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गौरक्षकों पर बयान की रणनीति कायमाब होगी?

बद्री नारायण समाजशास्त्री, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ‘गौरक्षा’ संगठनों द्वारा ‘गौकशी’ के नाम पर दलितों एवं मुसलमानों पर की जा रही हिंसा की कड़ी आलोचना की है. उन्होंने गौरक्षा संगठनों में से 80 फ़ीसदी को अपराधी बता डाला. पर सवाल उठता है कि जो गौरक्षा की राजनीति दसियों साल […]

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प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ‘गौरक्षा’ संगठनों द्वारा ‘गौकशी’ के नाम पर दलितों एवं मुसलमानों पर की जा रही हिंसा की कड़ी आलोचना की है. उन्होंने गौरक्षा संगठनों में से 80 फ़ीसदी को अपराधी बता डाला.

पर सवाल उठता है कि जो गौरक्षा की राजनीति दसियों साल बाद जिस मुकाम तक पहुंची है वो क्या प्रधानमंत्री के एक बयान से संभल जाएगी.

महात्मा गांधी स्वयं ऐसी गौरक्षा के पक्षधर नहीं थे, जिसमें इंसानों को मारा जाए. वे इसके लिए सामाजिक चेतना निर्माण को महत्वपूर्ण मानते थे. वे कानून के ज़रिए एवं हिंसा करके गौरक्षा करने के पक्ष में नहीं थे.

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‘गौरक्षा’ की राजनीति अनायास हमारे सामने नहीं आ खड़ी हुई है. यह हिन्दुत्व की राजनीति का बहुत पुराना पहलू है. इतिहास बताता है कि गौरक्षा की राजनीति हिन्दुत्व की राजनीति की जान रही है. यह ठीक है कि इसके रूप को लेकर हिन्दू संगठनों में कभी कभी अन्तर्विरोध भी उभरते रहे हैं.

गौरक्षा की राजनीति स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज से 1882 में शुरू की थी. तब यह एक ज़्यादा सामाजिक और थोड़ा धार्मिक राजनीति की परियोजना थी. स्वामी दयानन्द एवं आर्य समाज के लोगौं ने पूरे देश में गौरक्षा की चेतना पैदा की थी. सामाजिक स्तर पर आर्य समाज ने दलितों के बीच गौरक्षा चेतना फैलाने की कोशिश की.

पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक गुरु गोलवलकर ने इससे प्रभावित हो कर इसे अपने एजेंडे शामिल कर लिया और 1950 के आस पास इसका रूप बदलने लगा. गोलवलकर से प्रभावित हो इलाहाबाद के स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने गौरक्षा आन्दोलन को एक राजनीति परियोजना में तब्दील कर दिया.

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने 1951 में स्वतंत्र भारत के प्रथम संसदीय चुनाव में नेहरु के ख़िलाफ़ हिन्दू बिल एवं गौरक्षा के प्रश्न पर इलाहाबाद के पास फूलपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा. ब्रह्मचारी इस चुनाव में हार गए लेकिन ‘गौरक्षा’ के प्रश्न को उन्होंने राजनीतिक प्रश्न बना ही दिया.

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यह सवाल नेहरु और कांग्रेस की जनतांत्रिक राजनीति के बनाम हिन्दुत्ववादी राजनीति के अन्तर को भी जन्म देने लगा. आगे चलकर आरएसएस से जुड़े संगठन विश्व हिन्दू परिषद ने इस मुद्दे को पकड़ लिया.

ग्वालियर की राजमाता विजयराजे सिंधिया के नेतृत्व में विहिप का एक गौरक्षा सेल गठित किया जिसका नाम रखा भारतीय गौवंश रक्षण एवं संवर्धन समिति. वीएचपी ने हर राज्य में इस समिति का संगठन बनाया, प्रांतीय संयोजक बनाए.

1966 में दिल्ली में ‘गौहत्या’ के ख़िलाफ़ बिल लाने के लिए एक बड़ा प्रदर्शन संघ और विहिप द्वारा सर्वदलीय गौरक्षा महा अभियान समिति के नेतृत्व में आयोजित किया गया. इस प्रदर्शन में शंकराचार्य नरेन्द्र देव तीर्थ, स्वामी करपात्री जी, रामचन्द्र बीर जैसे हिन्दू धर्माचार्य शामिल हुए.

यह आन्दोलन इतना हिंसक हुआ कि आन्दोलनकारियों ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज का घर फूंक दिया. दिल्ली हिंसा की आग में जलने लगी. कानून व्यवस्था के प्रश्न पर ही तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा को इस्तीफ़ा देना पड़ा.

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1987 में विहिप ने बिहार के आरा एवं टाटा नगर में वृहद गौरक्षा सम्मेलन का आयोजन किया. विहिप ने इस अभियान को संगठन की ताक़त दी.

अभी 2016 में जलगांव में ‘गौ संकल्प’ नाम से गौरक्षा सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें आरएसएस, विहिप, आर्य समाज, गायत्री परिवार जैसे संगठनों के लोग शामिल हुए. झांसी में हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय समिति की बैठक में उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव में ‘गौरक्षण’ को एक महत्वपूर्ण एजेंडा बनाना तय किया है.

अब सवाल ये है कि संघ, विहिप एवं आर्यसमाज जैसे संगठनों से आज के बलवाई गौरक्षा सैनिकों का क्या संबंध है?

आज जो संगठन गौरक्षण के नाम पर काफ़ी उग्र हो सामने आए हैं, वे सैकड़ों की तादाद में हैं. इनमें से भारतीय गौरक्षक दल, गौ कमांडो फोर्स, राष्ट्रीय गौरक्षक सेना महत्वपूर्ण है.

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सवाल ये है कि जिस संघ परिवार, विहिप, भाजपा की राजनीति गहरे जुड़ी हुई है, वो खुद की पैदा की और बढ़ाई चेतना से उपजी हिंसा को कैसे सम्हालेंगे? जिन दलितों को भाजपा अपने साथ जोड़ना चाहती है, उन्हें गौरक्षा के चलते हो रही हिंसा से कैसे बचाएंगे?

कहते हैं कि सत्ता एवं लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का बोध उग्रता को कम कर देता है. शायद ऐसा हुआ भी है. भाजपा एवं संघ की राजनीति में भी एक उदारवादी धड़ा शायद इसीलिए पैदा हुआ है. जिस नरेन्द्र मोदी पर गुजरात में अल्प संख्यकों पर हुए हिसा एवं दंगे का आरोप है, वे लगातार अपनी उदारवादी छवि गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.

एक सवाल और है कि जिस ‘गौरक्षा’ के नाम पर एक किस्म की राजनीतिक चेतना हिन्दू समाज के एक वर्ग के मन में भर दी गई है, उसे क्या शासन एवं प्रशासन से नियंत्रित किया जा सकता है? मुझे लगता है कि जरुरत इसमें कुछ ज़्यादा करने की है.

जरुरत है कि हिन्दू समाज के सामाजिक जड़ों में ‘गौरक्षा’ के नाम पर दलितों एवं अल्पसंख्यक मुसलमानों के प्रति वैमनस्य की चेतना फैला दी गई है, उसकी ‘काट’ तैयार करनी होगी. तभी ‘गौरक्षा’ करने के नाम पर हिंसा में लगे लोग ‘गौसेवा’ का महत्व समझ पाएंगे.

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आगामी 2017 के चुनाव में अगर भाजपा इसे अपने चुनावी एजेंडे का मुद्दा बनाने जा रही है तो सामाजिक वातावरण में ‘गौरक्षा’ के नाम पर हिंसा के तत्वों पर नियंत्रण स्थापित करना बहुत मुश्किल होगा.

बहुत संभव है भाजपा इसे ‘साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण’ की एक स्ट्रैटजी में तब्दील कर इस मुद्दे का चुनाव लाभ ले. अतः ‘गौरक्षा’ की नर्म राजनीति एवं गौरक्षा की गर्म राजनीति में प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः कोई रिश्ता नहीं है, यह स्थापित कर पाना बहुत मुश्किल है.

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