जानिए इन आजादी के नायकों को …

राम प्रसाद बिस्मिल जब भी भारत के स्वाधीनता इतिहास में महान क्रांतिकारियों की बात होगी, तब भारत मां के इस वीर सपूत का जिक्र जरूर होगा. राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक महान क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाविद् व साहित्यकार भी थे. उन्होंने अपनी बहादुरी और सूझ-बूझ से अंगरेज हुकुमत की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 16, 2016 6:33 AM
राम प्रसाद बिस्मिल
जब भी भारत के स्वाधीनता इतिहास में महान क्रांतिकारियों की बात होगी, तब भारत मां के इस वीर सपूत का जिक्र जरूर होगा. राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक महान क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाविद् व साहित्यकार भी थे.
उन्होंने अपनी बहादुरी और सूझ-बूझ से अंगरेज हुकुमत की नींद उड़ा दी और भारत की आजादी के लिए मात्र 30 साल की उम्र में अपने प्राणों की आहुति दे दी. ‘बिस्मिल’ उपनाम के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे. उनकी प्रसिद्ध रचना सरफरोशी की तमन्ना गाते हुए न जाने कितने क्रांतिकारी देश की आजादी के लिए फांसी के तख्ते पर झूल गये. राम प्रसाद बिस्मिल ने मैनपुरी कांड और काकोरी कांड को अंजाम देकर अंगरेजी साम्राज्य को हिला दिया था. लगभग 11 वर्ष के क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया.
उनके जीवनकाल में प्रकाशित हुई लगभग सभी पुस्तकों को ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था. राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून, 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में हुआ था. उनके पिता का नाम मुरलीधर और माता का नाम मूलमती था. रामप्रसाद बिस्मिल ने अंगरेजी साम्राज्यवाद से लड़ने और देश को आजाद कराने के लिए मातृदेवी नाम की एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की.
आजादी आंदोलन को चलाये रखने हेतु धन की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए बिस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायीं और उनके नेतृत्व में कुल 10 लोगों ने लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन पर ट्रेन रोक कर 9 अगस्त, 1925 को सरकारी खजाना लूट लिया. 26 सितंबर, 1925 को बिस्मिल के साथ पूरे देश में 40 से भी अधिक लोगों को काकोरी डकैती मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. रामप्रसाद बिस्मिल को अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह के साथ मौत की सजा सुनायी गयी. उन्हें 19 दिसंबर, 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गयी. इस तरह एक वीर स्वतंत्रता सेनानी हंसते-हंसते शहीद हो गया.
हकीम अजमल खान
हकीम अजमल खान एक भारतीय चिकित्सक, राष्ट्रवादी राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी थे. उन्होंने बीसवीं सदी के प्रारंभ में दिल्ली में तिब्बिया कॉलेज की स्थापना करके भारत में यूनानी चिकित्सा को भारत में नया जीवन दिया. वे महात्मा गांधी के निकट सहयोगी थे. अजमल खान ने स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान कई महत्वपूर्ण आंदोलनों में भाग लिया. उन्होंने देश के पहले सबसे बड़े आंदोलन असहयोग आंदोलन में भाग लिया और खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व भी किया. वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े और 1921 में अहमदाबाद में आयोजित कांग्रेस के सत्र की अध्यक्षता भी की. इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बननेवाले वे पांचवें मुसलिम थे.
राष्ट्रीय आंदोलन के अलावा उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भी कार्य किया. हकीम अजमल खान जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के संस्थापकों में से एक थे. 1920 से लेकर 1927 तक वे इसके कुलाधिपति रहे. वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे, जो कांग्रेस के साथ-साथ मुसलिम लीग और अखिल भारतीय खिलाफत समिति के भी अध्यक्ष बने. हकीम अजमल खान का जन्म 11 फरवरी, 1868 को दिल्ली में हुआ.
उनका ताल्लुक हकीमों के उस खानदान के साथ था. इन्होंने देश में सांप्रदायिक सौहार्द बनाने में अतुलनीय योगदान दिया. जब भी गांधीजी को किसी सांप्रदायिक मसले पर सुझाव की जरूरत होती थी, तब वे हकीम साहब से सलाह लेते थे. उनके अंदर राष्ट्रवाद और देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी. देश सेवा के लिए उन्होंने आराम, सुख-चैन और संपत्ति की भी कोई परवाह नहीं की. हृदय की बीमारी से यह महापुरुष 29 दिसंबर, 1927 को इस दुनिया को छोड़ कर चला गया.
राम मनोहर लोहिया
राम मनोहर लोहिया एक स्वतंत्रता सेनानी, प्रखर समाजवादी और सम्मानित राजनीतिज्ञ थे. राम मनोहर ने हमेशा सत्य का अनुकरण किया और आजादी की लड़ाई में अद्भुत काम किया. भारत की राजनीति में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और उसके बाद ऐसे कई नेता आये, जिन्होंने अपने दम पर राजनीति का रुख बदल दिया. उन्हीं नेताओं में एक राममनोहर लोहिया थे. वे अपनी प्रखर देशभक्ति और तेजस्वी समाजवादी विचारों के लिए जाने गये. राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में हुआ था. उनकी मां एक शिक्षिका थीं. जब वे बहुत छोटे थे तभी उनकी मां का निधन हो गया था.
उनके जीवन में नया मोड़ तब आया, जब वे पिता के साथ गांधीजी से मिलने गये. राम मनोहर गांधी के व्यक्तित्व और सोच से बहुत प्रेरित हुए तथा जीवनपर्यंत गांधीजी के आदर्शों का समर्थन किया. 18 साल की उम्र में वर्ष 1928 में युवा लोहिया ने ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित साइमन कमीशन का विरोध करने के लिए प्रदर्शन का आयोजन किया.
स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की उनकी बचपन से ही प्रबल इच्छा थी, जो बड़े होने पर भी खत्म नहीं हुई. जब वे यूरोप में थे, तो उन्होंने वहां एक क्लब बनाया, जिसका नाम एसोसिएशन ऑफ यूरोपियन इंडियंस रखा, जिसका उद्देश्य यूरोपीय भारतीयों के अंदर भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति जागरूकता पैदा करना था. भारत वापस आने पर वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये और वर्ष 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की आधारशिला रखी.
वर्ष 1936 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का पहला सचिव नियुक्त किया. अपने अंतिम कुछ वर्षों के दौरान उन्होंने देश की युवा पीढ़ी के साथ राजनीति, भारतीय साहित्य और कला जैसे विषयों पर चर्चा किया. राम मनोहर लोहिया का निधन 57 साल की उम्र में 12 अक्तूबर, 1967 को नयी दिल्ली में हो गया.
कमलादेवी चट्टोपाध्याय
कमलादेवी चट्टोपाध्याय एक समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, नारी आंदोलन की पथ प्रदर्शक तथा भारतीय हस्तकला के क्षेत्र में नव-जागरण लानेवाली गांधीवादी महिला थीं. वे एक सामाजिक कार्यकर्ता, कला और साहित्य की समर्थक भी थीं. महात्मा गांधी के आह्वान के चलते वे राष्ट्र सेवा से जुड़ गयीं. उन्होंने देश के हस्तशिल्प और हथकरघा क्षेत्र को एकीकृत करने और राष्ट्रीय स्तर पर नयी पहचान देने का कार्य किया था. वे एक ऐसी राजनेता थीं, जिन्हें कभी कुरसी की चाह नहीं थी.
राष्ट्रभक्ति का जज्बा ऐसा था कि आजादी के बाद उन्होंने सरकार द्वारा प्रदत्त सम्मान को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. देश के विभाजन के बाद उन्होंने शरणार्थियों के पुनर्वास में अपने आप को लगा दिया. जब वे लंदन में थीं, तभी से महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से वर्ष 1923 में जुड़ गयीं और भारत लौट आयीं. यहां आकर वे सेवादल तथा गांधीवादी संगठनों में अपना योगदान देने लगीं. कमलादेवी चट्टोपाध्याय का जन्म 3 अप्रैल, 1903 को मंगलोर (कर्नाटक) के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वे अपने माता-पिता की चौथी और सबसे छोटी पुत्री थीं.
वे बहुत दिलेर थीं और पहली ऐसी भारतीय महिला थीं, जिन्होंने 1920 के दशक में खुले राजनीतिक चुनाव में खड़े होने का साहस जुटाया, वह भी ऐसे समय में जब बहुसंख्यक भारतीय महिलाओं को आजादी शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम था. नमक कानून तोड़ने के मामले में बॉम्बे प्रेसीडेंसी में गिरफ्तार होनेवाली वे पहली महिला थीं. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वे चार बार जेल गयीं और पांच वर्ष तक सलाखों के पीछे रहीं. द अवेकिंग ऑफ इंडियन वीमेन, जापान इट्स वीकनेस एंड स्ट्रेंथ जैसी चर्चित पुस्तकें भी लिखीं. 29 अक्तूबर,1988 को उनका निधन हो गया.
रानी गाइदिनल्यू
रानी गाइदिनल्यू एक प्रसिद्ध भारतीय महिला क्रांतिकारी थीं. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नागालैंड में अंगरेजी हुकुमत के विरुद्ध अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया. इस वीरांगना को आजादी की लड़ाई में तमाम वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए नागालैंड की रानी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है.
मात्र 13 साल की उम्र में वे अपने चचेरे भाई जादोनाग के हेराका आंदोलन में शामिल हो गयीं. प्रारंभ में इस आंदोलन का स्वरूप धार्मिक था, पर धीरे-धीरे इसने राजनीतिक रूप धारण कर लिया, जब आंदोलनकारियों ने मणिपुर और नागा क्षेत्रों से अंगरेजों को खदेड़ना शुरू किया. हेराका पंथ में रानी गाइदिनल्यू को चेराचमदिनल्यू देवी का अवतार माना जाने लगा. अंगरेजों ने रानी गाइदिनल्यू को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए गिरफ्तार कर लिया. उस समय उनकी उम्र मात्र 16 साल थी.
वर्ष 1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू उनसे शिलांग जेल में मिले और उनकी रिहाई का प्रयास किया, पर अंगरेजों ने उनको रिहा नहीं किया. भारत की आजादी के बाद वर्ष 1947 में उनकी रिहाई हुई. आजादी के बाद उन्होंने अपने लोगों के विकास के लिए खूब काम किया. वे नागाओं के पैतृक धार्मिक परंपरा में विश्वास रखती थीं, इसलिए उन्होंने नागाओं द्वारा ईसाई धर्म अपनाने का घोर विरोध किया.
बाद में भारत सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया और पद्मभूषण से सम्मानित किया. रानी गाइदिनल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 को मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के एक गांव में हुआ था. अपने माता-पिता की आठ संतानों में वे पांचवें नंबर पर थीं. उनके परिवार का संबंध गांव के शासक वर्ग से था. अपनी रिहाई से पहले इन्होंने लगभग 14 साल विभिन्न जेलों में काटे थे. 78 साल की आयु में इनका निधन 17 फरवरी, 1993 को हो गया.
विनोबा भावे
महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी एवं महान स्वतंत्रता सेनानी विनोबा भावे अहिंसा से आजादी के प्रबल समर्थक थे. विनोबा भावे का जन्म महाराष्ट्र के कोलाबा (अब रायगढ़) जिले के गागोडे गांव में 11 सितंबर, 1895 को हुआ था. मां का प्रभाव ज्यादा होने से विनोबा धार्मिक ग्रंथों से प्रभावित थे. वे गांधी जी से भी प्रभावित थे. ७ जून, 1916 को वे गांधीजी से मिलने गये.
पांच वर्ष बाद ८ अप्रैल 1921 को विनोबा भावे ने वर्धा स्थित गांधी आश्रम का कार्यभार संभाल लिया. वर्ष 1932 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सरकार के खिलाफ षडयंत्र रचने के आरोप में छह महीने के लिए जेल भेज दिया.
1940 में गांधीजी द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह के प्रथम सत्याग्रही के तौर पर विनोबा को चुना गया. इस सत्याग्रह के कारण वे मशहूर हो गये. उनको गांव-गांव में युद्ध विरोधी भाषण देते हुए आगे बढ़ना था. ब्रिटिश सरकार ने विनोबा को गिरफ्तार कर लिया. आजादी के बाद भी विनोबा का संघर्ष जारी रहा. 1951 में वह आंध्र प्रदेश के गांवों में भ्रमण कर रहे थे, तब उनके मन में भूदान आंदोलन का विचार आया. उस समय भूमिहीनों की संख्या अधिक थी और जातिगत भेदभाव भी चरम पर था.
अपनी अपील के जरिये सप्ताह भर में विनोबा ने सैकड़ों एकड़ जमीन जमा कर ली. विनोबा भावे को सामुदायिक नेतृत्व के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय रेमन मैग्सेसे पुरस्कार भी मिला. नवंबर, 1982 में वे बीमार पड़ गये, तब उन्होंने भोजन व दवा नहीं लेने का निर्णय लिया. 15 नवंबर, 1982 को उनका निधन हो गया. उन्हें 1983 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया.
अरुणा आसफ अली
अरुणा आसफ अली मुखर व प्रखर सेनानी थीं. 1942 के आंदोलन में मुंबई में कांग्रेस का झंडा फहराने के चलते वे काफी चर्चित हुईं. 16 जुलाई, 1909 को पंजाब के कालका (अब हरियाणा)में अरुणा गांगुली का जन्म हुआ. उनकी पढ़ाई नैनीताल व लाहौर (अब पाकिस्तान) में हुई. वे कलकत्ता के गोखले मेमोरियल कॉलेज में पढ़ाती थीं. उन्होंने नमक सत्याग्रह आंदोलन में भी भाग लिया और इसी के साथ वे कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन गयीं. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वे कई बार जेल गयीं.
ितहाड़ जेल की बुरी स्थिति को देखते हुए उन्होंने भूख हड़ताल किया, जिससे जेल की स्थिति में काफी सुधार किया गया. इस जांबाज महिला ने अपनी संपत्ति जब्त होने पर भी अंगरेजों के आगे आत्मसमर्पण नहीं किया. १९47 में वे दिल्ली कांग्रेस कमिटी की अध्यक्ष बनीं. बाद में वे सोशलिस्ट पार्टी व कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयीं. फिर वे ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) की उपाध्यक्ष बनीं. १९58 में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ दी. इसी साल वे दिल्ली नगर निगम की पहली मेयर चुनी गयीं व स्वच्छता अभियान चलाया. नेहरू की मृत्यु के बाद वे फिर से कांग्रेस में लौट आयीं. वे हमेशा अपनी जमीर की आवाज सुनती थीं. वे इस दौरान अंगरेजी दैनिक पैट्रियट में भी अपना योगदान देती रहीं. वे इंडो-सोवियत कल्चरल सोसायटी, नेशनल फेडरेशन आॅफ इंडियन वूमन एवं आल इंडिया पीस काउंसिल से भी जुड़ी रहीं. महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से भी वे एक मिसाल हैं. 29 जुलाई, 1996 को उनका निधन हो गया.
प्रस्तुति -जयंत जिज्ञासु

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