घरेलू डेयरी उद्योग पर मंडराता संकट
जिस प्रकार सस्ते खाद्य तेल आयात ने ‘पीली क्रांति’ को अकाल मौत दे दी, उसी प्रकार के संकट की दस्तक ‘श्वेत क्रांति’ के लिए सुनाई देने लगी है. इसका कारण है भारत और 27 सदस्यीय यूरोपीय संघ के बीच प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए). इसके लिए 2007 से चल रही कोशिशों की राह में आ […]
जिस प्रकार सस्ते खाद्य तेल आयात ने ‘पीली क्रांति’ को अकाल मौत दे दी, उसी प्रकार के संकट की दस्तक ‘श्वेत क्रांति’ के लिए सुनाई देने लगी है. इसका कारण है भारत और 27 सदस्यीय यूरोपीय संघ के बीच प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए). इसके लिए 2007 से चल रही कोशिशों की राह में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए बातचीत का सिलसिला जारी है. आशंका जतायी जा रही है कि एफटीए से भारतीय बाजार यूरोपीय संघ के डेयरी, पोल्ट्री, चीनी, गेहूं और खाद्य तेल उत्पादों से भर जायेगा. इसी के मद्देनजर भारत में डेयरी उद्योग, ‘श्वेत क्रांति’ और ‘पीली क्रांति’ की वर्तमान स्थिति पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.
उदारीकरण की भेंट चढ़ी ‘पीली क्रांति’
लोगों की बढ़ती आमदनी और खान-पान की आदतों बदलाव के चलते दूध की भांति खाद्य तेल की मांग भी तेजी बढ़ रही है, लेकिन देश में तिलहनों का उत्पादन जस का तस बना हुआ है. इसका नतीजा खाद्य तेल आयात में लगातार बढ़ोत्तरी के रूप में सामने आ रहा है. 2005-06 में जहां भारत ने 44.16 लाख टन खाद्य तेलों का आयात किया था, वहीं 2013-14 में इसके 110 लाख टन के आंकड़े को पार कर जाने का अनुमान है. खाद्य तेल के संबंध में जो स्थिति आज है, वही स्थिति 1980 के दशक में भी थी जब तिलहनों के घरेलू उत्पादन में भारी कमी के चलते खाद्य तेल आयात चिंताजनक स्तर तक बढ़ गया था. इसे देखते हुए 1986 में तिलहन पर तकनीकी मिशन की शुरुआत की गयी. इसके तहत सिंचित क्षेत्र में तिलहनों की बुआई को प्राथमिकता दी गयी और उन्नत प्रौद्योगिकी व कई नये तिलहनी बीजों का विकास किया गया. इसका परिणाम सकारात्मक रहा और तिलहनों के उत्पादन में तेज बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी. 1986-87 में तिलहन उत्पादन 1.1 करोड़ टन हुआ था, जो कि 1994-95 में 2.2 करोड़ टन तक पहुंच गया. इस प्रकार खाद्य तेलों के मामले में भारत ने 98 फीसदी तक आत्मनिर्भरता हासिल कर ली. इसे ‘पीली क्रांति’ की संज्ञा दी गयी.
दुर्भाग्यवश ‘पीली क्रांति’ की सफलता अधिक दिनों तक टिक नहीं पायी. विश्व व्यापार संगठन की नीतियों के कृषि क्षेत्र में लागू होने के बाद कृषि उपजों के आयात में तेजी आयी. दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ होनेवाले द्विपक्षीय व्यापार समझौतों से खाद्य तेलों के शुल्क मुक्त आयात को बढ़ावा मिला. जब आयातित खाद्य तेल सस्ता पड़ने लगा, तब सरकार ने घरेलू तिलहन उत्पादन के प्रति उदासीनता बरतनी शुरू कर दी. इससे घरेलू खाद्य तेल उत्पादन में कमी आयी. रही-सही कसर 1998 में सरसों के तेल में आजीर्मोन की तथाकथित मिलावट ने पूरी कर दी. जो सरसों का तेल रसोईघरों की शान हुआ करता था, उसे शंका की दृष्टि से देखा जाने लगा. इसका परिणाम यह हुआ कि पामोलिव तेल के आयात को बढ़ावा मिलना शुरू हुआ और आज कुल खाद्य तेल आयात में पामोलिव की भागीदारी 50 फीसदी तक पहुंच चुकी है.
दो दिन पहले मुंबई में मदर डेयरी और अमूल ने दूध की कीमतों में दो रुपये प्रति लीटर का इजाफा कर दिया. देश के किसी न किसी हिस्से से इस प्रकार की खबरें प्राय: मिलती रहती हैं और इसके लिए कंपनियां लागत में बढ़ोत्तरी का बहाना बनाती हैं. लेकिन कीमतों में इजाफे की असली वजह है दूध उत्पादन के सहकारी ढांचे का बिखराव और निजी डेयरी कंपनियों का बढ़ता प्रभुत्व. इसी का नतीजा है कि महज डेढ़ दशक पहले जहां बोतलबंद पानी और दूध की कीमतें तकरीबन एक जैसी थीं, वहीं अब तसवीर पूरी तरह बदल चुकी है. आज दूध की कीमतें बोतलबंद पानी की तुलना में दो से ढाई गुनी ज्यादा हो चुकी हैं.
बोतलबंद पानी की कीमत पर दूध मुहैया कराने का श्रेय 1970 में शुरू किये गये सहकारिता आधारित ‘ऑपरेशन फ्लड’ नामक कार्यक्रम को है. इसे ‘श्वेत क्रांति’ की संज्ञा दी गयी. 1950 व 60 के दशक में देश में दूध उत्पादन महज 1.2 फीसदी की दर से बढ़ रहा था, लेकिन ऑपरेशन फ्लड के बाद यह दर बढ़ कर 4.3 फीसदी हो गयी, जिससे दूध की उपलब्धता में तेजी से इजाफा हुआ. यह ऑपरेशन फ्लड का ही कमाल है कि आज दूध उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में पहले नंबर पर है और देश में दूध का राष्ट्रीय ग्रिड है. यहां हर साल 13 करोड़ टन से अधिक दूध का उत्पादन होता है, जो वैश्विक उत्पादन का 17 फीसदी है. देश में दूध का उत्पादन किसी भी फसल की तुलना में अधिक है और किसानों को प्रति इकाई सबसे ज्यादा कमाई भी कराता है. फसलों की बरबादी की क्षतिपूर्ति करने और छोटे किसानों व महिलाओं को रोजी-रोटी मुहैया कराने में दूध उत्पादन ने उल्लेखनीय भूमिका निभायी है.
लेकिन 1991 में शुरू हुई आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने सहकारिता आधारित दूध उत्पादन ढांचे को कमजोर किया. सहकारी संस्थाओं के कमजोर होते ही दूध की खरीद-बिक्री पर निजी डेयरी कंपनियों का हस्तक्षेप बढ़ने लगा. उदाहरण के लिए आज जहां सहकारी डेयरी कंपनियां हर साल 1 करोड़ टन दूध खरीद रही हैं, वहीं निजी डेयरी कंपनियों की खरीद का आंकड़ा डेढ़ करोड़ टन को पार कर गया है. मुनाफे से तिजोरी भरने में माहिर कंपनियां दोनों हाथों से लूट रही हैं. जिस दूध को वे शहरों में 40 से 45 रुपये प्रति लीटर बेच रही हैं, उसके लिए उत्पादकों को महज 20 से 22 रुपये प्रति लीटर का भुगतान करती हैं. इससे दूध उत्पादकों की आमदनी घटती जा रही है और वे महंगा पशु आहार नहीं खरीद पा रहे हैं. इसका नतीजा दूध के घटते उत्पादन के रूप में सामने आ रहा है. इसके अलावा पशु चारे की किल्लत और दुधारू पशुओं के मांस निर्यात की बढ़ती प्रवृत्ति भी श्वेत क्रांति के असमय सूर्यास्त का कारण बन रहे हैं.
पशुचारे की किल्लत
भारत में दुनिया के 20 फीसदी पशु पाये जाते हैं, लेकिन चारे की खेती कुल कृषि क्षेत्र के महज चार फीसदी भूमि पर होती है. दरअसल खाद्यान्न की मांग में निरंतर वृद्धि से पशु चारे की खेती का रकबा सिकुड़ता जा रहा है. सिमटते चारागाह और खेती पर नकदी फसलों के काबिज होने से पशुचारे की भारी किल्लत हो गयी है. आज जरूरत का सिर्फ 40 फीसदी चारा ही उपलब्ध है, जो दुग्ध उद्योग के लिए गंभीर चुनौती है. पौष्टिक और हरा चारा तो दूर, पशुओं के लिए पेट भर सूखा चारा भी उपलब्ध नहीं है. मोटे अनुमान के मुताबिक देश में 65 करोड़ टन सूखा चारा, 76 करोड़ टन हरा चारा और पशु चारे में काम आनेवाले अन्य तत्वों की उपलब्धता 7 करोड़ टन है. यह मात्र 40 फीसदी जरूरत को पूरा करता है.
देश में घटता पशुधन
देश में घटता पशुधन भी दूध उत्पादन में कमी का एक प्रमुख कारण है. पूरे देश में फैले बूचड़खानों में हर रोज हजारों पशु काटे जा रहे हैं, जिनमें बड़ी संख्या दुधारू पशुओं की होती है. 1951 में जहां 40 करोड़ की आबादी पर 15 करोड़ 53 लाख दुधारू पशु थे, वहीं 1992 में 93 करोड़ की आबादी पर दुधारू पशुओं की संख्या बढ़ कर 20 करोड़ 45 लाख हो गयी. लेकिन उसके बाद जनसंख्या बढ़ती गयी और पशु घटते गये. 1997 में दुधारू पशुओं की संख्या 19.88 करोड़ थी, जो कि 2008 में 16 करोड़ ही रह गयी. दुधारू पशुओं, विशेषकर भैंसों के कत्ल के पीछे एक बड़ी वजह इनका मैड काऊ डिजीज जैसी बीमारी से मुक्त होना है. वैसे तो भारत में भैंस मांस (बोवाईन) कम लोकप्रिय है, पर मध्य-पूर्व के देशों में इसकी भारी मांग है. इसीलिए इसका निर्यात तेजी से बढा है. भैंस मांस के निर्यात में वृद्धि का असर दूध उत्पादन और उसकी कीमतों पर भी पड़ रहा है.
घटता उत्पादन, बढ़ती खपत
देश में एक ओर दूध उत्पादन में बढ़ोत्तरी की रफ्तार मद्धिम पड़ी है, तो दूसरी ओर दूध और दूध से बनी वस्तुओं की खपत बढ़ती जा रही है. दरअसल खान-पान की आदत में बदलाव के चलते शहरों के साथ अब कस्बों में भी दुग्ध उत्पादों की मांग बढ़ी है. दूध से बननेवाले पनीर, क्रीम और आइसक्रीम जैसे उत्पादों की खपत में इजाफा हुआ है, जबकि परंपरागत तरीके से देसी घी, खोया और मिठाइयों के रूप में भी दूध का उपयोग लगातार बढ़ रहा है. देखा गया है कि जब किसी परिवार की आय में बढ़ोत्तरी होती है तब दूध पर होनेवाला उसका खर्च बढ़ जाता है. 1972-73 में ग्रामीण क्षेत्रों में खाने पर होनेवाले खर्च में दूध पर होने वाला खर्च 10 फीसदी था, जो 2007-08 में 15 फीसदी हो गया है. इसी अवधि में शहरों में दूध पर होनेवाले खर्च की हिस्सेदारी 14.4 फीसदी से बढ़ कर 18.3 फीसदी हो गयी है. इस समय दूध की घरेलू मांग प्रति वर्ष 60 लाख टन के हिसाब से बढ़ रही है, लेकिन उत्पादन में महज 35 लाख टन की ही बढ़ोत्तरी हो रही है. मांग के मुकाबले आपूर्ति में व्यापक कमी ने बहुत से कारोबारियों को मिलावट के लिए प्रेरित किया. इससे दूध के साथ बीमारियां मुफ्त में मिल रही हैं.