भाषाओं के लिए दूर-दूर तक रोमन लिपि से छुटकारा पाने की संभावना नहीं है. क्योंकि ‘इंडियन लैंग्वेज वायर न्यूज सर्विस अंगरेजी हिंदी में है. देवनागरी या रोमन लिपि में बहुभाषी समाचार एजेंसी विकसित करने का प्रयास विफल हो चुका है.

भाषाई दैनिक पत्रों की प्रसार संख्या अंगरेजी अखबारों के मुकाबले काफी बढ़ी है. 1952 में अंगरेजी अखबारों की प्रसार संख्या कुल प्रसार संख्या के 27.6 फीसदी थी, जो गिरकर 1979 में 22.5 फीसदी रह गयी. पहली बार हिंदी अखबारों ने अंगरेजी अखबारों को 1979 में पीछे छोड़ दिया. 1952 में हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या थी, कुल प्रसार संख्या का 15 फीसदी हो गयी. स्पष्ट है कि अंगरेजी के पाठकों में इस अवधि में लगभग 5 फीसदी की गिरावट हुई, तो हिंदी पाठकों की संख्या में 8 फीसदी की वृद्धि हुई. 1952 से 1979 के बीच हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या आठ गुना (1952: 379000, 1979: 2548000) बढ़ी. लेकिन इस आंकड़े की असलियत हिंदी भाषी लोगों को समझना होगा. हिंदी भाषी इलाको में प्रति 1000 पढ़े-लिखे लोगों में से 12.9 पाठक थे. 1979 में, 1952 में 2.8 पाठक थे. मलयालम, बंगला और कन्नड़ के मुकाबले हिंदी में पाठकों की वृद्धि दर बहुत पीछे और अमहत्वपूर्ण है. 1953 में मलयालम के पाठक थे, 14 मिलियन. 1980 में यह संख्या बढ़कर हो गयी 26.6 मिलियन. 1952 में मलयालम अखबारों की प्रसार संख्या थी 196000. 1979 में हो गयी 1,273,000. 1960 में प्रति 1000 साक्षर लोगों में मलयालम अखबारों के पाठक थे 67.81 में यह बढ़कर हो गया 73.90.

1953 में 26.2 मिलियन लोग बंगला बोलते थे. 1980 में यह संख्या बढ़कर दो गुनी हो गयी 54.8 मिलियन 1952 में बंगला अखबारों की कुल प्रसार संख्या थी 240,000. तब मलयालम अखबारों की तुलना में यह प्रसार संख्या अधिक थी. हालांकि मलयालम भाषी लोगों की तादाद बंगला भाषी लोगों के मुकाबले कम थी. 1960 में प्रति हजार बंगला भाषी लोगों में से 23.45 फीसदी लोग अखबार पढ़ते थे, जबकि 1979 में 39.57 फीसदी.

आश्चर्यजनक ढंग से साक्षर लोगों के बीच सबसे अधिक अखबार पढ़नेवालों की संख्या कन्नड़ में है. हालांकि साक्षरता के मामले में कर्णाटक पूरे देश के राज्यों की सूची में बीच में होगा. 1960 में प्रति हजार पढ़े लिखे में 54.20 कन्नड़ी अखबारों के पाठक थे. 1960 में यह संख्या बढ़ कर 78.72 हो गयी. 1980 में 78.76. तमिलनाडु इस संदर्भ में पहेली है. कर्नाटक के मुकाबले तमिलनाडु में साक्षर अधिक हैं. पर अखबार पाठकों की संख्या में गिरावट आयी है. तमिल में 1960 में प्रति 1000 साक्षर लोगों में 60.63 पाठक थे, तो 1970 में 56.01 हो गये. 1979 में घटकर उनकी संख्या हो गयी 38.86.

अखबारों के पाठकों की संख्या निर्भर करती है साक्षरता, जागरूकता और क्रयशक्ति पर. अगर साक्षरता और जागरूकता हो, पर क्रयशक्ति न हो तो अखबारों की प्रसार संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं होगी. भारत के ग्रामीण इलाकों में ऐसी ही स्थिति है.

आंध्रप्रदेश में ‘ईनाडु’ की सफलता गौरतलब है. उसके साढ़े तीन लाख ग्राहक हैं, वह संस्करण हैं. इस समाचार पत्र के संवाददाता मंडल (14-15 गांवों का समूह) तक फैले हैं. जिला मुख्यालय में फैक्स या टेलीप्रिंटर है, जो सीधे मुख्य कार्यालय से जुड़े हैं. ‘ईनाडु’ में रिक्तियों के अनुरूप प्रशिक्षार्थी पत्रकार चुने जाते हैं, जिन्हें दो वर्षों तक गहन प्रशिक्षण दिया जाता है. ‘ईनाडु’ में मुख्य भूलें क्या छपती हैं, प्रति पखवारे इस पर उस संस्था में कार्यरत पत्रकारों में विपरीत होती है. वहां के पत्रकार इस पर शिद्दत से आपस में चर्चा करते हैं. एक दूसरे के गुण-दोष पर बहस नहीं करते ओर न ही साथी पत्रकार को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं. 2 वर्ष तक गहन प्रशिक्षण के बाद ही पत्रकार ‘इनाडु’ में काम आरंभ करते हैं.

केरल में ‘मलयालम मनोरमा’ है. 14 जिलों के लिए 22 संस्करण निकलते हैं. छह जगहों से अखबार छपता है. छोटी जगह कोट्टयम में मुख्यालय है. छह लाख से भी अधिक की बिक्री है. इस समाचार-पत्र ने ‘समाचार’ की परिभाषा को ही पलट दिया है. आमतौर पर राजनेता या विशिष्ट व्यक्ति या बड़ी घटनाओं के ईद-गिर्द ही समाचार बनते हैं. पर ‘मलयालम मनोरमा’ ने मामूली आदमी को भी समाचार का केंद्र बना दिया है. वृहद (मैक्रो) से लघु (माइक्रो) को समाचार का केंद्र व मापदंड बनाया है. उद्योग, विज्ञान टैक्नोलॉजी पर भरपूर सामग्री छपती है. ‘मलयालम मनोरम’ के प्रसार-फैलाव के पीछे कई रोचक तथ्य हैं. 1888 में स्थापित यह अखबार मात्र कोट्टयम से छपता था.

1967 में कोझिकोड से इसका संस्करण आरंभ हुआ. अब यह कोचीन, त्रिवेंद्रम, पालघाट से भी प्रकाशित होता है. कुल 607175 प्रतियां इसकी बिकती हैं. इसका मुख्य प्रतिद्वंद्वी अखबार है ‘मातृभूमि’. 1922 में इसकी स्थापना हुई. कोझिकोड, कोचीन और त्रिवेंद्रम से यह छपता है. 1911 में त्रिवेंद्रम से ‘केरल कौमुदी’ छपना आरंभ हुआ. अब कोझिकोड से भी छपता है. यह तीसरे नंबर पर है. 138000 प्रसार संख्या है. चौथे नंबर पर है मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का अखबार ‘देशाभिमानी’. कोझिकोड, कोचीन और त्रिवेंद्रम से यह छपता है और बिकता है 104224 प्रतियां.

मलयालम अखबार एक दूसरे के दुर्ग में प्रवेश करना चाहते हैं. निष्पक्ष और प्रोफेशनल तौर-तरीके से.’मलयालम मनोरम’ अखबार को एक हिंदू रजवाड़े के शासन क्षेत्र में ईसाई कॉफी बगान के मालिकों ने अपनी हित रक्षा के लिए आरंभ किया. ‘मातृभूमि’ की स्थापना कोझिकोड में की गयी, जो मद्रास प्रेसिडेंसी के अंतर्गत आता था. आजादी की लड़ाई में इस अखबार की महत्वपूर्ण भूमिका थी. ‘केरल कौमुदी’ पत्र पिछड़ी इजवा जाति की हित रक्षा के उद्देश्य से आरंभ किया गया.

‘मलयालम मनोरम’ ने गैर ईसाइयों के बीच अपना आधार पुख्ता करने और विश्वसनीयता बनाने का काम आरंभ किया. उधर ‘मातृभूमि’ ने ईसाई पाठकों के बीच अपनी पैठ बनाने की कोशिश की. 1967 में ‘मलयालम मनोरम’ ने कोझिकोड में मातृभूमि को चुनौती दी. वहां उच्चवर्ण के हिंदू रहते हैं. ‘केरल कौमुदी’ ने कोझिकोड से अपना प्रकाशन आरंभ किया, क्योंकि वहां इजवा जाति से मिलती-जुलती पिछड़ी जातियां थीं. अब तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी अपना प्रकाशन मालावार क्षेत्र से बाहर ले जाने की योजना बना रही है. मालावार में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का काफी बोलबाला-गढ़ है. कर्नाटक के मलयालम भाषी लोगों के लिए कुर्ग और कनूर से मलयालम अखबार प्रकाशन के लिए बेचैन हैं. ‘मातृभूमि’ तो तमिलनाडु के कोयांबटूर से अपने प्रकाशन की योजना बना चुका है. केरल के सभी अखबार माकपा समेत व्यावसायिक तौर तरीके से काम कर रहे हैं, ताकि उनकी विश्वसनीयता बनी रहे. उनके पास अत्याधुनिक तकनीक है.

मलयालम अखबार अंतरराष्ट्रीय खबरों, विकास संबंधी खबरों, सामाजिक मुद्दा, खेल, स्टॉक मार्केट आदि पर बेहतरीन सामग्री देते हैं. बंगला अखबार भी इसी तरह की समृद्ध चीजें अपने पाठकों को देते हैं. खास तौर से बंगला, मलयालम, तमिल, तेलुगु, गुजराती और मराठी अखबार अपने पाठकों को जागरूक बनाने का काम करते हैं. राजनीतिक, सामाजिक सुधार और आर्थिक विकास से संबंधित भरपूर खबरें देते हैं. शहरीकरण, शिक्षा में बढ़ोत्तरी और आर्थिक विकास के कारण इन भाषाओं के अखबार संबंधित राज्यों के सुदूर गांवों तक अब पहुंचने लगे हैं, जबकि हिंदी की स्थिति ठीक इसके विपरीत है. जनसंख्या और पाठकों के अनुपात पर नजर डालें, तो हिंदी की दयनीय स्थिति स्पष्ट होती है. देश भर में लगभग 40 करोड़ हिंदी भाषी-भाषी हैं, 40 करोड़ लोगों की भाषा में महज 25 लाख हिंदी अखबार बिकते हैं, जबकि केरल की कुल जनसंख्या है, लगभग 3 करोड़, पर दैनिक अखबारों के ग्राहक हैं लगभग 17 लाख.

गुजराती में ‘जन्मभूमि’, ‘प्रवासी’ और ‘प्रजावाणी’ अखबार हैं. तमिल में ‘दिनतंदि’ व ‘दिनमनि’ हैं. महाराष्ट्र में ‘लोकसत्ता’, ‘महाराष्ट्र टाइम्स’, ‘महानगर’, ‘नवाकाल’ जैसे पत्र हैं. बंगला में ‘आनंद बाजार’, ‘आजकल’, ‘गणशक्ति’, ‘वर्तमान’, संवाद प्रतिदिन’ आदि दैनिक पत्र हैं. ले-आउट, भाषा, आधुनिकीकरण या सूचना संपन्नता की दृष्टि से उत्तरप्रदेश या बिहार के अखबारों से ये समाचार पत्र बहुत आगे हैं. इन भाषाओं में निकलनेवाले दूसरे समाचार पत्र भी बेहतर स्थिति में है. इनके पास समृद्ध लाइब्रेरी (रिफरेंस सेक्शन) और आधुनिक टेक्नोलॉजी हैं. अन्य भाषाई पत्रकारों में संचार माध्यमों (टीवी-वीडियो) की प्रतिस्पद्धार्धा में अपने अखबारों को ताजा, आकर्षक व अधिक सूचना संपन्न बनाने पर बहस होती है. हिंदी में राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस बंद है, तो क्षेत्रीय अखबारों में यह अपेक्षा ही भूल है. राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण (चार) के अनुसार पिछले आठ वर्षों में टीवी का विकास नौ फीसदी से 68 फीसदी हुआ है. अखबारों के पाठकों में कुल 13 फीसदी की गिरावट हुई है. एक अपढ़ या अविकसित समाज में टीवी का प्रबल आकर्षण है, हिंदी इलाके के अखबार ओर अखबारनवीस इस भावी संकट से अनजान हैं. राष्ट्रीय स्तर पर (एनआरएस-4) प्रेस विज्ञापन में टीवी के कारण 16 फीसदी की कमी आयी है.

मैं उन ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक कारणों के मूल में नहीं जा रहा कि हिंदी पत्रकारिता अन्य भाषाई पत्रों के मुकाबले पिछड़ी और हीन स्थिति में क्यों हैं? क्यों सुरुचिपूर्ण पाठकों का वर्ग नहीं बढ़ रहा है? क्यों पाठकों की संख्या में तेजी से इजाफा नहीं हो रहा है? हिंदी पत्रकारिता में आज पत्रिकाएं लगभग खत्म हो चुकी हैं. तमिलनाडु की कुल जनसंख्या 1981 की जनगणना के अनुसार साढ़े चार करोड़ के आसपास है. साढ़े चार करोड़ में 15 लाख लोग पाठक हैं. बिहार-पूर्वी उत्तरप्रदेश की जनसंख्या लगभग 14 करोड़ होगी. अगर इस इलाके से प्रकाशित सभी अखबारों को मिला दें, तो पाठकों की कुल संख्या 20-25 लाख से अधिक नहीं बढ़ती. ग्राहक तो 5-6 लाख हैं. ‘मनोहर कहानियां’ हिंदी में 54 लाख लोगों तक पहुंचती है. (एनआरएस-4) तो नवभारत टाइम्स अनेक संस्करण निकाल कर 35 लाख लोगों तक . गुजराती अखबारों के साढ़े सैंतीस लाख पाठक हैं. महाराष्ट्र में साढ़े सतासी लाख पाठक हैं. आंध्र में छत्तीस लाख के लगभग. कर्णाटक में 40 लाख के ऊपर. केरल में एक करोड़ से ऊपर. तमिलनाडु में 54 लाख के ऊपर. पश्चिम बंगाल में लगभग 48 लाख, पर बिहार में कुल पाठक हैं लगभग 20 लाख और उत्तरप्रदेश में 60 लाख. जनसंख्या के अनुपात में इन पाठकों की संख्या पर गौर करना होगा. यह दलील भी गलत है कि हिंदी में पाठकों की संख्या कम है. मनोहर कहानियां 54 लाख लोगों तक पहुंचती है. सवाल लोगों के रूझान-रुचि का है. समाचारपत्रों का बुनियादी धर्म और कर्म है, पाठकों के सुरुचिपूर्ण और जागरुक बनाना. हिंदी अखबार यह काम नहीं कर पा रहे हैं.

दूसरी भाषाई पत्रकारिता अचानक समृद्ध और आधुनिक नहीं हो गयी. बंगला में ‘गौर किशोर घोष’ जैसे समर्पित लोग 25-30 वर्ष पूर्व गांवों में जा कर रहते थे. किसानों से चौपालों में बहस-बातचीत करते थे. इस श्रमसाध्य तरीके से उन्होंने ‘गौरव’ हासिल किया है. आंध्र में ईनाडु का जन्म 1974 के लगभग हुआ और वह तेलुगु भाषा-संस्कृति की धड़कन बन गया, महज 10 वर्षों में. हिंदी के जिन अखबारों में ‘महाराष्ट्र टाइम्स’, ‘लोकसत्ता’, ‘ईनाडु’, ‘मलयालम मनोरमा’ या ‘आनंद बाजार पत्रिका’ बनने और आजादी की संघर्षशील पत्रकारिता की तरह क्षेत्रीय पत्रकारिता को नेतृत्व देने की संभावनाएं थीं, वह चूक गये. कितने हिंदी के पत्रकार-पाठक इस बात से चिंतित हैं कि आज हिंदी में कोई ‘आनंद बाजार’ ‘ईनाडु’ या ‘मलयालम मनोरमा’ क्यों नहीं है? भावी पत्रकारों के लिए हम कैसी पत्रकारिता की जमीन तैयार कर रहे हैं या छोड़ रहे हैं.

यह तर्क भी अब अधूरा-आंशिक लगता है कि देश के हृदय प्रदेशों उत्तरप्रदेश, बिहार में चूंकि पुनर्जागरण जैसा माहौल नहीं बना, इस कारण सामाजिक चेतना की लहर प्रस्फुटित नहीं हुई. इन क्षेत्रों में संघर्षशील चेतना रही है. कबीर, रैदास की जीवंत परंपरा है, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पराड़कर जी, शिवपूजन सहाय, बेचन शर्मा उग्र, गणेश शंकर विद्यार्थी, रामवृक्ष बेनीपुरी की विरासत है. फिर भी उत्तरप्रदेश-बिहार में आज सांस्कृतिक दारिद्रय है. कुरुचि है.

सेवा शर्तों-सुविधाओं के संदर्भ में मैंने खुद जाकर देखा कि ‘ईनाडु’, ‘आनंद बाजार’ या ‘मलयालम मनोरमा’ देश के कथित बड़े राष्ट्रीय समाचार संस्थानों से बहुत आगे और बेहतर हैं. पर यह अचानक-रातों-रात नहीं हुआ. हिंदी में आर्थिक पिछड़ेपन के कारण व्यावसायिक विज्ञापनों का लाभ बहुत कम छोटे अखबारों को मिलता है. उत्तरप्रदेश-बिहार की सरकारों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि वे अखबारों को नियमित विज्ञापन का भुगतान कर-करा सकें. इस कारण हिंदी अखबार बहुत तेजी से बंद हो रहे हैं. अब सरकार कहती है कि रुग्ण सार्वजनिक इकाइयां नहीं चल सकतीं, तो आप समझ सकते हैं कि निजी क्षेत्र में अखबार कब तक घाटे पर चलेंगे? हिंदी के बड़े राष्ट्रीय अखबार दो-ढाई सौ रुपये स्ट्रिंगर्स को देते हैं? हिंदी में ‘फ्रीलांसिंग’ कर कोई भी पत्रकार गुजारा नहीं कर सकता. क्यों? हिंदी पत्रकारिता आर्थिक पिछड़ेपन के दुष्चक्र में फंसी है.

आप ‘फ्रीलांसिंग’ या दूर-दराज गांव-देहात से खबर भेजनेवालों की स्थिति समझ सकते हैं. कुछ अखबार तो फ्रीलांसरों को ‘परिचय-पत्र’ देकर ‘वसूली’ का अधिकार देते हैं. रोग समझने से उसका निदान आसान होता है. ‘हिंदी पत्रकारिता’ की मौजूदा स्थिति को इसी दृष्टि के तहत मैंने परखने की कोशिश की है. हिंदी पत्रकारिता का भविष्य 40-50 करोड़ लोगों से जुड़ा है. हमारे-आपके भविष्य से बहुत ऊपर. व्यक्तिगत हैसियत से हम-आप एक दूसरे की नजर से इस पेशे में गलत-भ्रष्ट हो सकते हैं, पर आज जरूरत है इन व्यक्तिगत दुराग्रहों से ऊपर उठकर हम इस पेशे को पवित्र-समृद्ध-बेहतर बनाने का सामूहिक संकल्प लें.

(मध्यप्रदेश के डॉ हरि सिंह गौड़, सागर विश्वविद्यालय, पत्रकारिता विभाग में दिया गया व्याख्यान.)

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