सुकून का एक कोना रही हैं सुचित्रा सेन

* 1950-60 के दशक की एक ऐसी नायिका जिसकी चर्चा खूब होती थी ।। एमजे अकबर ।। (वरिष्ठ पत्रकार) स्मृति में खोये रहनेवालों के लिए स्मृति अच्छी खबर नहीं है. युग का शोकगीत सतह के नीचे चलायमान होता है, जिसे छिपाने की बहुत कोशिश की जाती है, लेकिन वह छिप नहीं पाता. अतीत का मोह […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 13, 2014 7:31 AM

* 1950-60 के दशक की एक ऐसी नायिका जिसकी चर्चा खूब होती थी

।। एमजे अकबर ।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

स्मृति में खोये रहनेवालों के लिए स्मृति अच्छी खबर नहीं है. युग का शोकगीत सतह के नीचे चलायमान होता है, जिसे छिपाने की बहुत कोशिश की जाती है, लेकिन वह छिप नहीं पाता. अतीत का मोह लोगों को योजना बनाने से रोकता है, इसमें व्यावहारिकता का कोई तर्क काम नहीं करता. लेकिन, स्मृति अंत का उदास मंजर नहीं है. यह एक खोज है, जो भले ही दुखद और पीड़ादायी क्यों न हो, समय के कचड़े में सोने के टुकड़े की तलाश करती है.

1950-60 का दशक ऐसा था, जिसमें जादुई सुचित्रा सेन के अलावा कोलकाता से आनेवाली किसी खबर का कोई महत्व नहीं होता था. खासतौर पर तब, जब वे परदे पर उत्तम कुमार के साथ नमूदार होती थीं. सुचित्रा सेन की शादी किसी और से हुई थी, लेकिन इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था. किससे हुई थी, किसी को नहीं पता था. कोई इसकी परवाह भी नहीं करता था.

सुचित्रा सेन और उत्तम कुमार के बीच की केमिस्ट्री विज्ञान के हर तर्क के परे थी. शादी शब्द अप्रासंगिक था. हर किसी की शादी होती थी. लेकिन ऐसी कितनी रूपवान स्त्रियां और आकर्षक पुरुष थे, जिनके बीच का प्रेम क्रांतिकारी होने के साथ-साथ कुख्यात भी होता था? उस वक्त दुनिया दिल की धुरी पर घूमती थी.

जब मैंने पहली बार दोनों को ज्योति सिनेमा हॉल में परदे पर देखा, तब तक मैंने अपने गालों पर उस्तुरा नहीं फिराया था. उस सिनेमा हॉल की कुर्सियों ने मुझे यह बताया था कि खटिये के बाहर भी खटमलों की एक दुनिया होती है.

हम बल खाती नदी हुगली के तट पर एक जूट मिल के बाहर एक छोटे से मोहल्ले में रहते थे, या कहें कैद थे. लेकिन, हमारी कल्पनाएं हमेशा आपस में जुड़े हुए सपनों की दुनिया में दाखिल हो जाती थीं, जिनकी कोई सरहद नहीं होती थी. हमारी कल्पनाओं को सबसे ज्यादा और सबसे तेजी से आग सुचित्रा की हंसी से लगती थी, जो कि बहुत ही मंद, खिलंदड़ेपन से भरी हुई और संबंधों पर पूरा अधिकार रखनेवाली होती थी. उत्तम कुमार उस देवी के सामने वयस्क पुरुष बन कर खुश थे.

मैं शायद उस फिल्म का नाम याद नहीं कर सकता. शायद उसका नाम सप्तपदी था, शायद नहीं! इसे इंटरनेट की मदद से खोजा जा सकता है. लेकिन वह कंधे उचकाने जितना ही जरूरी है. वह श्वेत-श्याम दुनिया थी. यह गेहुएं और कत्थई के बीच का युग था. कत्थई की चमक एक अलग ही अद्भुत रंग की तरह दिखती थी. स्मृतियां अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई ही अच्छी होती हैं, न कि बिल्कुल जस के तस.

1960 का दशक बदलते हुए बिंदुओं के खुरदुरे छिलके में लिपटा था. कुछ भी साफ नहीं था. नौकरी का ठिकाना नहीं था. जगह में कोई संभावना नजर नहीं आती थी. अर्थव्यवस्था हमारी चाहतों की तरह ही परेशान थी. ऐसे में क्या आश्चर्य कि वह दशक बगावतों और हिंसा का साक्षी बना. कुछ के पीछे माओवाद था, तो कुछ के पीछे जातीय या सांप्रदायिक कारण. ऐसे माहौल में एक बड़ा सुकूनदेह एहसास सुचित्रा सेन और अगर ईमानदारी के साथ कहें तो उत्तम कुमार का साथ था. निश्चित तौर पर इस सुकून के और भी ठिकाने थे. देवानंद की अदाओं का आकर्षण भी कुछ ऐसा ही था.

मुझे कभी समझ नहीं आया कि आखिर क्यों सुचित्रा सेन और देवानंद अपनी इकलौती फिल्म बंबई का बाबू में एक-दूसरे से इतने दूर नजर आये? फिल्म का हर हिस्सा अपने लिहाज से संपूर्ण था. हीरो और हीरोइन अपने अभिनय के शीर्ष पर थे. संगीत ईश्वरीय था. उस जमाने में पटकथाओं में जिस तरह की मूर्खताएं होती थी, उसकी तुलना में इस फिल्म का प्लॉट कहीं बेहतर था. इसका सिर्फ एक कारण हो सकता था. सुचित्रा सेन के साथ उत्तम कुमार के होने पर ही वह जादू बनता था. सुचित्रा सेन और उत्तम कुमार ने एक फिल्म में ऑथेलो को भी बांग्ला में परदे पर उतारा. इस फिल्म का चलना किसी मानवीय चमत्कार की तरह था.

सुचित्रा सेन कभी हिंदी सिनेमा की नहीं हो सकीं. न ही उत्तम कुमार उसे अपना बना पाये. सुचित्रा तभी सफल हो सकीं, जब उन्हें उत्तम कुमार की जगह लेने के लिए किसी की जरूरत नहीं थी. उन फिल्मों में, जिनमें परदे पर सिर्फ वे ही वे थीं. अगर आपने ममता में उनका शानदार प्रदर्शन नहीं देखा है, तो आज ही उसकी सीडी मंगा कर देखिये. यह प्यार के खोने और जिंदगी के दगा दे जाने की अविस्मरणीय कहानी है. इस फिल्म के दो गाने क्लासिक हैं. एक गाना लता मंगेशकर का गाया हुआ था, रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से प्यारों की तरह/ बैठे हैं उन्हीं की महफिल में हम आज गुनहगारों की तरह, और हेमंत कुमार का गाया अमर गीत, छुपा लो ये दिल में प्यार मेरा. उनकी दूसरी सफलता आंधी थी, जिसमें सुचित्रा सेन इंदिरा गांधी के जीवन पर गढ़ी गयी एक राजनीतिज्ञ की भूमिका में थीं.

सुचित्रा का नाता बंगाल और बंगाली से था. वे उनकी ही थीं. उत्तम कुमार तीन दशक पहले अचानक दुनिया को छोड़ कर चले गये. उस समय मैं साप्ताहिक संडे का संपादक था. उनको श्रद्धांजलि देने के लिए निकाला गया अंक स्टैंड पर पहुंचने के साथ ही बिक गया. और ऐसा सिर्फ कोलकाता में नहीं हुआ था. उनके दाह संस्कार में एक पागलपन का पुट था. लोग अपने भगवान को उसकी आखिरी यात्रा में छूने लिए बेताब थे, जिनसे उन्होंने बेशुमार प्यार किया था. सुचित्रा आज भी हमारे साथ हैं, और अच्छा हो कि भगवान नियति को ज्यादा से ज्यादा समय तक टाल सके. लेकिन, उनकी स्मृतियां खत्म नहीं होंगी, जब तक कि दुनिया में प्रशंसा का भाव जीवित है.

* सुचित्रा सेन कभी हिंदी सिनेमा की नहीं हो सकीं. न ही उत्तम कुमार उसे अपना बना पाये. सुचित्रा तभी सफल हो सकीं, जब उन्हें उत्तम कुमार की जगह लेने के लिए किसी की जरूरत नहीं थी. उन फिल्मों में, जिनमें परदे पर सिर्फ वे ही वे थीं. अगर आपने ममता में उनका शानदार प्रदर्शन नहीं देखा है, तो आज ही उसकी सीडी मंगा कर देखिये.

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