‘घंटे भर की रिहाई, फिर कर्फ़्यू की लंबी क़ैद’
निदा नवाज़ कवि, श्रीनगर से बीबीसी हिंदी के लिए सुबह के लगभग पांच बज चुके थे तभी अचानक पुलिस की गश्त लगाने वाली गाड़ी से घोषणा हुई कि सुबह छह बजे से सात बजे तक कर्फ़्यू में एक घंटे की ढील दी जा रही है. हम हैरान हुए, हमे अपने कानों पर यक़ीन ही नहीं […]
सुबह के लगभग पांच बज चुके थे तभी अचानक पुलिस की गश्त लगाने वाली गाड़ी से घोषणा हुई कि सुबह छह बजे से सात बजे तक कर्फ़्यू में एक घंटे की ढील दी जा रही है.
हम हैरान हुए, हमे अपने कानों पर यक़ीन ही नहीं हो पा हा था. हमें ऐसा लग रहा था जैसे एक महीने और एक दिन की क़ैद की हमारी सज़ा पूरी होने को है.
मेरा बेटा फौरन बिस्तर से निकला और मेरे बेडरूम का दरवाज़ा खटखटाने लगा. वह भी ख़ुशी और हैरानगी से कहने लगा, डैडी आपने सुना कर्फ़्यू में एक घंटे की ढील दी जा रही है, 6 बजे से 7 बजे तक.
मैंने दरवाज़ा खोला और उसको देखने लगा. उसकी हालत ऐसी थी जैसे उसने अचानक ईद का चाँद देखा हो. उसके चेहरे पर फिर से ख़ुशी निखर आई थी.
वह फिर कहने लगा, "डैडी मुझे कुछ नमकीन और बिस्किट लाने हैं, आज एक दो मुर्गे भी लाएंगे. अब कर्फ़्यू उठेगा और हमारे ‘एगज़ैम्स’ का फिर से डेटशीट निकलेगा. हम बड़ी बेसब्री के साथ 6 बजे का इंतज़ार करने लगे. मेरी बीवी एक लंबी सूची बनाने लगी.
मैं तो आम आदमी हूं, मुझ पर क्यों कर्फ्यूवह अपने आप से ही बड़बड़ा रही थी, "हफ़्ते भर के लिए सब्जियां ला कर रखूंगी, मसाले भी सभी ख़त्म हो गए हैं, 15 दिनों से साबून और शैम्पू के बगैर नहा रहे हैं, कोई सुनेगा तो क्या कहेगा! टूथपेस्ट भी कब का ख़त्म हुआ है, मैं अब खाली ब्रश से दांत साफ करती हूँ कि कहीं आदत ही न छूट जाए. मेरे सिर में अक्सर दर्द रहने लगता है, पिछले बीस दिनों से ब्लडप्रेशर की दवाई नहीं ले रही हों. मैं आज पूरे दो पत्ते लाऊंगी. बड़े बेटे को 11 तारीख़ को इंश्योरेंस कंपनी की तरफ़ से दुबई जाने का प्रोग्राम है. उसे भी शॉपिंग करनी है. वाशिंग मशीन में कपड़े भरे पड़े हैं, साबुन के बिना धोएंगे कैसे?"
मैं भी सोच रहा था कि एक महीने से न ही बाल कटवाए हैं और न ही शेव किया है चलो मैं आज पहले नाई की दुकान पर जाऊंगा. मगर, मगर एक घंटे की कर्फ़्यू डील में अगर नाई ने दुकान खोली भी तो वहां बहुत भीड़ होगी. अभी छह बजने में दस मिनट थे. हम सब घर के आँगन में आ चुके थे.
हमारी हालत वही थी जो दौड़ में हिस्सा लेने वाले लोगों की होती है जब वे सीटी बजने के इंतज़ार में होते हैं. अब छह बज चुके थे. हम बाज़ार की तरफ़ चलने के नाम पर दौड़ रहे थे. बाज़ार का दृश्य अजीब था जैसे पूरे शहर को क़ैद से रहाई मिल चुकी हो.
औरतें, मर्द, बच्चे, बूढ़े दुकानों पर खड़े थे. कर्फ़्यू में ढील का एक घंटा पूरा हो चुका था लेकिन लोग पूरी शॉपिंग नहीं कर सके थे. गश्त लगाने वाली गाड़ी फिर से नमूदार हुई. कर्फ़्यू फिर से लगाया गया. लोग घरों की तरफ़ वापस दौड़ने लगे.
मेरी आँखों के सामने दर्दनाक मंज़र था, कुछ लोग जूते हाथों में थामे दौड़ रहे थे. मैं हांफते-हांफते घर पहुंच गया. बीवी ने सब्जियां लाई थीं, मसाले भी लाये गए थे लेकिन दूसरी चीज़ें नहीं ला पाईं.
छोटे बेटे नीरज के चेहरे की ख़ुशी फिर से ग़ायब हो गई थी. बड़ा बेटा भी परेशान था. हम एक बार फिर कर्फ़्यू की आड़ में क़ैद हो चुके थे और मैं सोच रहा था कि राजनीति और धार्मिक कट्टरवाद के बीच आम आदमी कब तक क़ैद रहेगा!
(लेखक और कवि निदा नवाज़ श्रीनगर में अपने परिवार को साथ रहते हैं.)
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