रियो ओलंपिक में भारत की शान बनीं महिला खिलाडियों की है अलग-अलग कहानी

नयी दिल्ली : पी वी संधु, साक्षी मलिक, दीपा कर्माकर और ललिता बाबर देश के अलग अलग हिस्सों से आती हैं और उनके संघर्ष की कहानी एक दूसरे से अलग है लेकिन उनमें एक बात समान है और वह यह है कि अपने साहस और शानदार खेल से उन्होंने ओलंपिक में देश के लचर अभियान […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 20, 2016 9:20 PM

नयी दिल्ली : पी वी संधु, साक्षी मलिक, दीपा कर्माकर और ललिता बाबर देश के अलग अलग हिस्सों से आती हैं और उनके संघर्ष की कहानी एक दूसरे से अलग है लेकिन उनमें एक बात समान है और वह यह है कि अपने साहस और शानदार खेल से उन्होंने ओलंपिक में देश के लचर अभियान में एक नयी जान डाल दी. इनमें से सभी को ओलंपिक पदक नहीं मिला, सिंधु का बैडमिंटन रजत और साक्षी का कुश्ती का कांस्य पदक जीतना खेलों में अब तक भारत के सबसे गौरवशाली क्षण रहें, लेकिन कोशिश और दृढ संकल्प की बात करें तो उसके प्रदर्शन में चारों महिलाएं बराबर थीं. चारों खिलाडियों की कहानी और अब तक का सफर एक दूसरे जुदा रहा है.

पी वी सिंधु

स्पेन की विश्व नंबर एक कैरोलिना मारिन को कडी टक्कर देने के बाद ओलंपिक रजत पदक से संतोष करने वाली सिंधु भारत में खेलों का सबसे चमकीला सितारा बनकर उभरी हैं. सिंधु देश के दक्षिणी हिस्से से आती हैं. अर्जुन पुरस्कार विजेता वॉलीबॉल खिलाडी पी वी रमन्ना की बेटी सिंधु को खेलों की दुनिया में आने के लिए कहीं बाहर से प्रेरणा पाने की जरुरत नहीं थी. 21 साल की खिलाडी ने 2001 में पुलेला गोपीचंद को ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियन बनते देखा और इसके बाद उनसे प्रेरणा पाते हुए बैडमिंटन को अपनी मंजिल बना लिया. बाद में यहीं गोपीचंद उनके कोच बने और उन्हें ओलंपिक में भारत का सबसे बुलंद सितारा बना दिया. अब तक दूसरी बैडमिंटन खिलाडी पूर्व विश्व नंबर एक साइना नेहवाल के साये में रहीं सिंधु ने अब अपनी अलग पहचान बना ली है.

साक्षी मलिक

उनके उलट 23 साल की साक्षी उत्तर भारत के हरियाणा से आती हैं, एक ऐसे राज्य से जहां कन्या भू्रण हत्या की समस्या अब भी चिंता का विषय है. साक्षी ने अपने तीनों बाउट में पिछडने के बावजूद जिस तरह से अदम्य साहस का परिचय देते हुए कांस्य पदक जीता, वह प्रेरणा का स्रोत है. साक्षी रोहतक के जिस गांव से आती है वहां कभी उनके कुश्ती खेलने और इसके लिए उनके माता पिता के मंजूरी देने पर सवाल उठे थे लेकिन इस खिलाडी के कांस्य पदक जीतने पर वही गांव आज जश्न में डूबा हुआ है. साक्षी की इस सफलता के पीछे उनके बस कंडक्टर पिता और आंगनवाडी में काम करने वाली मां का बडा योगदान है जो हर कदम पर अपनी बेटी के साथ खडे रहे.

दीपा कर्माकर

पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा की दीपा कर्माकर शर्मीले स्वभाव की, सीधी सरल और जिम्नास्टिक के खेल के लिए जुनूनी खिलाडी हैं. उन्होंने ओलंपिक में अपने शानदार प्रदर्शन से उस खेल को देश में एक नयी पहचान दी जिसमें अब तक कोई भी भारतीय खिलाडी ओलंपिक के लिए क्वालीफाई तक नहीं कर पाया था. रूस, अमेरिका, चीन और पूर्वी यूरोपीय देशों के दबदबे वाले खेल में दीपा को जानलेवा प्रोडुनोवा वॉल्ट करते देखना गौरवान्वित करने वाला क्षण था. दुनिया के दिग्गज खिलाडी तक प्रोडुनोवा करने से बचते हैं. दीपा के वॉल्ट में स्वर्ण पदक जीतने वाली अमेरिकी खिलाडी सिमोन बाइल्स ने भी फाइनल में प्रोदुनोवा वॉल्ट नहीं किया. दीपा भारत में इस खेल के लिए बुनियादी संरचना के अभाव के बावजूद अपने मध्यम वर्गीय परिवार के भावनात्मक समर्थन से लगातार अपना खेल बेहतर करती रहीं. उन्होंने 2014 के ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रचा और तब से एक के बाद एक नये कीर्तिमान बना रही हैं.

ललिता बाबर

भारत के लोग शायद ललिता बाबर को ज्यादा समय तक याद ना रखें क्योंकि 3000 मीटर के स्टीपलचेज के फाइनल में वह दसवें स्थान पर रहीं. लेकिन रियो के मराकाना स्टेडियम में छठे स्थान पर रहकर फाइनल के लिए क्वालीफाई कर जो उपलब्धि हासिल की वह सराहनीय है. महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक सूखा प्रभावित गांव से आने वाली लंबी दूरी की धाविका दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद करने वाले बहुत सारे भारतीयों की जीजिविषा का प्रतीक हैं. ललिता ने ओलंपिक में राष्ट्रीय रिकार्ड तोड दिया, वह भले ही दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाडियों के करीब नहीं थीं लेकिन निश्चित तौर पर उन्होंने उस खेल में अपनी ताकत दिखायी जिसमें मिल्खा सिंह और पीटी उषा के बाद से देश को कोई और महानायक नहीं मिला है. इन चारों खिलाडियों ने अपने खेल से ना केवल देश की लाज बनायी बल्कि लोगों को एक संदेश भी दिया कि लडकियां किसी से भी पीछे नहीं हैं. उनके प्रेरणाप्रद खेल से अब भारत में बहुत सारी लडकियों को खेलों की दुनिया में करियर बनाने, सपने देखने और उन्हें पूरा करने का साहस और प्रेरणा मिलेगी.

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