अपने आर्थिक एवं सामरिक हितों तथा महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार चीन की मनमानी फिर सामने आयी है. समुद्री कानूनों को खुलेआम चुनौती देते रहनेवाले चीन ने अब दक्षिण चीन सागर में सीमा को लेकर विवाद में ‘परमानेंट कोर्ट ऑफ ऑर्बिट्रेशन’ के फैसले को मानने से इनकार कर दिया है.
दक्षिणी चीन सागर में अधिकार क्षेत्र को लेकर इससे लगते देशों के अपने-अपने दावे हैं. इस विवाद में अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण ने फैसला फिलीपींस के पक्ष में फैसला सुनाया है. आर्थिक एवं सामरिक महत्व के इस दक्षिणी चीन सागर से जुड़े विवाद के जरूरी पहलुओं पर नजर डाल रहा है आज का ‘इन-डेप्थ’ पेज…
पुष्परंजन
इयू–एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक.
चीन को किसी भी सूरत में हार बर्दाश्त नहीं. उसी दंभ पर चीन ने बयान भी दे दिया कि हेग स्थित ‘परमानेंट कोर्ट ऑफ ऑर्बिट्रेशन (पीसीए) किस खेत की मूली है, उसे हम नहीं जानते और न ही दक्षिणी चीन सागर पर उसका फैसला मंजूर है. कर लो, जो करना है. चीन के इस बयान ने नया संकट खड़ा कर दिया है. अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण का फैसला लागू कौन करायेगा? संयुक्त राष्ट्र समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष यह एक बड़ा सवाल है.
हेग स्थित स्थायी अंतरराष्ट्रीय पंचाट में वर्ष 2013 से सुनवाई चल रही है. चीन इस दौरान एक बार भी उपस्थित नहीं हुआ. चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने मंगलवार को एक बयान में कहा कि यह न्यायाधिकरण नहीं, एक ‘राजनीतिक मजाक है’, जिसे कानून के बहाने स्वार्थ सिद्धि का हथियार बनाया गया है. चीनी प्रतिरक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता यांग यूचुन ने कहा कि हमारी सेना राष्ट्रीय संप्रभुता, सुरक्षा और समुद्री अधिकारों की रक्षा के लिए हर समय तैयार है.
चीन इस समय ‘नंग बड़ा या परमेश्वर’ की मुद्रा में खड़ा है कि जिसे आना है, सामने आये, चाहे युद्ध कर ले, किंतु हम किसी अदालत, अंतरराष्ट्रीय कानून को नहीं मानते. वर्ष 1973 से 1982 के बीच संयुक्त राष्ट्र की ओर से ‘कॉन्फ्रेस ऑफ लॉ ऑफ सी (यूएनसीएलओएस)’ पर सहमति बनी थी. दिलचस्प है कि उस कन्वेंशन पर 10 दिसंबर, 1982 को चीन और फिलीपींस ने दस्तखत किये थे. उसका सत्यापन भी दोनों देशों ने किया था. संयोग है कि मंगलवार को इस फैसले के प्रकारांतर पेइचिंग में यूरोपियन कौंसिल के अध्यक्ष डोनाल्ड टस्क और यूरोपियन कमीशन के अध्यक्ष ज्यों क्लाउदे युंकर से चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात हुई थी. शी ने दो-टूक कह दिया कि हम किसी भी सूरत में इस फैसले को माननेवाले नहीं है. हेग में जो निर्णय हो, उसका हम पर कोई फर्क नहीं पड़नेवाला. इससे पहले अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ओर से बयान आया था कि दक्षिण चीन सागर पर निर्णय का आदर सभी संबंधित देश करें. चीन की प्रतिक्रिया थी कि ‘कॉन्फ्रेस ऑफ लॉ ऑफ सी’ के कन्वेंशन पर अमेरिका के दस्तखत तक नहीं हैं, और इसके उलट हमें हांक रहा है. यों, अमेरिका ने 29 जुलाई, 1994 को ‘यूएनसीएलओएस’ के ‘एग्रीमेंट’ पर हस्ताक्षर अवश्य किया है.
दक्षिण चीन सागर पर दबदबे के वास्ते चीन ने आसियान (एसोसिएशन ऑफ साउथ इस्ट एशियन नेशंस) में फूट डालना शुरू कर दिया है. उसका दावा है कि फिलीपींस ने जबरन इस मामले को आसियान में घसीटा है, जबकि इस मुद्दे पर आसियान के सदस्य देश ब्रुनेई, कंबोडिया और लाओस उसके साथ हैं. चीन ने मायाजाल फैलाया है कि आसियान के दस सदस्य देशों में से छह, जल क्षेत्र के दावेदार नहीं हैं.
चीन बार–बार आसियान के बंटने का भय दिखा कर दक्षिण–पूर्व एशिया में असंतुलन की राजनीति में लगा हुआ है.
यही नहीं, पेइचिंग ने दावा किया है कि दुनिया के साठ से अधिक देश उसके पक्ष में हैं. क्या इसका यह भी अर्थ निकालें कि दुनिया के साठ देश हेग स्थित न्यायाधिकरण को नहीं मानते? यह तो भयानक स्थिति है. चीन एक ऐसे विष का बीजारोपण कर रहा है, जिसके बेल दुनिया भर में समुद्री विवादों को और उलझानेवाले हैं. सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य चीन के पास ‘वीटो’ नामक एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है, जिसके बूते वह समुद्री कानून की ऐसी–तैसी में लग गया है.
दक्षिण चीन सागर विवाद के महत्वपूर्ण पहलुओं को जानें
कहां है दक्षिण चीन सागर?
35 लाख वर्गमील जल क्षेत्र में बसा ‘साउथ चाइना सी’, प्रशांत महासागर का हिस्सा है, जिसके इर्द–गिर्द इंडोनेशिया का करिमाता, मलक्का, फारमोसा जलडमरूमध्य और मलय व सुमात्र प्रायद्वीप आते हैं. दक्षिणी इलाका चीनी मुख्यभूमि को छूता है, तो दक्षिण–पूर्वी हिस्से पर ताइवान की दावेदारी है. दक्षिण चीन सागर के पूर्वी तट वियतनाम और कंबोडिया को छूते हैं. पश्चिम में फिलीपींस है, तो दक्षिण चीन सागर के उत्तरी इलाके में इंडोनेशिया के बंका व बैंतुंग द्वीप लगे हैं.
द्वीपों पर कई देशों की दावेदारी
चीन, ताइवान और वियतनाम ने ‘स्पार्टलेज’ द्वीपसमूह पर दावेदारी कर रखी है. स्पार्टलेज, दक्षिण चीन सागर का दूसरा सबसे बड़ा द्वीपसमूह है. यहां के 20 द्वीप वियतनाम के कब्जे में हैं, फिलीपींस के हिस्से में नौ, चीन ने आठ पर आधिपत्य जमा रखा है, मलयेशिया पांच और ताइवान के कब्जे में एक द्वीप है.
आखिर कौन सा खजाना गड़ा है?
साउथ चाइना सी के गिर्द जितने देश आते हैं, विवाद भी उतने ही गहरे हैं. यूएस एनर्जी इन्फॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार, इसकी परिधि में तेल करीब 11 अरब बैरल, गैस अंदाजन 190 ट्रिलियन क्यूबिक फीट, और मूंगे के विस्तृत भंडार हैं. मछली व्यापार में शामिल देशों के लिए इसका जलक्षेत्र आर्थिक रीढ़ का काम कर रहा है. इसकी सामरिक अवस्थिति ने अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा, खुफियागिरी को बढ़ावा दिया है. हिंद महासागर से प्रशांत महासागर के वास्ते यह शॉर्टकट समुद्री मार्ग है.
चीन की इतनी दिलचस्पी क्यों?
चीन को लगता है कि दक्षिणी चीन सागर के 90 फीसदी हिस्से पर उसका प्रभुत्व होना चाहिए. चीन ने जाने कहां–कहां से ऐतिहासिक आधार तैयार किये, और ‘नाइन डैश लाइन’ के नाम से दक्षिण चीन सागर की हदबंदी कर दी. नानशा द्वीप समूह को चीन ने विशेष आर्थिक क्षेत्र (इइजेड) में परिवर्तित कर दिया. इसका फिलीपींस, वियतनाम, मलयेशिया, ब्रुनेई और इंडोनेशिया ने व्यापक रूप से विरोध किया था.
फिलीपींस का हेग की शरण में जाना
17 साल से फिलीपींस कूटनीतिक प्रयासों के जरिये चीन से दक्षिण चीन सागर विवाद सुलझा लेना चाहता था. बात बनी नहीं, तो फिलिपींस ने 2013 में हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण ‘पीसीए’ का दरवाजा खटखटाया. न्यायाधिकरण ने 12 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून के अनुच्छेद-258 को आधार बना कर फैसला दिया कि ‘नाइन डैश लाइन’ की परिधि में आनेवाले जल क्षेत्र पर चीन कोई ऐतिहासिक दावेदारी नहीं कर सकता. इस फैसले से बाकी देशों को भी राहत मिली है.
हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण
नीदरलैंड के नगर हेग में कोई डेढ़ सौ अंतरराष्ट्रीय संगठन हैं. इनमें से एक ‘परमानेंट कोर्ट ऑफ ऑर्बिट्रेशन (पीसीए)’ है, जिसकी स्थापना सन 1899 में की गयी थी. ‘पीसीए’ को लेकर कई बार ‘इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस’ का भ्रम हो जाता है, जो संयुक्त राष्ट्र का एक अहम हिस्सा है, और जिसकी स्थापना जून, 1945 में हुई थी. ‘पीसीए’ एक किस्म का पंचाट, या न्यायाधिकरण है, जिसके पांच जजों ने दक्षिण चीन सागर पर मंगलवार को फैसला सुनाया था. मार्च, 2016 को दिये अपडेट के अनुसार, ‘चीन, फिलीपींस समेत दुनिया के 119 देश ‘पीसीए’ के पार्टी के रूप में हैं, जिनके आपसी विवादों का निपटारा यह न्यायाधिकरण कर सकता है.’
भारत और अमेरिका के सरोकार
2011 में ओएनजीसी विदेश लिमिटेड ने जब वियतनाम में तेल की खोज आरंभ की, तो चीन काफी रोष में था. मई, 2014 में चीन ने पारासेल आइलैंड के पास तेल दोहन वाले रिग खड़े कर दिये, जिससे कई दुर्घटनाएं हुईं. चीन कई बार अमेरिका को धमका चुका है कि वह दक्षिण चीन सागर से दूर रहे. चीन ने इन दिनों कहना शुरू किया है कि भारत यदि वियतनाम में तेल की खोज कर सकता है, तो पाक अधिकृत कश्मीर में हमारे प्रोजेक्ट क्यों नहीं लग सकते.
चीन की समुद्री महत्वाकांक्षा
दक्षिण चीन सागर विवाद से अलग, चीन समुद्री रेशम मार्ग (मेरीटाइम सिल्क रूट) के जरिये क्या चाहता है, इसका खुलासा 8 मई, 2014 को प्रकाशित नक्शे में हुआ है. इस नक्शे में फुचियान प्रांत के छवांगचोऊ से मलक्का जलडमरूमध्य. क्वालालम्पुर से कोलकाता, नैरोबी, केन्या, हार्न ऑफ अफ्रीका (लाल सागर से मेडिटेरेनियन) और फिर उसे एथेंस से जोड़ कर चीन ने स्पष्ट कर दिया कि वह दुनिया के दो तिहाई समुद्री हिस्से पर अपने प्रभामंडल का विस्तार चाहता है.
चीनी समुद्री रेशम मार्ग
चीन ने समुद्री रेशम मार्ग (एमएसआर) के वास्ते 10 अरब युआन (1.6 अरब डॉलर) की राशि आवंटित कर रखी है. एमएसआर के बहाने चीन हिंद महासागर, प्रशांत और बाल्टिक सागर में समुद्री संचार सुरक्षा (एसएलओसी) को अपने नियंत्रण में लेना चाहता है. इसे लेकर सिर्फ भारत ही नहीं, यूरोप और अमेरिका भी चिंतित हैं. एक जमाना था, जब दिएगोगार्सिया पर नियंत्रण के बहाने लंबे समय तक अमेरिका, ब्रिटेन हिंद महासागर की गतिविधियों को काबू करते रहे. अब उन्हें चीन के इस समुद्री रेशम मार्ग को लेकर एक नयी चुनौती मिलनी शुरू हो गयी है.
अमेरिका और यूरोप की रणनीति
इस समय अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश भी चाहते हैं कि भारत हिंद महासागर से लेकर पैसेफिक तक सुरक्षित समुद्री मार्ग के नये प्रस्ताव को रखे और चीनी वर्चस्व को आगे बढ़ने से रोके.
अप्रैल, 2016 में मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम से, जो पांच समझौते भारत ने किये, उसमें सबसे अहम समझौता समुद्री सुरक्षा से संबंधित था. पिछले साल राष्ट्रपति शी के दौरे के समय मालदीव, चीन के ‘समुद्री रेशम मार्ग’ के लिए जब सहमत हुआ, तब पश्चिमी देश इससे चिंतित हो गये थे.