यूपी में प्रियंका आएंगी, कांग्रेस को बचाएंगी?
शरद गुप्ता वरिष्ठ पत्रकार कांग्रेस के चुनाव रणनीति विशेषज्ञ प्रशांत किशोर ने प्रियंका गांधी वाड्रा को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार के तौर पर उतारे जाने की सिफ़ारिश की है. इसके बाद भले ही कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साह में धरना देने लगे हों, लेकिन पार्टी हाईकमान इस सिफ़ारिश को मानने के मूड में नहीं […]
कांग्रेस के चुनाव रणनीति विशेषज्ञ प्रशांत किशोर ने प्रियंका गांधी वाड्रा को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार के तौर पर उतारे जाने की सिफ़ारिश की है.
इसके बाद भले ही कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साह में धरना देने लगे हों, लेकिन पार्टी हाईकमान इस सिफ़ारिश को मानने के मूड में नहीं दिख रहा है. हालांकि पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को निराश भी नहीं करना चाहती.
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के अनुसार बीच का रास्ता निकालने की कोशिश हो रही हैं. वे चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रियंका सक्रिय भूमिका निभाएं, केवल परिवार के चुनाव क्षेत्र अमेठी और रायबरेली में ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में. लेकिन वे उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर मायावती और अखिलेश यादव के सामने नहीं खड़ा करना चाहते.
संभव है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के प्रचार अभियान की कमान प्रियंका गांधी के हाथ में दे दी जाए और वो न केवल रणनीति बनाएं बल्कि चुनाव से पहले ही कम से कम तीन सौ प्रचार सभाएं भी संबोधित करें.
ऐसे में, वो न तो मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार हों न ही किसी अन्य पद की दावेदार. केवल मुख्य चुनाव प्रचारक रहें. इस तरह उत्तर प्रदेश में चुनाव कांग्रेस गठबंधन बनाम अन्य बन सकता है. धीरे-धीरे ‘प्रियंका लाओ देश बचाओ’ के नारे को कांग्रेसी अपना समूह गान बनाने लगे हैं.
चूंकि प्रदेश में कांग्रेस लकवाग्रस्त स्थिति में है. नेतृत्व का मानना है कि प्रियंका का चुनाव प्रचार कार्यकर्ताओं में नई जान फूंकने का एक ज़रिया हो सकता है. पार्टी के पास मुख्यमंत्री पद का कोई उम्मीदवार नहीं है.
दरअसल 1989 में चुनाव हारने के बाद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में कभी सत्ता में नहीं लौट पाई. वह दूसरे दलों को ही सहयोग करती रही है. कभी समाजवादी पार्टी तो कभी बहुजन समाज पार्टी.
हक़ीक़त यही है कि कांग्रेस को 1993 के बाद से लगातार यूपी में केवल आठ से नौ फ़ीसदी वोट मिले हैं. अधिकतर नेता और कार्यकर्ता दूसरी पार्टियों में जा चुके हैं. बचे-खुचे मेहनत नहीं करना चाहते.
हालात यह है कि आज कोई भी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर नहीं बैठना चाहता. वे मानते हैं कि कांग्रेस का वोट बैंक खिसक चुका है. अब वे केवल तीन ही स्थितियों में जीत सकते हैं- उम्मीदवार के अपने दम पर, दूसरी पार्टियों से सेटिंग कर या फिर किसी चमत्कार से.
पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में ऐसे चमत्कार की उम्मीद उन्होंने राहुल गांधी से की. बिना किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए राहुल गांधी ने मुख्य प्रचारक की भूमिका में हर रोज़ तीन से चार रैली संबोधित की थीं.
नतीजतन कांग्रेस का वोट प्रतिशत तीन फ़ीसदी बढ़कर 11.63 फ़ीसदी हो गया लेकिन पिछली बार के मुक़ाबले केवल 6 सीटें बढ़ीं और 28 विधायक जीते.
राहुल राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं और इसी साल उन्हें अध्यक्ष चुना जा सकता है. प्रियंका के राजनीति में सक्रिय होने से राहुल पर कोई असर नहीं पड़ेगा, बल्कि प्रियंका उनके ही हाथ मज़बूत करेंगी.
उत्तर प्रदेश में इस बार कांग्रेस को चमत्कार की आशा प्रियंका से है. उनका मानना है कि प्रियंका में अपनी दादी इंदिरा गांधी की छवि और जादू झलकता है. उन्होंने पिछले आम चुनाव में उन्हें बेटी कहकर बुलाने पर नरेंद्र मोदी को जिस तरह जवाब दिया था- ‘मैं उनकी नहीं राजीव गांधी की बेटी हूं’- वह लोग भूले नहीं हैं.
वहीं गांधी परिवार पर जिस तरह भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, उसमें प्रियंका अपनी वाकपटुता और हाज़िरजवाबी से दूसरे नेताओं पर भारी पड़ सकती हैं.
पार्टी में एक मत है कि प्रियंका के बारे में मीडिया और कार्यकर्ता ज़्यादा अटकलबाज़ी करें, उससे पहले ही उनके बारे में आधिकारिक घोषणा कर देनी चाहिए.
ख़ासतौर पर 19 मई को आने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों से पहले, क्योंकि यदि जनता का फैसला कांग्रेस के पक्ष में नहीं रहा तो माना जाएगा कि सोनिया-राहुल की विफलता के बाद कांग्रेस ने प्रियंका पर दांव लगाया है.
वहीं दूसरा मत है कि चूंकि प्रियंका मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार नहीं होंगी, इसलिए किसी आधिकारिक घोषणा की ज़रूरत नहीं है.
वो बरसात शुरू होने के बाद कभी भी प्रचार सभाएं संबोधित करना शुरू कर सकती हैं. वे जहां जाएंगी, निष्क्रिय पड़े कांग्रेस नेता उनके साथ जाएंगे और पार्टी में नई जान आ जाएगी.
यूपी के कांग्रेस नेताओं का मानना है कि अगर शीला दीक्षित को बतौर मुख्यमंत्री पेश किया जाए तो सवर्ण खासतौर पर ब्राह्मणों के पार्टी की ओर लौटने की संभावना बन जाएगी. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 80 में से 22 सीटें जिताने में ब्राह्मणों और अल्पसंख्यकों की ख़ास भूमिका थी.
वहां हर लोकसभा सीट में औसतन पांच विधानसभा क्षेत्र हैं. इस हिसाब से कांग्रेस ने तब 110 विधानसभा सीटें जीती थीं. सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक तब 31 फ़ीसदी मुसलमानों, 38 फ़ीसदी ब्राह्मणों और 32 फ़ीसदी पिछड़े कुर्मियों ने कांग्रेस को वोट दिया था.
कांग्रेस नेताओं का मानना है जेडी(यू), आरजेडी, वाम दलों, राष्ट्रीय लोकदल और कुछ क्षेत्रीय दलों के साथ चुनाव पूर्व समझौते से वह बिहार जैसा महागठबंधन बना सकते हैं. लेकिन उनके पास किसी नेता का चेहरा नहीं है. प्रियंका वह कमी पूरी कर सकती हैं.
यदि राहुल और प्रियंका दोनों उत्तर प्रदेश में सघन प्रचार करें तो 30 साल बाद कांग्रेस फिर सत्ता की दौड़ में शामिल हो सकती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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