हॉकी में भारत का सिफर से शिखर का रास्ता
।। अभिषेक दुबे।। (वरिष्ठ खेल पत्रकार) ध्यानचंद युग और उसके बाद दशकों तक विश्व हॉकी में भारत का दबदबा कायम था. धीरे-धीरे हालात बदतर होते गये और 2008 के ओलिंपिक्स में तो हॉकी इंडिया क्वालिफाइ भी नहीं कर पायी. हाल ही में दिल्ली में आयोजित वर्ल्ड हॉकी लीग में भारत छठे स्थान पर रहा. कैसे […]
।। अभिषेक दुबे।।
(वरिष्ठ खेल पत्रकार)
ध्यानचंद युग और उसके बाद दशकों तक विश्व हॉकी में भारत का दबदबा कायम था. धीरे-धीरे हालात बदतर होते गये और 2008 के ओलिंपिक्स में तो हॉकी इंडिया क्वालिफाइ भी नहीं कर पायी. हाल ही में दिल्ली में आयोजित वर्ल्ड हॉकी लीग में भारत छठे स्थान पर रहा. कैसे बदली जा सकती है भारतीय हॉकी की दशा-दिशा, इसी मसले को बताने की कोशिश की गयी है आज के नॉलेज में..
देश की राजधानी दिल्ली में नेशनल स्टेडियम के बाहर मेजर ध्यानचंद की मूर्ति है. यह मूर्ति हमें 1947-48 के दौर में ले जाती है. जी हां, वह दौर जब राजनीति के क्षेत्र में हमारे बीच महानायकों की लंबी फेहरिस्त थी. उद्योग जगत में भी देश के लिए काम करनेवाले रोल मॉडल थे और समाज के बीच रह कर खून पसीना बहाना फैशन स्टेटमेंट नहीं, स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा था. देश और समाज की अनेक विधाओं में जनमानस के सामने बहुतेरे हीरो थे. इन असली नायकों के बीच महानायक के तौर पर अपनी पहचान बनाना एक बड़ी चुनौती थी. मेजर ध्यानचंद ऐसा करने में कामयाब रहे और नेशनल स्टेडियम में ध्यानचंद की मूर्ति का यह महत्व है. 2013 तक हमारे देश में राजनेता और राजनीति समाज में अपनी छवि खो चुके हैं. ईमानदारी के बारे में हम अपवाद के तौर पर बात करते हैं और देशभक्ति तो स्टाइल स्टेटमेंट बन कर रह गया है. ऐसे में जनमानस के बीच महानायक की तसवीर बनाना एक अलग तरह की चुनौती तो है, लेकिन हमारे सामने असली मायने में मुकाबला देनेवालों की कतार तुलनात्मक तौर पर छोटी है.
आधुनिक दौर के भारतीय सुपर हीरो सचिन तेंडुलकर का भारत रत्न पानेवाला पहला खिलाड़ी बनना और पूरे देश के सामने भावनात्मक विदाई मिलने की कवायद को इस संदर्भ में देखा जा सकता है. सवाल यह है कि क्या हमारी आज की युवा पीढ़ी को इसका अहसास है.
भारतीय हॉकी का स्वर्णिम युग
वर्ष 1948 में लंदन ओलिंपिक्स विश्व और खास तौर पर भारतीय जनमानस के लिए खेल से आगे जाकर था. यह प्राचीन लेकिन नये देश के लोगों की भावनाओं से जुड़ा हुआ था. द्वितीय विश्व युद्ध ने ओलिंपिक्स खेल आंदोलन पर विराम लगा दिया था.
वर्ष 1936 में बर्लिन ओलिंपिक्स के बाद विश्व-युद्ध की वजह से खेलों का यह महामेला कम से कम दो बार टल चुका था. यही नहीं, युद्ध ने ताकतवर मुल्कों के खजाने को खाली कर दिया था. लंदन के सामने चुनौती इस बात की थी कि इस तंगहाली के बीच ओलिंपिक्स कैसे आयोजित की जाये. कम से कम साधन के बीच हुए लंदन ओलिंपिक्स को पहली बार दुनिया ने टीवी स्क्रीन पर देखा और ब्रिटेन इस चुनौती में पास हो गया. भारत के सामने चुनौती अलग हट कर लेकिन इससे एक कदम और आगे जाकर थी.
हिंदुस्तान को 1947 में आजादी मिली थी और आजाद मुल्क अपने पुराने साम्राज्यवादी ताकत की जमीन पर अपनी पहचान बनाने को बेताब था. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह था कि पहचान की इस परचम का मशाल आखिर कौन उठायेगा. वर्ष 1948 में लंदन ओलिंपिक्स में 11 नौजवानों ने अपने तीसरे पैर यानी हॉकी स्टिक्स के सहारे इस मशाल को बखूबी उठाया. आजाद भारत को पहला गोल्ड मेडल हॉकी में मिला. दुनिया यह कहने को मजबूर हो गयी-‘भारतीय तीन पैरों के साथ जन्म लेते हैं, दो कुदरती पैर और एक हॉकी स्टिक.’ हॉकी को राष्ट्रीय खेल के तौर पर पहचान मिली. सवाल यह है कि क्या हमारा नौजवान मुल्क इस बात को भूलता जा रहा है.
पतन की ओर भारतीय हॉकी
वर्ष 2012 में लंदन में फिर ओलिंपिक्स हुए लेकिन तब तक समय का चक्र पूरी तरह से घूम चुका था. साइना नेहवाल से लेकर मैरी कॉम और सुशील कुमार से लेकर विजय कुमार ने भारत को छह मेडल दिलाने में अपना योगदान दिया, लेकिन हॉकी में भारत आखिरी स्थान पर आया. लंदन से लंदन का यह कालखंड भारतीय हॉकी के दीवानों के लिए दुखद था, लेकिन वे तो और भी भयावह तसवीर देख चुके थे. लंदन से पहले बीजिंग ओलिंपिक्स के लिए भारत क्वालिफाइ तक नहीं कर सका था. तो क्या समझा जाये कि राष्ट्रीय खेल की गरिमा को बहाल किये जाने का भरोसा आज की हमारी पीढ़ी को है या हम यह भरोसा खो चुके हैं.
भारत एक प्राचीन देश है, लेकिन इसका डेमोग्राफिक प्रोफाइल युवा है. देश की विशाल आबादी का लगभग 65 फीसदी हिस्सा 35 साल से कम उम्र का है. इस तबके ने कपिल देव को 1983 में लॉर्डस में क्रिकेट वल्र्ड कप उठाते देखा है; सचिन तेंडुलकर को विश्व क्रिकेट पर राज करते देखा है और महेंद्र सिंह धौनी को वानखेडे स्टेडियम में विश्व विजेता बनते देखा है. इस प्रक्रिया का आंखोंदेखा हाल उन्होंने टीवी के दौर में देखा है. क्रिकेट को अलविदा कहते समय सचिन को भारत रत्न मिलना इसका स्वाभाविक प्रतीक था. सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि इस आबादी के बीच ध्यानचंद गाथा और उसके इर्दगिर्द किंवदंतियों की यादें धूमिल होती जा रही हैं. सच ये भी है कि ध्यानचंद टीवी के दौर के नायक नहीं थे. ध्यानचंद के खेल का बेटॉन उठानेवाले मौजूदा खिलाड़ियों की पौध अंतरराष्ट्रीय हॉकी के मानचित्र पर अपनी जगह तेजी से खोते चले गये.
व्यावहारिकता की कसौटी पर भारतीय हॉकी
हार व जीत के आगे भी खेल के मायने हैं और व्यावहारिकता इसकी सबसे बड़ी कसौटी है. असली जिंदगी की तरह ये कसौटी हमसे भावनाओं पर नहीं बल्कि नतीजों पर चलने के लिए जोर देता है. 1947-48 के दौर में खेल मैदान के सबसे बड़े और आजाद भारत के पहले खेल नायक को भारत रत्न नहीं मिलने को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. मौजूदा पीढ़ी को भारतीय हॉकी की अहमियत बताने का सबसे कारगर तरीका यह है कि भारतीय हॉकी टीम दोबारा हॉकी के टॉप नेशन में से एक बने. सवाल यह है कि इसे गीले-शिकवे से आगे जाकर शिखर की ओर जाने के रास्ते की ओर मजबूत इरादे के तौर पर कब लिया जायेगा.
हॉकी इंडिया और इंडियन हॉकी फेडरेशन की लड़ाई के बीच भारतीय हॉकी को वापस पटरी पर लाने की कोशिश की जा रही है. माइकल नॉब्स से लेकर टेरी वाल्श के तौर पर विदेशी कोच और उनकी निगरानी में विदेशी-देशी स्पेशलिस्ट की फौज मिलकर रोडमैप तैयार कर रहे हैं. इंडियन हॉकी लीग की मदद से हॉकी में पैसा लाने, खिलाड़ी को पैसा दिलाने और नयी प्रतिभाओं को सामने लाये जाने पर जोर दिया जा रहा है. स्टार स्पोर्ट्स से लेकर डीडी स्पोर्ट्स जैसे टीवी चैनलों में हॉकी को कवरेज मिल रहा है, लेकिन जहां हाल में जर्मनी जैसी टीम के खिलाफ प्रदर्शन उत्साह दिलाता है, तो वहीं जूनियर वर्ल्ड कप का प्रदर्शन हताश करता है. सवाल यह है कि क्या सही नतीजे मिल रहे हैं. सवाल यह भी है कि अगर नतीजा मिलने में वक्त लगेगा, तो क्या इस ओर की प्रक्रिया सही है.
घास से आस्ट्रो टर्फ की ओर रुख ने भारतीय उपमहाद्वीप की हॉकी की ताकत को बेअसर कर दिया था, जिससे आज तक टीम पूरी तरह से उबर नहीं पायी है. अंतरराष्ट्रीय हॉकी समुदाय के इस कदम ने भारतीय हॉकी की पारंपरिक और कलात्मक ताकत को बेअसर कर दिया और हॉकी को पावर गेम बना दिया. लेकिन इसी हॉकी के विश्व समुदाय को अहसास हो चुका है कि यदि इस खेल में पैसा लाना है और बढ़ती प्रतियोगिता के बीच इसकी प्रासंगिकता को बनाये रखना है, तो भारत के इस खेल में मजबूत प्रदर्शन जरूरी है. सवाल यह है कि हमारी मौजूदा हॉकी की व्यवस्था इस मौके का फायदा उठाने के लिए तैयार है.
आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल
हॉकी के मॉडर्न गुरु की मानें तो शिखर की ओर रास्ते के तीन अहम बिंदु हैं. पहला, फिजिकल और मेंटल फिटनेस पर काम करना. दूसरा, अधिक से अधिक चुनौतीपूर्ण टीम और हालात में मैच प्रैक्टिस और तीसरा नतीजे में निरंतरता. आस्ट्रो टर्फ ने हॉकी में फिटनेस और स्टेमिना के मायने को बढ़ा दिया है. लेकिन फिटनेस और स्टेमिना पर काम जूनियर और इससे भी पहले स्कूल लेवल से ही शुरू किया जाना चाहिए. फिलहाल यह काम सिर्फ नेशनल लेवल पर हो रहा है.
दूसरे बिंदु के लिए भारत को ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी और हॉलैंड जैसी बड़ी टीम के खिलाफ अधिक से अधिक मैच उनकी जमीन पर खेलना जरूरी है. और तीसरे बिंदु पर हम तभी पहुंच सकते हैं, जब पहले और दूसरे टारगेट को हम पूरा कर सकेंगे. सिफर से शिखर की ओर की यह प्रक्रिया तर्कसंगत भी है और वैज्ञानिक भी, लेकिन इसके लिए मजबूत इरादे और नीचे के स्तर पर काम किये जाने की जरूरत है. जर्मनी, हॉलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसी बड़ी टीमों को देखें तो उनका टैलेंट पूल इतना मजबूत है कि वे लगभग एक स्तर की दो टीम उतार सकते हैं.
भारतीय हॉकी टीम से जुड़े कोच और विशेषज्ञों का मानना है कि अगर भारत को इन टीमों के बीच जगह बनानी है, तो खिलाड़ियों का टैलेंट पूल बढ़ाना होगा. अंडर-19, लीग से लेकर नेशनल टीम तक कमोबेश एक ही तरह के खिलाड़ी खेल रहे हैं. इस समस्या से सभी इत्तेफाक रखते हैं, लेकिन सवाल यह है कि इस टैलेंट पूल का विस्तार कैसे किया जाए. इस दिशा में भी कदम जमीनी स्तर पर उठाना होगा.
ग्रासरूट पर काम जरूरी
यह सच है कि बीजिंग ओलिंपिक्स के बाद कई कदम उठाये गये हैं. लेकिन सच यह भी है कि ये तब तक कारगर साबित नही होंगे, जब तक ग्रासरूट स्तर पर काम नहीं किया जायेगा. भारत ने हॉकी में बुलंदियों को तब छुआ जब छोटानागपुर से लेकर संसारपुर तक हॉकी के सेंटर से लगातार प्रतिभाएं आती रहीं. आज भारतीय हॉकी के ग्राफ को तभी ऊपर ले जाया जा सकता है, जब इन सेंटरों में दोबारा नये सिरे से जान डाली जाए. इन पारंपरिक सेंटरों में आज भी ताकत है, जरूरत है इनकी ताकत को वैज्ञानिक तरीके से समझते हुए इनकी कमजोरियों को मजबूती में बदलने की.
संसारपुर : भारतीय हॉकी का गढ़
जालंधर के पास संसारपुर की आबादी महज चार हजार है. यहां की धरती ने भारत ही नहीं दुनिया में प्रति व्यक्ति के हिसाब से किसी भी खेल में सबसे अधिक ओलिंपिक्स मेडल जीतनेवाले खिलाड़ी दिये. दिल्ली के जामिया मिलिया इसलामिया में प्रोफेसर पोपींदर सिंह ने पीएचडी के लिए इस क्षेत्र को अपने शोध का विषय बनाया. प्रोफेसर की मानें तो पांच कुल्लर सिख परिवार ने इस गांव को बसाया. ये मूल रूप से लड़ाके रेस के थे और इस क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए उन्हें यहां बसाया गया था. इनकी शारीरिक बनावट हॉकी के लिए बिल्कुल फिट बैठती थी और ब्रिटिश सैनिकों को देखकर ये लोग हॉकी खेलने लगे. देखते ही देखते उन्होंने हॉकी में अपनी नयी स्टाइल का इजाद किया. इस नयी स्टाइल की धमक का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां से 14 खिलाड़ियों ने ओलिंपिक्स में हिस्सा लिया, 19 खिलाड़ियों ने भारत, इंग्लैंड और कनाडा की नेशनल टीम का प्रतिनिधित्व किया, 110 ऐसे खिलाड़ी अपनी-अपनी नेशनल टीम और 132 खिलाड़ी मिलिटरी टीम के लिए खेले. 1964 टोक्यो ओलिंपिक्स में जब भारत ने गोल्ड जीता तो चार खिलाड़ी संसारपुर से थे. 1968 मेक्सिको ओलिंपिक्स में संसारपुर के पांच खिलाड़ी भारतीय टीम में तो दो खिलाड़ी केन्या की टीम में थे.
जब भारत की ओलिंपिक्स में तूती बोलती थी तो संसारपुर का बोलबाला था और जब भारत का ओलिंपिक्स में संघर्ष का दौर शुरू हुआ तो यहां से खिलाड़ी नेशनल टीम से नदारद होते चले गये. कुल्लर सिख जैसे-जैसे आर्थिक तौर पर ताकतवर होते गये, वे दुनिया के अलग-अलग कोने में जाकर बसने लगे. हॉकी उनके खून में थी, सो उन्होंने कनाडा से लेकर ब्रिटेन जैसी टीम का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन जमीन से दूर होने की वजह से उनकी धार और उनका नायाब स्टाइल अपनी धार और वक्त के साथ रफ्तार खोता चला गया. सवाल यह है कि गुरजीत सिंह कुल्लर से लेकर बलबीर सिंह कुल्लर की विरासत को दोबारा बहाल किये जाने के लिए रोडमाप तैयार किया जा सकता है.
परंपरागत हॉकी को मजबूत बनाना होगा
भारत में हॉकी का एक और मजबूत परंपरागत छोटानागपुर पठार में उत्तरी झारखंड से लेकर ओड़िशा का इलाका और इस इलाके की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि है. यहां से भी बहुत खिलाड़ियों ने भारतीय हॉकी टीम का सम्मान बढ़ाया है. अहम यह है किन इनमें से अधिकतर डिफेंडर रहे, जिसमें पूर्व कप्तान दिलीप तिर्की भी शामिल हैं. यहां के आदिवासियों में हॉकी के लिए स्वाभाविक कद-काठी, स्टेमिना के अलावा एक खास तरीके की कुदरती सोच है. ये वो सोच है जो इन्हें हॉकी की एक खास विधा में पारंगत बनाने का काम करती आयी है. रोजमर्रा की जिंदगी में यहां के लोगों को हमेशा सतर्क और मुस्तैद रहना पड़ता है. असली जिंदगी का यही हुनर उन्हें हॉकी फील्ड पर लाजवाब डिफेंडर बनाता है. दिलीप तिर्की लेफ्ट हाफ थे, लेकिन कोच अजय कुमार बंसल ने उनकी सोच और टेक्लिंग हुनर को परखा और डिफेंडर बना दिया.
हॉकी और खास तौर से डिफेन्स का स्वाभाविक हुनर अगर यहां के माहौल की सबसे बड़ी ताकत है, तो आत्मविश्वास और भरोसे की कमी उनकी सबसे बड़ी कमजोरी. जूनियर लेवल पर तहलका मचाने के बावजूद 1993 में सीनियर नेशनल के पहले मैच में दिलीप तिर्की को मौका नहीं दिया गया. उनकी टीम ओड़िशा को उस मैच में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा. कोच ने टूर्नामेंट के बाकी सभी मैच में इस नौजवान को मौका देने का भरोसा दिया और इस खिलाड़ी ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. भारतीय हॉकी में प्रतिभा के पूल को तभी बढ़ाया जा सकता है जब छोटपानागपुर से लेकर संसारपुर जैसे पारंपरिक प्रशिक्षण केंद्रों में दोबारा जान डाली जाए. इन सभी पारंपरिक सेंटरों की ताकत और कमजोरियों को बारीकी से समझने और इसके मुताबिक हर सेंटर के लिए अलग-अलग मॉड्यूल तैयार किये जाने की जरूरत है. यह क्षेत्र और यहां से निकलने वाला रास्ता राष्ट्रीय खेल की गरिमा को बहाल करेंगे और इसके सबसे बड़े नायक मेजर ध्यानचंद को उनका हक दिलायेंगे.