विश्व युद्ध लड़े गुमनाम भारतीयों की याद में

जस्टिन रॉलैट दक्षिण एशिया संवाददाता, बीबीसी न्यूज़ इस हफ़्ते दो विश्व युद्धों में शहीद हुए भारतीय जवानों को याद करने का फ़ैसला लिया गया है. पहले विश्व युद्ध में करीब पंद्रह लाख भारतीय सैनिकों ने हिस्सा लिया था. वो अपने देश से बहुत दूर एक बिल्कुल ही अलग माहौल में यह लड़ाई लड़ रहे थे. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 26, 2016 10:10 AM
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इस हफ़्ते दो विश्व युद्धों में शहीद हुए भारतीय जवानों को याद करने का फ़ैसला लिया गया है.

पहले विश्व युद्ध में करीब पंद्रह लाख भारतीय सैनिकों ने हिस्सा लिया था. वो अपने देश से बहुत दूर एक बिल्कुल ही अलग माहौल में यह लड़ाई लड़ रहे थे.

दूसरे विश्व युद्ध में तो और भी ज्यादा भारतीय जवानों ने भाग लिया था.

1945 तक पच्चीस लाख जवानों ने मित्र देशों के लिए लड़ने का अनुबंध किया था. यह स्वेच्छा से लड़ने वाली इतिहास की सबसे बड़ी सेना थी.

इन दोनों ही विश्व युद्धों में भारतीय सैनिकों ने बड़े पैमाने पर कुर्बानियां दीं. एक लाख साठ हज़ार से ज्यादा भारतीय सेना के जवानों ने अपनी जान की कुर्बानी दीं.

चूंकि ये लड़ाइयां तब लड़ी गईं जब भारत ब्रिटेन का उपनिवेश था इसलिए भारत में उन्हें औपनिवेशिक इतिहास के तौर पर नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है.

इन लड़ाइयों में शहीद हुए जवानों को याद करने की नई पहल का उद्देश्य इस रवैये को ही बदलना है. इसे ‘इंडिया रिमेम्बर्स’ नाम से मनाया जा रहा है.

जवानों को याद करने की इस नई मुहिम के लिए गेंदा के फूल को प्रतीक के तौर पर चुनने का प्रस्ताव रखा गया है और इसे मनाने के लिए सात दिसंबर की तारीख प्रस्तावित की गई है.

इस अभियान को शुरू करने के मौके पर सैकड़ों लोग मौजूद थे जिसमें वरिष्ठ फ़ौजी अधिकारी, स्कूली बच्चे और लड़ाई में शहीद हुए जवानों के परिजन शामिल थे.

यह सोम की लड़ाई में भारतीय घुड़सवार फ़ौज के भाग लेने के सौ साल पूरा होने का भी समय है.

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हालांकि स्क्वाड्रन लीडर राणा चीना ने माना कि घुड़सवार दुश्मनों के मशीन गन का अच्छे से मुकाबला नहीं कर पाए लेकिन वो यह भी कहते हैं कि यह भारतीय जवानों की वीरता का एक क्लासिक उदाहरण है.

राणा चीना ‘इंडिया रिमेम्बर्स’ अभियान के इंचार्ज हैं.

वो कहते हैं कि इस वीरता की कहानी को पूरी तरह से भूला दिए जाने का ख़तरा है.

वो इस बात को समझते हैं कि औपनिवेशिक इतिहास से दूरी बनाने की कोशिश के तहत क्यों भारत सरकार ने इन लड़ाइयों में शहीद हुए जवानों को याद करने की कोई जहमत नहीं उठाई.

लेकिन वो यह भी मानते हैं कि अब समय बदल गया है.

वो कहते हैं, "यह स्मरणोत्सव कोई युद्ध-उन्मादी जोश नहीं बल्कि खामोशी और विचार करने का समय है. किसी की शहादत पर लगने वाला हर पत्थर एक परिवार की हमेशा के लिए शोकसंतप्त होने और उसके बलिदान की निशानी है जिसे कभी भी भुलाया नहीं जाना चाहिए."

भारत में लोगों की इस बात में दिलचस्पी है कि विश्व युद्ध में उनके रिश्तेदारों ने क्या भूमिका अदा की है.

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द कॉमनवेल्थ वार ग्रेव्स कमीशन विश्व में शहीद हुए सत्रह लाख जवानों के कब्र और स्मारकों की देखभाल करता है.

कमीशन का कहना है कि भारत से शहीदों के बारे में पूछताछ करने के मामलों में इजाफा हुआ है.

कमीशन के डायरेक्टर कोलीन केर का कहना है,"बहुत सारे भारतीय और अधिक बातें जानना चाहते हैं. उन्हें थोड़ा बहुत पता होता है कि उनके परदादा पंजाब के किसी गांव से थे या वे सोम की लड़ाई या अल अलामीन की लड़ाई में शामिल हुए थे. वे इस सिलसिले में और अधिक जानकारी चाहते हैं."

कोलीन इस बात को मानते हैं कि भारतीय और दूसरे राष्ट्रमंडल देशों के सैनिकों के योगदान को कब्र और स्मारक बनाकर हमेशा नहीं सराहा जाता जो कि करना चाहिए.

मेरे सहयोगी हग साइक्स ने मुझे उन लोगों की तस्वीर भेजी जो कि पहले विश्व युद्ध के बाद लगभग भुला दिए गए. ये लोग मेसोपोटेमिया अभियान में मारे गए थे. इन लोगों की क्रबों का भी पता नहीं है.

इनकी कब्रें अब इराक़ी शहर बसरा के बाहर रेगिस्तान में हैं.

जिन लोगों का अता-पता नहीं उनकी मौत को रेजिमेंट आम तौर पर "258 अन्य भारतीय सैनिक" या "272 अन्य भारतीय सैनिक" कह कर याद करती है.

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कोलीन केर का कहना है कि कई स्मारकों के साथ ऐसा है और कमीशन ने अब इसके बारे में पता करने की जिम्मेवारी को प्राथमिकता दी है.

उनका कहना है कि बसरा स्मारक में कुल तीस हज़ार भारतीयों का जिक्र नहीं है लेकिन कमीशन जानता है कि वे कौन हैं और उन्हें भारत और ब्रिटेन में सार्वजनिक तौर पर पहचान दिलाने के लिए एक अभियान शुरू किया गया है.

मेरी मुलाकात कर्नल राज सिंह से हुई जिनके दादा सूबेदार पाट राम पहले विश्व युद्ध के समय इराक़ में लड़े थे.

उन्होंने मुझे बताया कि उनके दादा सूबेदार पाट राम ने 99 डेक्कन हॉर्स रेजिमेंट में लड़ाई लड़ी थी. वे मेसोपोटामिया अभियान में ब्रिटेन की ओर तैनात किए गए तीस हज़ार से ज्यादा जवानों में से एक थे.

तुर्की के युद्ध शिविर में पाट राम की 28 अगस्त 1917 को मौत हुई थी.

कमीशन के मुताबिक इस युद्ध शिविर में मित्र देशों के साढ़े चालीस हज़ार सैनिक मारे गए थे.

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