93 साल में जवानों के कान काटते करुणानिधि
इमरान क़ुरैशी बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए मुथुवेल करुणानिधि जब पहली बार विधायक बने तो जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे. जब वो पहली बार मुख्यमंत्री बने तो भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. जब वो तीसरी बार मुख्यमंत्री बने तो भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे. जब वो चौथी बार मुख्यमंत्री बने तो […]
मुथुवेल करुणानिधि जब पहली बार विधायक बने तो जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे.
जब वो पहली बार मुख्यमंत्री बने तो भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. जब वो तीसरी बार मुख्यमंत्री बने तो भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे. जब वो चौथी बार मुख्यमंत्री बने तो भारत के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव थे. जब वो पाँचवी बार मुख्यमंत्री बने तो भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे.
अब वो छठी बार मुख्यमंत्री बनने के लिए मैदान में ताल ठोक कर खड़े है और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. वो नरेंद्र मोदी जो संभवत: उस वक्त अपने पिता की चाय की दुकान में हाथ बंटा रहे होंगे, जब करुणानिधि पहली बार विधायक का चुनाव जीते.
कुछ लोगों के लिए 93 साल की उम्र में घरबार, परिवार साधन सुविधा छोड़कर दिन भर काम करना समझ से परे हो सकता है. लेकिन जब बात मुथुवेल करुणानिधि की हो तो उनका लोहा उनसे आधी उम्र के लोग भी मानते हैं.
पिछले हफ़्ते मुथुवेल करुणानिधि को उनकी व्हील चेयर पर एक गाड़ी में ले जाया गया, जहां से उन्होंने तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के लिए अपनी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) के प्रचार अभियान की शुरुआत की. यह एक तरह का रिकॉर्ड भी था.
वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक जीसी शेखर ने बीबीसी हिंदी को बताया, "सत्ता न रहने पर अंधेरे में गुम हो जाने वाले नेताओं से अलग कोई न कोई मुद्दा उठाकर उन्होंने ख़ुद को ज़िंदा रखा है. चाहे यह हिंदी-विरोध हो या श्रीलंकाई तमिलों का मुद्दा उन्होंने यह तय किया है कि वो चर्चा के केंद्र में रहें."
अकेले शेखर का यह मानना नहीं है. एक और वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक एस मुरली कहते हैं, "वह बहुत मेहनती हैं. उनकी याददाश्त कमाल की है जो आज की तारीख़ में इसी तेज़ याददाश्त की वजह से ही वह अच्छी स्थिति में हैं. वह एक चाणक्य हैं. वह बहुत चालाक और तिकड़मी हैं. उन्होंने इसी तरह तरक्की की है."
पुराने पार्टी कार्यकर्ता और पत्रकार हमेशा उस दृश्य को याद करते हैं जब करुणानिधि ने चेन्नई में लाखों लोगों के सामने अपने गुरु और तमिलनाडु के पहले द्रविड़ मुख्यमंत्री सीएन अन्नादुरै की अंत्येष्टि से पहले उनका शव अकेले ही उठाया था.
पार्टी कार्यकर्ता इसके लिए उन्हें चाहने लगे थे. इसके बाद करुणानिधि पार्टी में कई वरिष्ठ नेताओं को पछाड़कर अन्नादुरै के उत्तराधिकारी बन गए. मज़ेदार बात यह है कि जब अन्नादुरै ने घोर नास्तिक और ब्राह्मणवाद विरोधी नेता ईवीके रामास्वामी या पेरियार की द्रविड़ कषगम (डीके) छोड़ी थी तब करुणानिधि उनके साथ भी नहीं आए थे.
वह जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाल सामाजिक सुधारवादी पेरियार के पक्के समर्थक थे. करुणानिधि महज़ 14 साल की उम्र में हिंदी-विरोधी की तख़्ती लेकर राजनीति में आ गए थे. तमिल भाषा पर अपनी पकड़ के चलते वो तमिल फ़िल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिखने लगे.
तमिल फ़िल्मों में काम करने की वजह से वह एमजी रामचंद्रन के भी नज़दीक आए जिन्हें एमजीआर के नाम से जाना जाता था.
करुणानिधि के लिखे संवाद एमजीआर इस अदा के साथ बोलते थे कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते थे. ठीक वैसे ही जैसे सलीम-जावेद के लिख डायलॉग उत्तर भारतीय दर्शकों को सम्मोहित कर देते थे.
फ़िल्मों के ज़रिए दिए गए सामाजिक संदेश की वजह से पार्टी का सामाजिक आधार मज़बूत हुआ और एमजीआर हीरो बने.
मुरली कहते हैं, "वही अभिनेता एमजीआर को राजनीति में लाए थे. लेकिन जब उन्हें यह अहसास हुआ कि एमजीआर पार्टी कार्यकर्ताओं में उनसे ज़्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं तो करुणानिधि ने उनका कद छोटा कर दिया."
इसकी वजह से डीएमके में विभाजन हुआ और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम या एआईएडीएमके का जन्म हुआ जिसकी मुखिया अब जयललिता हैं.
विश्लेषकों का मानना है कि चालाकियों के बावजूद करुणानिधि ने एमजीआर जैसी बड़ी ग़लतियां की हैं.
शेखर कहते हैं, "अगर वह जयललिता के एक पत्र को मीडिया तक नहीं पहुंचाते तो शायद वह 80 के दशक में ही राजनीति छोड़ चुकी होतीं. जयललिता अपनी हार से इतनी दुखी थीं कि उन्होंने इस्तीफ़ा देकर राजनीति छोड़ देने का इरादा कर लिया था. उन्होंने तो विधानसभा अध्यक्ष को पत्र लिख भी दिया था लेकिन सौंपा नहीं था."
"करुणानिधि को इसकी भनक लग गई और फिर उन्होंने सुनिश्चित किया कि यह मीडिया तक पहुंच जाए. उनकी ईर्ष्यालु प्रवृत्ति ने उन्हें इसके लिए मजबूर किया था."
लेकिन इसके बाद जयललिता का इरादा बदल गया और इसने राज्य की राजनीति को भी बदल दिया. इन्हीं जयललिता ने बाद में कैमरों की चकाचौंध के बीच करुणानिधि को अपमानित कर गिरफ्तार करवाया और जेल भेजवाया.
मुरारी कहते हैं, "लेकिन उन्होंने कभी भी सार्वजनिक रूप से अपनी ग़लतियों को स्वीकार नहीं किया. एक के सिवा."
अपनी इन राजनीतिक कमज़ोरियों के बावजूद करुणानिधि पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ संवाद करने की अपनी अदभुत क्षमता की वजह से बचे हुए हैं.
जयललिता के विपरीत जो सिर्फ़ कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों से मिलती हैं, करुणानिधि अपने कार्यकर्ताओं से रोज़ मिलते हैं.
शेखर कहते हैं, "ऐसे पार्टी कार्यकर्ता भी हैं जो उन्हें यह बताते हैं कि उन्होंने कहां ग़लती की. इसी तरह उन्होंने अपने बड़े बेटे एमके अलागिरी को पार्टी से निकाला था. इसी वजह से उनके कार्यकर्ता उनकी इज़्ज़त करते हैं."
शेखर कहते हैं, "और तो और एमके स्टालिन को भी सब कुछ आसानी से नहीं मिला है. हर पद के लिए उनसे कड़ी मेहनत करवाई गई है."
कोई भी करुणानिधि की राजनीतिक चतुराई पर संदेह नहीं करता जिन्होंने डीएमके जैसी क्षेत्रीय पार्टी को केंद्र में भाजपा और कांग्रेस दोनों के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा बनाया.
अपने परिवार के सदस्यों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद वह राजनीति में सिर्फ़ सभी तरह के विपरीत हालात को झेलने की क्षमता की वजह से ही टिके हुए हैं.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)