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दो साल में कितना छाए मीडिया में मोदी?

ब्रजेश उपाध्याय बीबीसी संवाददाता, वॉशिंगटन कुर्सी संभालने के दो ढाई महीने बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब न्यूयॉर्क के जानेमाने मैडिसन स्कवेयर गार्डन पहुंचे तो शहर में मोदी-मोदी के नारे गूंज रहे थे. टाइम्स स्कवेयर की विशाल टीवी स्क्रीन पर उनकी तस्वीरें दिखाई जा रही थीं और शहर का ट्रैफ़िक मानो हिलने का नाम नहीं […]

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कुर्सी संभालने के दो ढाई महीने बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब न्यूयॉर्क के जानेमाने मैडिसन स्कवेयर गार्डन पहुंचे तो शहर में मोदी-मोदी के नारे गूंज रहे थे. टाइम्स स्कवेयर की विशाल टीवी स्क्रीन पर उनकी तस्वीरें दिखाई जा रही थीं और शहर का ट्रैफ़िक मानो हिलने का नाम नहीं ले रहा था.

अंतरराष्ट्रीय पत्रिका द इकॉनॉमिस्ट ने लिखा "आप सोच रहे होंगे कि आज किस ‘पेन इन द ऐ**’ स्पोर्ट्स स्टार या संगीतकार की वजह से ट्रैफ़िक रूका पड़ा है? दरअसल, आज तो एक राजनेता, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रदर्शन हो रहा है."

इस भाषा पर पत्रिका ने दो दिन बाद एक माफ़ीनामा भी पेश किया जिसमें कहा गया, "दी इकॉनॉमिस्ट मिस्टर मोदी को “पेन इन द ऐ**” नहीं मानता. हमने तो ट्रैफ़िक जाम पर न्यूयॉर्क में रहने वालों की किस तरह की प्रतिक्रिया होती है ये दर्शाने की कोशिश की थी."

कुछ लोगों को लगा कि पत्रिका के माफ़ीनामे में भी एक कटाक्ष था. काफ़ी हद तक ये भाषा अंतरराष्ट्रीय मीडिया में मोदी को लेकर जो असहजता थी, उसी की एक झलक थी.

उनकी जीत के फ़ौरन बाद वाशिंगटन पोस्ट ने मुख्य संपादकीय में उनकी एक बड़ी सी तस्वीर प्रकाशित की थी और उसमें सवाल था, मोदी भारत में चीन जैसी तरक्की का महत्वाकांक्षी सपना दिखा रहे हैं लेकिन वो भारत के डेंग शाओपिंग बनेंगे या फिर व्लादीमिर पुतिन?

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यानी वो डेंग की तरह आर्थिक सुधार के चैंपियन बनेंगे या पुतिन की तरह निरंकुश और राष्ट्रवादी नीतियां अपनाकर अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी से उतार देंगे.

चुनाव से पहले और जीत के बाद भी शायद ही कोई अख़बार या टीवी चैनल था जो मोदी का ज़िक्र करते हुए गुजरात दंगों की बात नहीं कर रहा हो.

उसके बाद के महीनों में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने भाषणों, मेक इन इंडिया जैसे नारों, स्मार्ट सिटीज़, बुलेट ट्रेन्स, योग दिवस, स्वच्छ भारत और अपने कपड़ों की वजह से भी मोदी सुर्खियों में बने रहे हैं.

भारत के प्रति उसी तरह की उम्मीद दर्शाई गई है जैसी मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल में नज़र आती थी.

टाइम पत्रिका ने उन्हें दुनिया के सौ सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में रखा और राष्ट्रपति ओबामा ने उन पर लेख लिखा जिसका शीर्षक था "रिफ़ॉर्मर इन चीफ़ यानी प्रधान सुधारक".

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ओबामा ने लिखा "जब वो वाशिंगटन आए थे, तो नरेंद्र और मैं, डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग के स्मारक पर गए थे, वहां हमने किंग और गांधी की बात की और ये बात भी हुई कि हमारे देशों की जो विविधता है, अलग-अलग पृष्ठभूमि और धर्मों की, वो हमारी ताक़त है और हमें उसे बचाना है."

लेकिन गुज़रते दिनों के साथ इन अच्छी ख़बरों पर असहिष्णुता, गोमांस, धर्मांतरण से जुड़ी सुर्खियां हावी होने लगी हैं. विकास की जगह कन्हैया की बातें होने लगी हैं.

वाशिंगटन पोस्ट में राजस्थान के स्कूल पाठ्यक्रम से नेहरू को हटाए जाने की चर्चा होती है, न्यूयॉर्क टाइम्स में धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़ी संस्था के सदस्यों को वीज़ा नहीं दिए जाने की बात हो रही है, द इकॉनोमिस्ट कह रहा है कि भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रवादी राजनीति मोदी के विकास के एजेंडा पर हावी हो रही है.

वाशिंगटन के ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूट में इंडिया प्रोजेक्ट की डायरेक्टर तन्वी मदान कहती हैं कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में अभी भी भारत को उम्मीद भरी नज़रों से देखा जा रहा है लेकिन घरेलू मीडिया की जो बहस है उसकी छाप भी अक्सर नज़र आती है.

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तन्वी कहती हैं, "अंतरराष्ट्रीय मीडिया सामाजिक मामलों पर उनकी नीतियों को काफ़ी गौर से परख रहा है और ख़ासतौर से उनके गुजरात के इतिहास की वजह से उनके सामाजिक एजेंडा पर पहले की सरकारों के मुक़ाबले ज़्यादा पैनी नज़र रखी जा रही है."

वे कहती हैं कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उम्मीद की जाती है कि जब इस तरह की घटनाएं हों तो मोदी उस पर बोलें, अपनी नीति स्पष्ट करें जो उन्होंने की भी है.

लेकिन एक दूसरे थिंक टैंक के भारतीय मूल के जाने-माने विश्लेषक, जो इस मामले पर अपना नाम नहीं देना चाहते, उनका कहना था कि डर इस बात का है कि ये सुर्खियां मोदी सरकार के कई अच्छे कामों को दबा देंगी और इसके लिए सरकार को सचेत रहने की ज़रूरत है. ऐसा इसलिए ताकि दुनिया के सामने पूरे देश को साथ लेकर चलने का जो वादा किया है उन्होंने, वो नज़र भी आए.

हाल ही में वाशिंगटन के दौरे पर आए भारतीय वित्त मंत्री अरूण जेटली से बीबीसी ने एक ख़ास बातचीत के दौरान ये पूछा कि जो सरकार विकास के मुद्दे पर सत्ता में आई थी, वहां से अंतरराष्ट्रीय मीडिया में विकास की जगह कन्हैया की ख़बरें क्यों आ रही हैं?

जेटली ने कहा, "कुछ विषय पत्रकारों को ज़्यादा समझ में आते हैं."

उनका कहना था, "ज़मीन पर कोई इंटॉलरेंस नहीं है. अगर अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के भाषण पढ़ लिए जाएं तो उसकी तुलना में हमारे यहां बहुत अधिक संयम है."

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जेटली का ये भी कहना था कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस तरह की सुर्खियों से विदेशी निवेश पर कोई असर नहीं पड़ा है.

मोदी के कई समर्थक अंतरराष्ट्रीय मीडिया पर मोदी के ख़िलाफ़ एक पक्षपातपूर्ण रवैया रखने का आरोप लगाते हुए कहते हैं कि ये भारत को पश्चिमी देशों के बराबर खड़ा होता नहीं देखना चाहते और इसलिए ज़्यादातर नकारात्मक ख़बरें ही सुर्खियां बनती हैं.

लेकिन इन्हीं अख़बारों के संपादकीय भारतीय लोकतंत्र की कामयाबी, जलवायु और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मामलों पर भारत की महत्वपूर्ण भूमिका की भी बात करते हैं.

कुछ लोगों का ये भी कहना है मोदी ने सत्ता संभालने के बाद से मीडिया से एक दूरी सी बना रखी है. विवादास्पद घरेलू मु्ददों पर भी वो अकसर हफ़्तों महीनों तक चुप नज़र आते हैं. अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ भी उन्होंने दो साल पहले अमरीका दौरे से पहले सीएनएन के फ़रीद ज़कारिया से बात की थी और उसके बाद वो शायद ही कहीं नज़र आए हैं.

विशलेषकों का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र हो, विश्व बैंक हो या फिर दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंच, भारत को अगर असरदार तरीके से अपने हितों की बात करनी है तो उसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ संवाद बनाने की ज़रूरत होगी और वहां तीखे सवालों के लिए भी तैयार रहना होगा.

मोदी की मीडिया नीति फ़िलहाल ऐसा करती हुई नहीं दिख रही है.

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