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असहिष्णु भारत का सहिष्णु पड़ोस

विचार : सहिष्णु भारतीय असहिष्णु भारत – 3 रवि दत्त बाजपेयी भारत में बढ़ती असहिष्णुता का विरोध अनिवार्य है, लेकिन दक्षिण एशिया में बढ़ती कट्टरता पर परदा डाल कर सिर्फ भारत में असहनशीलता का विमर्श, 20 वीं सदी का एक निरर्थक और निष्फल अभियान है. आज पढ़िए तीसरी कड़ी. भारत के उदारवादी विद्वानों या दक्षिणपंथी […]

विचार : सहिष्णु भारतीय असहिष्णु भारत – 3
रवि दत्त बाजपेयी
भारत में बढ़ती असहिष्णुता का विरोध अनिवार्य है, लेकिन दक्षिण एशिया में बढ़ती कट्टरता पर परदा डाल कर सिर्फ भारत में असहनशीलता का विमर्श, 20 वीं सदी का एक निरर्थक और निष्फल अभियान है. आज पढ़िए तीसरी कड़ी.
भारत के उदारवादी विद्वानों या दक्षिणपंथी विचारकों में एक-दूसरे से गहरे वैचारिक मतभेद के बाद भी दक्षिण एशिया, बर्रे-सगीर ए हिंद या भारतीय उपमहाद्वीप को एक समग्र सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखने में असाधारण मतैक्य है. प्रखर राष्ट्रवादी विचारधारा, भारतीय उपमहाद्वीप को ऐसे अखंड भारत के रूप में देखती है, जिसमें एक महती सभ्यता से उत्पन्न विभिन्न समुदाय अंततः हिंदुत्व की प्रधानता के अंतर्गत समाहित हो जायेंगे. उदारवादी दृष्टिकोण भारतीय उपमहाद्वीप को सिर्फ भौगोलिक सीमाओं बंटे हुए पृथक राष्ट्र-राज्यों का समूह नहीं, बल्कि एक साझी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-सामजिक धरोहर में सूत्रबद्ध, स्वायत्त किंतु संबद्ध घटक मानता है.
आधुनिक राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा दोष, किसी एक समग्र सांस्कृतिक इकाई को मनमाने ढंग से विभिन्न राजनीतिक टुकड़ों में विखंडित करना माना गया है. दक्षिण एशिया में आधुनिक राष्ट्रवाद के आलोचक भारत और उसके पड़ोसियों को एक वृहत समुदाय का अंश और इसके सभी सदस्यों को एक साझी धरोहर का खंड मानते हैं.
पेज 19 परइस तर्क की बुनियाद में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल और म्यांमार की बड़ी आबादी में एक समान प्रकार की सामाजिक पृष्ठभूमि की कल्पना है.
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, इन सभी देशों में समरूप सामाजिक पृष्ठभूमि की कल्पना किस हद तक सच है? क्या भारत में असहिष्णुता, दक्षिण एशिया के अपने अन्य सांस्कृतिक-सामाजिक सहोदरों से अधिक है?
ये प्रश्न महत्वपूर्ण है, चूंकि नेपाल के मधेशियों व जनजातीय लोगों, श्रीलंका के तमिल नागरिकों, बांग्लादेश-पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों और म्यांमार में रोहिंग्या लोगों के मामले में भारत की किसी प्रतिक्रिया को इन देशों के आंतरिक मामलों में दखल बताया जाता है. भारत में बढ़ती असहिष्णुता का विरोध अनिवार्य है, लेकिन दक्षिण एशिया में बढ़ती कट्टरता पर पर्दा डालकर सिर्फ भारत में असहनशीलता का विमर्श, 20 वीं सदी का एक निरर्थक और निष्फल अभियान है.
भारत में विभिन्न संप्रदायों की इस साझी विरासत को परिभाषित करने का प्रचलित सूत्र ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ में निहित है, अर्थात भारत की सामाजिक बनावट में किसी एक समुदाय का एकाधिकार नहीं बल्कि विभिन्न समुदायों की सामूहिक भागीदारी है.
जब भारतीय उपमहाद्वीप अंततः एक समग्र सांस्कृतिक इकाई है, तो क्या कारण है कि गंगा-जमुनी तहजीब किसी एक देश की राजनीतिक सीमाओं के भीतर ही रुक गयी है. वैसे तो ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति के बाद से ही उपमहाद्वीप के नये राष्ट्रों में बहुसंख्यकवाद हावी था, लेकिन पिछले कुछ समय में यह बेहद उग्र व हिंसक रूप में सामने आया है. पाकिस्तान में उन्मादी कट्टरता और अल्पसंख्यकों पर हिंसा के बारे में हर दिन कोई डरावना समाचार मिलता है. यह अचरज की बात है कि, पाकिस्तान में सांघातिक हिंसा के डर से पलायन कर रहे हिंदुओं को भारत में आश्रय देने पर भी सहिष्णुता के मुखर समर्थकों को एतराज होता है.
पिछले कुछ दिनों में बांग्लादेश में उदारवादी लेखकों, अध्यापकों और कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमलों के अनेक समाचार आये है, लेकिन बांग्लादेश में असहिष्णुता का संस्थागत स्वरूप इसकी स्थापना के साथ जुड़ा हुआ है. बांग्लादेश के वर्ष 1971 में मुक्ति संग्राम के दौरान उर्दूभाषी लोगों पर पश्चिमी पाकिस्तान का साथ देने का आरोप लगा, उन्हें बिहारी मुसलमान पुकारा गया और वर्ष 2008 तक इन्हें बांग्लादेश की नागरिकता का अधिकार नहीं था. वर्ष 1971 से बांग्लादेश, इन बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान निर्वासित करना चाहता है, लेकिन पाकिस्तान इसके लिए तैयार नहीं है; दोनों देशों से परित्यक्त बिहारी मुसलमान आज भी बेहद दयनीय हाल में शरणार्थी शिविरों में रहने को बाध्य हैं.
नेपाल का नया संविधान निश्चित तौर से पक्षपाती है, जिसमें तराई के मधेशी और जनजातीय समुदाय के साथ भेदभाव को संस्थागत रूप दिया गया है. यहां उल्लेखनीय है कि भारतीय मूल के होने के बावजूद भी मधेशी नेपाली नागरिक है और इस लिहाज से उनके संरक्षण, राजनीतिक अधिकारों की सुरक्षा की जिम्मेदारी नेपाल सरकार की है. पक्षपाती संविधान के माध्यम से भारतीय मूल के तमिल नागरिकों को उनकी नागरिकता से वंचित करने और वापस भारत लौटाने जैसी नीतियां अपनाने के बाद श्रीलंका ने भीषण गृह युद्ध की विभीषिका झेली है. लिट्टे प्रमुख वेल्लुपिल्लई प्रभाकरन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि यदि श्रीलंकाई राष्ट्रपति जयवर्धेने एक सच्चे बौद्ध होते तो प्रभाकरन बंदूक नहीं उठाते.
इस गृह युद्ध के अंतिम चरणों में श्रीलंका सेना ने बड़ी संख्या में तमिल नागरिकों का संहार किया, युद्ध समाप्ति के बाद अपनी जातिगत श्रेष्ठता के अहंकार में डूबे सिंहली समुदाय ने दोबारा से अल्पसंख्यकों के दमन का संस्थागत अभियान शुरू कर दिया है. म्यांमार में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलिमों के उत्पीड़न का लंबा इतिहास है, पहले इस दमन के लिए म्यांमार के सैन्य शासन को जिम्मेदार बताया जाता था. दुर्भाग्यवश नोबेल शांति पुरस्कार विजेता अंग संग सूकी के दल के सरकार में आने के बाद भी रोहिंग्या मुसलिमों के उत्पीड़न में कोई कमी नहीं आयी है.
भारत के सामरिक विशषज्ञों भारत को अपने पड़ोस की असहिष्णुता को सहन करने का सुझाव देते हैं, चूंकि इनके अनुसार भारत की सक्रियता से इन देशों का चीन के पाले में जाने का अंदेशा है.
विशेषज्ञों के अनुसार भारत का एकमात्र लक्ष्य तात्कालिक कूटनीतिक सफलता होनी चाहिए, क्या इन विद्वानों ने अमेरिका के पाकिस्तान और मध्य पूर्व में असहिष्णु शासकों के अंध-समर्थन से यहां के नागरिकों में अमेरिका के प्रति उपजे गुस्से को नहीं देखा है. भारत के उदारवादी विद्वानों ने दक्षिण एशिया में बढ़ रही असहिष्णुता से पूरी तरह से अंजान बने रहने का रवैया अपनाया है.
दक्षिण एशिया में किसी बहुत बड़ी अनहोनी के बाद जहां उदारवादी विद्वान भारत को हिंदू पाकिस्तान नहीं बनने की ताकीद करते हैं, वहीं उग्र हिंदुत्व के समर्थक हिंदू-हिंदी-हिंदुस्तान का उद्घोष करते हैं. क्या भारत के उदारवादी विचारकों और उग्र हिंदुत्व के पैरोकारों को यह नहीं मालूम है कि, भारत में किसी एक संप्रदाय का वर्चस्व नहीं बल्कि बहुतेरे अल्पसंख्यक समुदायों की बहुलता है, और यही बहुलता भारत को दक्षिण एशिया में अद्वितीय बनाती है.

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