दक्षा वैदकर
एक दार्शनिक और शिष्य कहीं जा रहे थे. चलते-चलते वे एक खेत के पास पहुंचे. खेत की हालत देख कर लगता था कि उसका मालिक उस पर जरा भी ध्यान नहीं देता. दोनों खेत में बने एक टूटे-फूटे घर के सामने पहुंचे. अंदर से एक आदमी निकला. दार्शनिक ने पानी मांगा और बोला ‘आपने खेत में न फसल लगायी है और न ही फलों के वृक्ष लगाये हैं.
आपका गुजारा कैसे चलता है?’ आदमी बोला, ‘हमारे पास भैंस है. उसका दूध बेच कर कुछ पैसे मिल जाते हैं’, वह आगे बोला, ‘आप चाहें तो आज रात यहीं रुक जाएं.’ दोनों रुक गये. आधी रात को दार्शनिक ने शिष्य से कहा, ‘चलो हमें अभी यहां से चलना है और चलने से पहले भैंस को चट्टान से गिरा कर मार डालना है.’ दोनों भैंस को मार कर चले गये. यह घटना शिष्य के जेहन में बैठ गयी. 10 साल बाद जब वह सफल उद्यमी बन गया, तो उसने सोचा क्यों न गलती का पश्चाताप किया जाये. आदमी की आर्थिक मदद की जाये.
वह गांव पहुंचा, तो उसने देखा कि खेत अब फलों के बागीचे में बदल चुका था. शानदार बंगला है. कई अच्छी नस्ल की गायें और भैंस भी हैं. शिष्य को देख वह आदमी बोला, उस रात आप लोग तो बिना बताये चले गये. उसी दिन पर हमारी भैंस भी चट्टान से गिर कर मर गयी. कुछ दिन तो समझ ही नहीं आया कि क्या करें, फिर लकड़ियां काट कर बेची. उससे कुछ पैसे हुए तो खेत में बुवाई कर दी. फसल भी अच्छी निकल गयी, बेचने पर जो पैसे मिले उससे फलों के बागीचे लगवा दिये और यह काम अच्छा चल पड़ा.
दोस्तों, कई बार हम परिस्थितियों के इतने आदी हो जाते हैं कि बस उसी में जीना सीख लेते हैं, फिर चाहे वो परिस्थितियां बुरी ही क्यों न हों. बेहतर है कि हम उस परिस्थिति से निकलने के लिए हाथ-पैर मारें.
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