मायाजाल फैलाने की तैयारी कैसी चल रही है?
नितिन श्रीवास्तव बीबीसी संवाददाता बात 2014 के आम चुनाव के कुछ दिन बाद की है. लखनऊ के मॉल एवेन्यू में अपने आलीशान बँगले के ड्रॉइंग रूम में सुबह आठ बजे मायावती ने अख़बार पढ़ना ख़त्म ही किया था कि पार्टी के दो वरिष्ठ नेता भीतर दाखिल हुए. ‘प्रणाम बहनजी’ के फौरन बाद मायवती बोलीं, "बहुजन […]
बात 2014 के आम चुनाव के कुछ दिन बाद की है. लखनऊ के मॉल एवेन्यू में अपने आलीशान बँगले के ड्रॉइंग रूम में सुबह आठ बजे मायावती ने अख़बार पढ़ना ख़त्म ही किया था कि पार्टी के दो वरिष्ठ नेता भीतर दाखिल हुए.
‘प्रणाम बहनजी’ के फौरन बाद मायवती बोलीं, "बहुजन समाज पार्टी सीधी टक्कर के मामले में कमज़ोर है. अगर त्रिकोणीय लड़ाई होती तो भाजपा को इतनी सीटें नहीं मिलतीं और बसपा का सफ़ाया नहीं होता."
यानी 2012 के विधानसभा चुनाव की हार के दो साल बाद इन नतीजों ने मायावती को पार्टी के भीतर झाँक कर कमी ढूँढ़ने पर मजबूर कर ही दिया था.
इन दिनों मायावती ज़्यादातर समय अपने घर पर लोगों से मिलने में बिता रही हैं. नसीमुद्दीन सिद्दीकी और स्वामी प्रसाद मौर्य दिन में कई दफ़ा इनसे मिलते हैं और उन प्रत्याशियों से मुलाक़ात हो रही है जिनके टिकट मायावती ने 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए फ़ाइनल कर दिए हैं.
राम अचल राजभर और आरके चौधरी जैसे पूर्व मंत्री भी तकरीबन रोज़ाना इनके बंगले में घंटों मीटिंग कर रहे हैं.
पार्टी के शीर्ष नेताओं से बात होने पर ये भी समझ में आया कि बहन जी ख़ुद हर उम्मीदवार का टिकट फ़ाइनल कर रही हैं, किसी दूसरे नेता की नहीं चल रही.
साथ ही, इस बात का पता चला कि बड़े से बड़ा नेता मायावती से अपॉइंटमेंट लेकर ही मिल सकता है. हमेशा की तरह इस बार भी सभी टिकटों पर अंतिम मुहर मायावती ‘फ़ाइनल इंटरव्यू’ यानी मुलाक़ात के बाद ही लगाती हैं. वे खुद उम्मीदवार के पूरे इतिहास को जानतीं हैं.
बसपा के भीतर के लोग बताते हैं कि कम से कम दो दर्जन ऐसी सीटें भी हैं, जहाँ पर टिकट का वादा होने के बाद भी टिकट कटा क्योंकि उम्मीदवार की कोई बात मायावती को पसंद नहीं आई.
मायावती अब अपने पुराने अंदाज़ में आने को तत्पर लग रही हैं. इसका पता इस बात से मिलता है कि कुछ साल पहले जब एक पूर्व बसपा विधायक ने समाजवादी पार्टी की तरफ़ रुख किया तो मायावती ने उन्हें अपने घर तलब किया.
करीब एक घंटे तक उस नेता तो खड़ाकर डांटने के बाद अगले दिन उसे आगामी लोकसभा चुनाव में बसपा का टिकट दे दिया गया.
चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती को इस बात का भी एहसास हो चला है कि उन्हें अपने राजनीति के स्टाइल में थोड़ा बदलाव लाने की भी ज़रूरत है.
बसपा के लोग बताते हैं कि मायावती को इस बात का भी एहसास हुआ है कि 2012 और 2014 के चुनावों में जो बड़े-बड़े लोगों -जिनमें व्यवसायी वगैरह शामिल थे- को टिकट दिए गए. उन्होंने बसपा के साधारण लेकिन समर्पित कैडर को न तो पूछा और न उनसे तालमेल बिठाया.
पिछले दो दशक मायावती ने कुछ चुने हुए पत्रकारों को ही इंटरव्यू दिए हैं. उनमें से सबसे ज़्यादा बार इंटरव्यू करने वाली वरिष्ठ पत्रकार रचना सरन को लगता है मायावती अब वो सब दोबारा कर रहीं हैं जो बसपा ने शुरुआत में किया था.
उन्होंने बताया, "मायावती पिछले एक महीने से हर विधानसभा सीट की समीक्षा में जुटी हैं. पिछली दो हारों से झटका भी लगा है. इससे उबरने के लिए वही करना पड़ेगा जो बसपा संस्थापक कांशीराम ने शुरुआत में किया था. यानी आक्रामक राजनीति दोबारा करनी होगी. पार्टी समर्थकों से संपर्क स्थापित करने के लिए बूथ लेवल तक जाकर संगठन की कमेटियों में तालमेल बैठाना होगा."
इस बात में भी दो राय नहीं कि पिछले आम चुनाव में उत्तर प्रदेश की 17 सुरक्षित सीटों में से एक भी न जीत पाने से मायावती की नींद में खलल तो पड़ा ही है.
कुछ ख़ास नेताओं के साथ हुई एक मीटिंग में मायावती ने कहा भी था, "जिन पार्टियों ने अपने प्रदेश में सरकार तक नहीं बनाई उनके पास भी सीटें आ गईं तो बसपा यूपी में चार बार सरकार बनाकर शून्य पर कैसे पहुँच गई."
हिंदुस्तान अख़बार के पूर्व संपादक नवीन जोशी बताते हैं कि मायावती के लिए अपने युवा दलित वोट बैंक को बचाए रखना भी एक चुनौती है.
उन्होंने कहा, "इस बात में कोई शक नहीं कि मायावती के दलित वोट बैंक की तीसरी-चौथी पीढ़ी अब सामने आ रही है और उसकी मानसिकता में थोड़ा बदलाव सभी को दिख रहा है. ये नया वर्ग दलित मुद्दों और उनके साथ हुए कथित भेदभाव पर तो सहमत है लेकिन इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है कि मायावती पूरी तरह से उनका आर्थिक उत्थान कर सकतीं हैं."
हालाँकि बड़ी मुश्किलों के बाद बीबीसी से बात करने को तैयार हुए बसपा के वरिष्ठ नेता स्वामी प्रसाद मौर्य को नहीं लगता कि बसपा का नया कैडर मायावती के बारे में थोड़ा असहमत हो सकता है.
उन्होंने बताया, "हमारा वोट बैंक कभी भी कम नहीं हुआ है. हाँ, इतना ज़रूर है कि बसपा के खिलाफ दूसरी पार्टियों में वोटों का ध्रुवीकरण ज़रूर हुआ है. अगर 2012 में ध्रुवीकरण नहीं होता तो हम फिर सत्ता में आते. लेकिन इस बार हम सरकार बना रहे हैं".
बसपा और मायावती के बदले हुए तेवर कुछ इशारा भी करते हैं. जहाँ हर बड़ा राजनीतिक दल इन दिनों दलितों के ‘मसीहा’ कहे जाने वाले भीम राव आंबेडकर को अपनाने में लगा है वहीँ मायवती ने इस बार कहना शुरू कर दिया है कि वे पार्क और मेमोरियल बनवाने के अलावा राज्य के विकास पर ध्यान देंगी.
बसपा के एक वरिष्ठ नेता को लगता है कि मायावती वर्ष 2007 जिस सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले से सत्ता में आई थीं, अब उससे आगे बढ़ने की ज़रुरत है क्योंकि उस फॉर्मूले में निचली और ऊंची जातियों के समीकरण ने उन्हें जिता दिया था लेकिन पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में यही समीकरण औंधे मुंह गिरा था.
नवीन जोशी को ये भी लगता है कि आगामी चुनावों में तो शायद मायावती अपने दलित वोट बैंक को बचा ले जाएँ लेकिन पांच साल बाद दलितों की एक नई पीढ़ी पर उनकी पकड़ ढीली हो सकती है.
उन्होंने कहा, "मायावती एक सिखाई-पढाई गई राजनेता हैं. कांशीराम ने घुट्टी में जैसे उन्हें कुछ चीज़ें पिलाई हैं, जैसे कि ब्राह्मणों का समर्थन लेने की योजना कांशीराम ने लिखित में मायावती को दी थी."
यकीनन अभी तो मायवती के सामने 2017 के विधानसभा चुनाव में करो या मरो की स्थिति दिख रही है और इसका एहसास ख़ुद मायवती को सबसे ज़्यादा है.
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