भक्ति से समझें जीवन के मर्म
बल्देव भाई शर्मा ठाकुर रामकृष्ण परमहंस को आमतौर पर लोग विवेकानंद के गुरु के रूप में ही ज्यादा जानते हैं. वह भारतीय ऋषि परंपरा के उज्जवल नक्षत्र हैं. मां काली के भक्त, एक अनासक्त साधक के रूप में भारत के आध्यात्मिक जगत में उनकी बड़ी ख्याति है. आज भी पश्चिम बंगाल के अनेक घरों में […]
बल्देव भाई शर्मा
ठाकुर रामकृष्ण परमहंस को आमतौर पर लोग विवेकानंद के गुरु के रूप में ही ज्यादा जानते हैं. वह भारतीय ऋषि परंपरा के उज्जवल नक्षत्र हैं. मां काली के भक्त, एक अनासक्त साधक के रूप में भारत के आध्यात्मिक जगत में उनकी बड़ी ख्याति है.
आज भी पश्चिम बंगाल के अनेक घरों में उनकी पूजा होती है और ठाकुर के रूप में श्रद्धालु उनकी कृपा, उनका आशीर्वाद मांगते हैं. कोलकाता में गंगा के किनारे दक्षिणेश्वर मंदिर उनकी तपोभूमि है जहां आज भी ठाकुर का साधना कक्ष देखने बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं. मां काली के दर्शन करने के बाद उनके कक्ष में पहुंचना ही मानो दर्शन की पूर्णता है. उस पूरे परिसर में आज भी उनके साधक अनुभूतियां प्राप्त करते हैं. उनके कक्ष में पहुंच कर तो लगता है कि साक्षात रामकृष्ण परमहंस देव का सान्निध्य मिल गया हो.
उनके एक भक्त डॉ महेंद्र ने उनके भांजे ह्दयनाथ के संस्मरणों के आधार पर एक ग्रंथ ‘श्री रामकृष्ण लीलामृतम्’ लिखा है, जिसमें उनके जीवन की आध्यात्मिक चेतना अनेक प्रसंगों के माध्यम से रूपाकार लेती है.
अत्यंत सहज भाव से जीवन जीते हुए भी वह कितनी उच्च कोटि के साधक थे, बेहद तर्कबुद्धि और वैज्ञानिक सोच का नरेंद्रनाथ दत्त उनके समक्ष नतमस्तक होकर स्वामी विवेकानंद बन गया. काली मां का तो उन पर ऐसा आशीर्वाद बताया जाता है कि ठाकुर हठपूर्वक उन्हें अपने साथ भोजन करने बुला लेते थे. मां को पुकारते हुए मचल कर मंदिर में लोट-पोट होकर जार-जार आंसू बहाने जैसे उनके कई प्रसंग लोग आज भी याद कर रोमांचित हो उठते हैं. उन्हें देखने वाले लोग सोचते थे कि क्या ये पागल हो गया है ?
ठाकुर इतने सरल हृदय व सादा तरीके से रहन-सहन वाले थे कि कोई उनकी थाह भांप नहीं पाता था. ऐसी ही एक कथा उनके बारे में सुनने को मिलती है कि एक बार कोई सिद्ध साधक योगी दक्षिणेश्वर आये. वहां रहते हुए उन्होंने एक दिन रामकृष्ण देव से पूछा कि आपने क्या-क्या साधना की है.
ठाकुर मुस्कुरा दिये और बोले कि कुछ खास नहीं, बस मां काली की सेवा-पूजा करता हूं. योगी महाशय ने उन्हें समझाते हुए कहा कि कुछ साधना करो, सिद्धि प्राप्त करो, जीवन को इस तरह व्यर्थ मत गंवाओ. योगी ने कहा कि चलो तुम्हें अपनी सिद्धि दिखाता हूं. वह ठाकुर को लेकर गंगा किनारे पहुंचे और बोले कि देखो मैं जल के ऊपर चल कर गंगा पार कर जाऊंगा. यह मेरी जीवन भर की साधना का सुफल है.
ठाकुर आश्चर्य से उन्हें देखते रहे और योगी देखते-देखते गंगा पार कर गये. तेज उठती लहरें भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकीं. वह पुन: धीरे-धीरे चल कर वापस इस पार आ गये. योगी ने ठाकुर की ओर देखा और बोले यह है मेरी सिद्धि जिसे जीवन भर की तपस्या-साधना से मैंने प्राप्त किया है.
ठाकुर ने कहा, महाराज यह तो वास्तव में चमत्कार है, लेकिन इससे लाभ क्या है साधक को, यह काम तो नाविक को एक पैसा देकर भी किया जा सकता है जो दिन भर लोगों को नाव में बैठा कर गंगा पार कराता रहता है. फिर इसमें जीवन क्यों लगाना, यह तो जीवन और साधना को व्यर्थ गंवाना ही हुआ.
भक्ति और साधना तो आत्मतत्व को पहचान कर, उसे शुद्ध बना कर परम तत्व से जोड़ना है. साधक कोई जादूगर नहीं होता कि चमत्कार दिखाता फिरे. बताते हैं कि ये बातें सुन कर योगी को बड़ी शर्मिंदगी हुई और पश्चाताप भी और वह ठाकुर का भक्त बन गया.
दरअसल हम भक्ति और साधना को अपनी इच्छाओं की पूर्ति की सीढ़ी के रूप में मानते हैं और उनका उसी रूप में इस्तेमाल करते हैं, जबकि भक्ति या साधना तो जीवन को प्रकाशमान करने के लिए है जिसे उपनिषद में ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय और मृत्योर्मा अमृतंगमय’ कहा गया है.
जीवन की सिद्धि तो वास्तव में यही है, यही आध्यात्मिकता का मंत्र है कि जीवन को अंधकार से प्रकाश की ओर, बुराई से अच्छाई की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर ले जाओ. भक्ति व साधना तो इस गंतव्य के मार्ग हैं. यदि हम सिद्धियों का प्रतिफलन भौतिक रूप में या चमत्कार के रूप में चाहने लगें तो यह आध्यात्मिकता नहीं, बल्कि सांसारिक लालसा है. श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास ने भी लिखा है ‘राम नाम मनि दीप धरि, जीय देहरी द्वार/तुलसी भीतर बाहरो जो चाहिस उजियार.’
यह उजियारा आत्मा में तभी फैलता है जब अंत:करण में भक्ति या साधना की जोत जलाते हैं. इसीलिए हमारे शास्त्रकारों ने आत्मदीपो भव का मंत्र दिया, इसी को बुद्ध ने ‘अध दीपो भव’ कहा है.
भक्ति और साधना से तो अंत:करण की शुद्धि होती है, इस शुद्धि और पवित्रता के बाद ही वहां से कलुष और तमस छंटना शुरू होता है. यह अध्यात्म जो भारत के जन-मन में बिखरा हुआ है. आज भी गांवों में लोग कहते मिल जायेंगे ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा.’ यदि मन शुद्ध-पवित्र नहीं है, ईष्या-द्वेष-क्रोध-स्वार्थ जैसे विकारों से भरा हो तो गंगा में डुबकी लगा कर स्नान करने से भी क्या पाप धुलेगा ?
कवि ने क्या खूब लिखा है- ‘कहन की तो मारी कांके, मन के अंदर क्यों ना झांके. उजले तन पर मान किया है, मन की मैल न धोई.’ अंतर्मन में झांकना सिखाता है अध्यात्म. तभी तो ‘आत्मवन सर्वभूतेषु’ की उपनिषद वाणी को आत्मसात किया जा सकता है. मन के अंदर झांकने पर हो तो समझ में आता है वहां तो ब्रह्म बैठा है जो अमरत्व में समाया है.
जो मुझमें है, वही तो दूसरे में भी है फिर भेद कैसा है जाति-मजहब, ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, श्रेष्ठ-निकृष्ट का भेद तो तभी पैदा होता है जब हम दुनिया को बाहरी बाजार भर से देखते हैं. यही वैमनस्य, शत्रुता व संघर्ष का मूल कारण है. भौतिक और अाध्यात्मिक दृष्टि से यही फर्क है. अध्यात्म एकात्म रूप है और भौतिकता भेद है. भारत और पश्चिमी दर्शन में भी यही मौलिक अंतर है.
आत्मचिंतन से अनंत सुखों का द्वार खुलता है क्योंकि इसी से हम समझ पाते हैं कि सब कुछ परमात्मा स्वरूप है. इसी को हमारे ऋषियों ने ‘त्वात्विदं ब्रह्मा:’ कहा है. लेकिन इसकी अनुभूति तभी होगी जब हम भौतिक लालसाओं और सोच से आत्मानुभव में जीना सीखेंगे.
ध्यान और एकाग्रता इसी की प्रक्रिया है. वास्तव में अंतर्मन में झांकना ही स्वाध्याय है. हम बहुत कुछ पढ़ने-जानने के प्रति लालायित रहते हैं विशेषकर दूसरे के बारे में, लेकिन अपने मन को पढ़ने व उसे समझने प्रयास नहीं करते हैं. जीवन की सारी गड़बड़ी यह है और हमारे दुख-क्लेश का कारण भी. हम खूब साधन-संपन्न और धनाढ्य होकर भी सुखी क्यों नहीं हो पाते ? क्यों मन के अंदर एक कसक, एक छटपटाहट सी रहती है क्योंकि हम अक्सर दूसरों के बारे में जानने को उत्सुक रहते हैं, अपने बारे में नहीं.
इसीलिए श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है ‘एकाकी मत्ताचित्तात्मा निरपरिग्रिह.’ यानी एकांत में अकेले ही आत्म स्थित होकर आत्मा को परमात्मा में लगाये. जब यह प्रवृत्ति बन जाती है तो मन स्थिर और चित्त शांत हो जाता है.
फिर दुनिया के बीच जीवन जीते हुए भी सांसारिक उद्देश्य हमें बेचैन नहीं करते. सफलता-विफलता, जय-पराजय, हानि-लाभ जीवन की एक प्रक्रिया मात्र रह जाती है, जीवन का उद्देश्य उसमें उलझ कर कहीं खत्म नहीं होता बल्कि आगे की राह हमें दिखता है.
आज लोगों विशेषकर किशोरों और नौजवानों में हताशा, तनाव और आत्महत्या की प्रवृत्ति इसीलिए बढ़ रही है कि जीवन का उद्देश्य ही वे नहीं समझ पाये और न उन्हें ठीक से समझाया गया. इसलिए ठीक ही कहा गया है ‘बोये पेड़ बबूल के तो आम कहां से खाय.’ जो बोया है वही तो काटोगे. साधारण गृहस्थ होकर भी संतत्व को प्राप्त रामकृष्ण परमहंस इसलिए बन सके कि उन्होंने अपनी भक्ति से जीवन के मर्म को समझा. अन्यथा एक सामान्य सा निरक्षर गदाधर नाम का ब्राह्मण बालक, नरेंद्रनाथ से विवेकानंद कैसे बन पाता ?