‘ये मोदी जी घर में क्यों नहीं टिकते?’
वुसअतुल्लाह ख़ान इस्लामाबाद से, बीबीसी हिंदी के लिए एक बात समझ में नहीं आती, ये मोदी जी घर में क्यों नहीं टिकते? अब तो यूं लगता है कि जैसे एक देश से दूसरे देश जाते-जाते दिल्ली में भी उतर जाते हैं. चलिए आप एक स्वायत्त देश के स्वायत्त प्रधानमंत्री हैं, जहां चाहे, जाएं. पर ये […]
एक बात समझ में नहीं आती, ये मोदी जी घर में क्यों नहीं टिकते? अब तो यूं लगता है कि जैसे एक देश से दूसरे देश जाते-जाते दिल्ली में भी उतर जाते हैं.
चलिए आप एक स्वायत्त देश के स्वायत्त प्रधानमंत्री हैं, जहां चाहे, जाएं. पर ये तो कोई बात ना हुई कि आप बहाने-बहाने से उन देशों में भी बार-बार चक्कर लगा रहे हैं जिनका पाकिस्तान से कुछ ना कुछ टांका भिड़ा रहता है.
जैसे फ़रवरी में आपने काबुल यात्रा की. चलिए ठीक है, वहां आपको अफ़ग़ान पार्लियामेंट की बिल्डिंग के तोहफ़े का फ़ीता काटना था.
अब आप फिर अफ़ग़ानिस्तान पहुंच गए हेरात में सलमा बांध का उद्घाटन करने. कल आप किसी सड़क की नींव का पत्थर रखने के बहाने पहुंच जाएंगे.
अभी डेढ़ हफ़्ते पहले ही तो आपकी तेहरान में राष्ट्रपति अशरफ ग़नी से भेंट हुई थी. क्या दिल नहीं भरा. हमारा तो उनसे बहुत पहले ही भर गया था.
मोदी जी कभी-कभी तो मुझे आप पाकिस्तान के संदर्भ में वे हिरोइन लगते हैं जो विलेन को जलाने के लिए बात-बेबात किसी भी फटीचर लौंडे के साथ कभी आइस्क्रीम खा रही है तो कभी पानी-पूड़ी सुड़क रही है.
और थोड़ी-थोड़ी देर बाद विलेने को देखकर हंस भी लेती है. अच्छा ये बताएं, क्या हमारे प्रधानमंत्री का दिल नहीं चाहता कि वे काबुल यात्रा करें और वहां किसी प्रोजेक्ट का उद्घाटन करें.
क्या जनरल राहील शरीफ़ का दिल नहीं चाहता होगा कि वे भी ढाके जाकर शहीद मीनार पर फूल चढ़ाएं.
एक ज़माना था कि शाह विरेंद्र या तो काठमांडू में होते थे या फिर इस्लामाबाद आ जाते थे. कोलंबो वाले भी इतने फेरे नहीं लगाते थे जितने इस्लामाबाद वाले वहां के लगाते थे.
और रज़ा शाह पहलवी तो कभी शिकार के बहाने तो कभी बिना बहाने ही ‘गुज़रते हुए सोचा कि चक्कर लगा लूं’ कहते हुए कहीं भी उतर जाते थे.
जैसे आप लाहौर में उतरे थे. पर वे हमारे अच्छे दिन थे. ये आपके अच्छे दिन हैं. भले जनता पर आए ना आए, क्या फ़र्क़ पड़ता है. हमें इससे भी कोई आपत्ति नहीं कि आप अमरीकी कांग्रेस के ज्वाइंट सेशन को ख़िताब करें.
आप से पहले हमारे प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान, सदर अय्यूब ख़ान और श्रीमती बेनज़ीर भुट्टो भी यही तमग़ा पा चुकी हैं.
बस एक मशविरा है और बड़े तजुर्बे का है. कहीं कैपिटल हिल पर कांग्रेस के ज्वाइंट सेशन के सामने जुबान से ये ना फिसल जाए कि भाइयों मैं कांग्रेस का सफ़ाया करने आया हूं.
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