कुछ खास जीन्स में छिपा है सेहतमंद बुढ़ापे का राज
बुढ़ापे में ज्यादातर लोगों को अनेक बीमारियां अपनी चपेट में ले लेती हैं. लेकिन, आपने अनेक ऐसे बुजुर्ग लोगों को भी देखा होगा, जिनसे बीमारियां दूर रहती हैं और वे सेहतमंद जिंदगी जीते हैं. शोधकर्ता लंबे अरसे से यह जानने में जुटे हैं कि आखिर ऐसा कैसे होता है. इसी कड़ी में हाल में शोधकर्ताओं […]
बुढ़ापे में ज्यादातर लोगों को अनेक बीमारियां अपनी चपेट में ले लेती हैं. लेकिन, आपने अनेक ऐसे बुजुर्ग लोगों को भी देखा होगा, जिनसे बीमारियां दूर रहती हैं और वे सेहतमंद जिंदगी जीते हैं. शोधकर्ता लंबे अरसे से यह जानने में जुटे हैं कि आखिर ऐसा कैसे होता है. इसी कड़ी में हाल में शोधकर्ताओं ने एक व्यापक अध्ययन में अनेक दिलचस्प तथ्यों का पता लगाया है और इसके लिए उन्होंने काफी हद तक जीन्स को जिम्मेवार माना है. क्या है यह शोध, किस मकसद से दिया गया इसे अंजाम आदि समेत इससे जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का मेडिकल हेल्थ पेज …
बुढ़ापे में बीमारियों से घिरे लोगों पर अब तक किये गये ज्यादातर अध्ययन में यह जानने का प्रयास किया जाता रहा है कि बीमारी की दशा में इनसान में होनेवाले जेनेटिक या अन्य बायोलॉजिकल बदलाव के लिए कौन-कौन से तथ्य जिम्मेवार होते हैं. लेकिन, शोधकर्ताओं ने अब अपनी रणनीति में बदलाव किया है और इसके लिए वे अन्य प्रकार के प्रयोगाें को अंजाम दे रहे हैं. इसका कारण है कि कुछ लोगों में किसी खास बीमारी के चलते होनेवाले बदलाव उनके शरीर में शुरू हो जाते हैं, लेकिन वे बीमार नहीं होते, जिससे उन्हें जल्द उसके बारे में पता नहीं चल पाता.
तो क्या वे कुछ ऐसे नुस्खे मुहैया कराने में सक्षम हो पायेंगे, ताकि बूढ़े हो रहे लोग बायोलॉजिकल दशा को अपने अनुकूल बनाये रखते हुए खुद को सेहतमंद रख सकें? स्क्रिप्स ट्रांसलेशनल साइंस इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर डॉक्टर एरिक टोपोल के सामने यह एक बड़ा सवाल बन चुका है. डॉक्टर टोपोल और उनके साथी हेल्दी एजिंग यानी बुढ़ापे में सेहतमंद जीवन पर व्यापक शोध में जुटे हैं.
आजकल हार्ट प्रॉब्लम्स, कैंसर, डिमेंशिया और डायबिटीज जैसी अनेक बीमारियां बढ़ती उम्र के साथ सामान्य हो चुकी हैं. कुछ लोगों में इम्यून सिस्टम के ज्यादा प्रभावी होने और उससे निबटने का व्यापक ज्ञान होने के साथ उसे व्यावहारिक तौर पर अमल में लाने के कारण ऐसे लोग 80 या 90 वर्ष की उम्र के बाद भी शारीरिक रूप से मजबूत बने रहते हैं. डॉक्टर टोपोल और उनकी टीम ने मिल कर ऐसे लोगों का एक समूह बनाया है, जिसे ‘वेलडरली’ कहा जाता है.
‘वेलडरली’ का अभिप्राय 80 वर्ष से ज्यादा उम्र के ऐसे बुजुर्गों से है, जो किसी गंभीर किस्म की बीमारी से ग्रसित नहीं हैं और न ही वे किसी गंभीर बीमारी के लिए इस उम्र में कोई दवा लेते हैं. इस अध्ययन में 1,354 लोगों को शामिल किया गया था. इसमें से 511 लोगों का पूरे जीनोम्स का अनुक्रम (एनटायर जीनोम सिक्वेंसिंग) किया गया और पिछले आठ वर्षों के दौरान शोधकर्ताओं ने उनके डीएनए का गहन विश्लेषण करते हुए उनके नतीजों की तुलना उसी उम्र के उन लोगों से की, जो बुढ़ापा जनित खास प्रकार की गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं.
डॉक्टर टोपोल की टीम ने इस संबंध में अब तक जो नतीजे हासिल किये हैं, उन्हें जर्नल ‘सेल’ में प्रकाशित किया गया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, दीर्घजीवी होने का संबंध प्रत्यक्ष रूप से उस जीन्स से नहीं है, जो इस ‘वेलडरली’ की अवस्था के लिए जिम्मेवार हैं.
हालांकि, सेहतमंद तरीके से लंबी उम्र जीने के लिए योदगान के तौर पर कुछ खास जीन्स की मौजूदगी की पहचान जरूर की गयी है. ‘वेलडरली’ की अवस्था से इतर ज्यादा दिनों तक जीवित रहनेवाले जीन्स के बीच भी आपस में कुछ हद तक संबंध पाये गये हैं.
डॉक्टर टोपोल का कहना है, ‘वास्तव में ऐसा लगता है कि हेल्दी एजिंग कोई पृथक समूह हो, जो किसी तरह की गंभीर बीमारी से मुक्त रहने के मुकाबले मानव-जनित कारणों से पैदा गंभीर बीमारियों को आधुनिक दवाओं के सेवन से दबा रखा हो और लंबा जीवन जी रहे हों.’ डॉक्टर टोपोल कहते हैं कि हमने सोचा था कि इसमें बहुत से ओवरलैप होंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं था.
खास जीन्स के सेट जिम्मेवार
इस अध्ययन में यह पाया गया कि ‘वेलडरली’ की अवस्था के लिए कुछ खास जीन्स के सेट जिम्मेवार होते हैं, जो उनकी संज्ञानात्मक क्रियाओं से जुड़े होते हैं. वे कुछ-कुछ ‘एपोइ’ जीन के प्रारूप की भांति हानिकारक प्रतीत हो रहे थे, जिनमें अलजाइमर का जोखिम ज्यादा जुड़ा होता है. साथ ही उन्होंने यह भी पाया कि इस समूह के लोगों में एक खास प्रकार के जीन में रेयर वेरिएंट की दर ज्यादा ऊंची है, जो दिमाग में ‘एमिलॉयड’ नामक खास तरह के प्रोटीन को छिपा कर रखता है.
दरअसल, एमिलॉयड ऐसा प्रोटीन है, जो अलजाइमर के मरीज के दिमाग में असाधारण रूप से पैदा हो जाता है. इसलिए जीन का यह संस्करण अब कुछ प्रोटेक्टिव फैक्टर के रूप में सामने आया है, जो एमिलॉयड को अलजाइमर का कारण बनने से पहले ही नष्ट कर सकता है. शोधकर्ताओं का मानना है कि अलजाइमर से बचाव के लिए इस तरह के जीन के बेकार प्रारूप को प्रभावी होने से रोकने के लिए दवा मददगार साबित हो सकती है. लेकिन, यह केवल एक रास्ता है, जिससे बुढ़ापे में भी लोग सेहतमंद जीवन जी सकते हैं.
प्रतिरक्षी जीन्स जरूरी
डॉक्टर टोपोल का कहना है कि हेल्दी एजिंग के लिए यह जरूरी है कि गंभीर बीमारियों के जोखिम को कम करनेवाले (एपाेइ जैसे हानिकारक प्रारूप को दूर करनेवाले) और गंभीर बीमारियों (जैसे हाल ही में पहचाने गये ब्रेन जीन के रेयर वेरिएंट) के खतरनाक असर के खिलाफ प्रतिरक्षा मुहैया कराने वाले जीन्स मौजूद हों. उनका कहना है कि संभवतया सैकड़ों प्रोटेक्टिव वेरिएंट्स हैं.
संपूर्ण जीनोम अनुक्रम को जानने की जरूरत
इस अध्ययन में जिस चीज को हाइलाइट किया गया है वह यह कि उन्हें पहचानने का एकमात्र तरीका यही है कि उन बूढ़े लोगों का अध्ययन किया जाना चाहिए, जो जर्जर बुढ़ापे में भी बिना किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित हुए मजे से जिंदगी जी रहे हैं. यह भी हो सकता है कि कुछ जेनेटिक योगदान से जुड़े कारणों से भी वे सेहतमंद हों, जो कि दुर्लभ हो सकता है.
इन लोगों के संपूर्ण जीनोम अनुक्रम को कंडक्ट करना इसलिए भी महत्वपूर्ण है, ताकि उनके डीएनए में मौजूद किसी उपयोगी नुस्खे को समग्रता से समझा जा सके. टोपोल का कहना है कि ऐसा होने से यह जानने में मदद मिल सकती है कि जर्जर बुढ़ापे में भी कुछ लोग स्वाभाविक रूप से कैसे जीते हैं. इसके लिए डॉक्टर टोपोल का सुझाव है कि सक्षम हेल्दी एजिंग ड्रग्स के लिए ढेर सारे अणुओं को खंगालने की बजाय हमें प्रकृति से सीख लेनी चाहिए.
कैसे जीयें 100 साल शोधकर्ताओं ने तलाशे नये जेनेटिक नुस्खे
यदि आपके परिवार में कोई 100 साल तक जीवित हैं, तो समझिये कि वे एक खास समूह में शामिल हो चुके हैं. लंबी उम्र तक जीनेवाले लोगों के नुस्खों को समझने के लिए वैज्ञानिक काफी समय से अध्ययन कर रहे हैं. 100 सालों तक जीनेवाले लोग क्या इस कारण से दीर्घजीवी होते हैं, क्योंकि हार्ट प्रॉब्लम्स, डायबिटीज, डिमेंशिया, ऑर्थराइटिस जैसी किसी गंभीर बीमारी ने उन्हें अपनी चपेट में नहीं लिया है या कुछ हद तक वे खुद को इन सबसे बचाये रखने में कामयाब रहे हैं? अब तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक ज्यादातर विशेषज्ञों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि शतकजीवी लोगों के साथ कुछ खास किस्म के एंटी-एजिंग सीक्रेट जुड़े होते हैं, जो उन्हें बुढ़ापे के दुष्प्रभाव से बचाये रखते हैं.
‘टाइम’ की रिपोर्ट के मुताबिक, इस प्रकार के ज्यादातर अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि औसत उम्र तक जीनेवाले अधिकतर लोगों के मुकाबले शतकजीवियों में ज्यादा जीन्स होते हैं, जो विभिन्न बीमारियों से लड़ने में ज्यादा सक्षम होते हैं. लेकिन ‘प्लोस जेनेटिक्स’ में छपी एक रिपोर्ट में इससे असहमति जतायी गयी है. स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में डेवलपमेंट बायोलॉजी एंड जेनेटिक्स के प्रोफेसर स्टुअर्ट किम के नेतृत्व में एक शोध को अंजाम दिया गया. इसमें यह पाया गया कि शतकजीवियों में उन जीन्स की संख्या कम हो सकती है, जो शरीर में गंभीर बीमारियों के पनपने में भूमिका निभाते हैं.
इसका मतलब यह नहीं है कि 100 सालों तक जीने वालों में कुछ खास प्रोटेक्टिव एंटी-एजिंग जीन्स होते ही हैं. लेकिन किम का अध्ययन यह दर्शाता है कि अल्पजीवी लोगों में यह जरूरी नहीं कि ज्यादा तरह की बीमारियां होती हैं. एक खास तरीके से जेनेटिक विश्लेषण के बाद किम की टीम कुछ नये नतीजों पर पहुंची है. ज्यादातर कोशिश इस बात को जानने के लिए की गयी है कि सामान्य अवधि जीने वालों के मुकाबले शतकजीवियों के जीनोम्स में कितनी विविधता पायी जाती है. कुल मिला कर सेहतमंद बुढ़ापे के लिए इसे ही सबसे सक्षम फैक्टर माना जाता है. प्रोफेसर स्टुअर्ट किम ने दीर्घजीविता के लिए उन पांच प्रमुख कारणों के विश्लेषण पर जोर दिया, जिन्हें अब तक इसके लिए जिम्मेवार बताया गया है. इनमें से चार के बारे में पहले से ही जानकारी है, जो अल्जाइमर के जीन से जुड़ा है. साथ ही इसके लिए हार्ट की बीमारी, ए-ओ-बी ब्लड टाइप और इम्यून सिस्टम भी जिम्मेवार होते हैं. हालांकि, पांचवां फैक्टर ऐसा पाया गया है, जिसके बारे में अब तक नहीं जाना गया है और किम इसे ही जानने में जुटे हैं कि लंबी उम्र तक जीने में इसका किस तरह से योगदान है.
यह भी जानें
गर्भ में ही शुरू हो जाता है बुढ़ापा
आम तौर पर इनसान 50- 60 वर्ष की उम्र के बाद से बूढ़े दिखने लगते हैं, लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि बुढ़ापे की प्रक्रिया मां के गर्भ में ही शुरू हो जाती है. ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी और नीदरलैंड्स के वैज्ञानिकों ने एक शोध के जरिये इसका पता लगाया है. प्रोफेसर डीनो जुसानी की अगुवाई में किये गये शोध में यह बात सामने आयी है.
इनसान का डीएनए क्रोमोसोम पर दर्ज होता है. इनसान के शरीर में इसके 23 जोड़े होते हैं. क्रोमोसोम के आखिरी छोर को टेलोमेरस कहा जाता है, जो क्रोमोसोम को बांधे रखता है. उम्र बढ़ने के साथ-साथ टेलोमेरस छोटा होने लगता है. इसकी लंबाई से उम्र का पता लगाया जा सकता है. वैज्ञानिकों का कहना है कि रक्त कणिकाओं में मौजूद टेलोमेरस की लंबाई के जरिये बुढ़ापे की रफ्तार भी जानी जा सकती है.
गर्भावस्था के दौरान मां के खून में ऑक्सीजन की कमी होने का सीधा असर शिशु की सेहत पर पड़ता है. शोधकर्ताओं ने मादा चूहों पर इसका परीक्षण करते हुए उसका व्यापक अध्ययन किया है.
गर्भावस्था के दौरान एंटीऑक्सीडेंट की खुराक लेने वाले चूहों के बच्चों को भी हृदय रोगों का कम खतरा था. कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जुसानी का कहना है कि जीन आसपास के वातावरण से प्रभावित होते हैं- जैसे धूम्रपान, मोटापा, व्यायाम की कमी, जिससे हृदय के रोगों का खतरा बढ़ जाता है.
प्रस्तुति : कन्हैया झा