क्यों बदल रहा है हाथियों का मिजाज़?
नीरज सिन्हा रांची से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए ”रात के दो-ढाई बजे की बात थी, दरवाजे पर धक्के की आवाज़ से लगा कि गांव में पहले चोर तो कभी आया नहीं और हमारे घर में उसे मिलेगा भी क्या? लेकिन पल भर में नज़ारा कुछ और था. दरवाजा टूटा और हाथी ने हमें […]
”रात के दो-ढाई बजे की बात थी, दरवाजे पर धक्के की आवाज़ से लगा कि गांव में पहले चोर तो कभी आया नहीं और हमारे घर में उसे मिलेगा भी क्या? लेकिन पल भर में नज़ारा कुछ और था. दरवाजा टूटा और हाथी ने हमें सूंड में लपेट कर बाहर निकाला.”
हाथियों के आतंक के बीच रह रहे अजय गंझू की इन बातों में ख़ौफ़ की झलक साफ देखी जा सकती है.
अजय बताते हैं, "हाथी ने फुटबॉल की तरह मुझे इस तरह से ऊपर उछाला कि होश उड़ गए. गांव के लोगों ने बेहोशी की हालत में अस्पताल में भरती कराया. चार घंटे बाद होश आया, तो पता चला कि छत पर गिरे पड़े थे. अस्पताल से घर लौटने पर देखा कि हाथियों के झुंड ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया है
अजय के साथ यह हादसा बानगी भर है. झारखंड में छोटानागपुर के कई इलाकों में जंगलों और पहाड़ों की तराई वाले गांवों में उत्पात मचाने वाले हाथियों के मिजाज़ बदलने लगे हैं. ये झुंड प्रमुख सड़कों और उससे सटे गांवों में घरों को ढहा रहे हैं. दूर-दूर तक फ़सलों को रौंद रहे हैं. हाथियों के हमले में लोगों की मौत का सिलसिला भी तेज़ हो गया है.
जब हम रांची से क़रीब 35 किलोमीटर दूर डूंडे गांव में अजय गंझू से मिलने पहुंचे, तो पता चला कि दूसरे दिन ही बगल के मनातू गांव में एक बुज़ुर्ग महिला और सांडी में एक व्यक्ति को हाथियों ने कुचल कर मार डाला है. अर्जुन गंझू और बरजू गंझू बताते हैं कि रात में वो लोग खाना नहीं खाते. इस डर से कि शौच के लिए सुबह सुबह खेतों की ओर जाने पर हाथी कहीं हमला न कर दे.
उन्हें चिंता अब इस बात की है कि अनाज का इंतज़ाम कैसे होगा और ढहाए गए मिट्टी के घर दोबारा कैसे बनाएं, जबकि उन्हें किसी तरह की सरकारी मदद नहीं मिली है. उनके बेटे दिनेश गंझू डरावनी रात के बारे में बताते हैं कि खटिया के नीचे सब लोग दुबके रहे और तीन घंटे तक आंखों के सामने मौत नाचती रही.
ग्रामीणों से बातचीत में पता चला कि मुआवजे की प्रक्रिया पूरी करने में इतना वक़्त लग जाता है कि गरीबों को कई महीनों तक दर्द सहना होता है.
मनातू गांव में भी दहशत का साया साफ दिखाई देता है. सुमित्रा देवी बताती हैं कि उनकी बूढ़ी सास खेत गई थी, जहां हाथियों ने कुचल कर मार डाला. डर के मारे कई रातों से सो नहीं पा रहे हैं.
आशा देवी बताती हैं, "अब तो पटाखे फोड़ने या मशाल जलाने से भी हाथी पीछे नहीं हटते. अब पटाखे ख़रीदने के लिए हमारे पास पैसे भी नहीं होते हैं".
अलग राज्य गठन के बाद से हाथियों के हमले में झारखंड में 1090 लोगों की मौत हो चुकी है. जान-माल की क्षति को लेकर वन विभाग ने 47 करोड़ रुपए मुआवजे में बांटे हैं. हाथियों की संख्या 624 से बढ़कर 688 हो गई है और इसके साथ ही वे बेकाबू होने लगे हैं.
तबाही और दहशत को जानने ऊबड़-खाबड़ रास्ते, जंगलों से गुज़रते हम कई गांवों में पहुंचे. पता चला कि पखवाड़े भर से मैनीछापर, सांडी, ओबर, बिसा, हेसातू, जारागढ़ा, सारजमडीह, ढेलुवाखूंटा बेंती, बदरी, खंभावर समेत दर्जनों गांवों में हाथियों के अलग-अलग झुंड उत्पात मचाते रहे हैं.
ओबर गांव के बाबूराम बेदिया बताते हैं कि बारिश के मौसम में घरों की छत उजड़ जाएं और खेत जाने से लोग डरें, तो मुश्किलों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
बीसा पंचायत के मुखिया मुनेश्वर बेदिया की चिंता यह कि वन विभाग ने हाथी भगाओ दल को लगाया तो है, पर कई बार हाथियों का झुंड इस दल को भी दौड़ा देता हैं.
वहीं मौजूद शंकर बेदिया का कहना है कि एक दल कितने गांवों की मदद कर सकेगा. वन विभाग के अधिकारी दौरे पर आए थे, तो लोगों ने उनसे गुहार लगाई कि हर गांव के युवकों को हाथी भगाने की ट्रेनिंग दिलाई जाए और पटाखे, केरोसिन, मिर्ची जैसी चीजें ग्राम समिति को उपलब्ध कराई जाए. वे लोग हां तो कह गए, लेकिन उन्हें भगवान भरोसे ही रहना है.
खोज ख़बर लेते हुए हम हाथी भगाओ दल के साथ भी हुए. सिल्ली के जराडीह गांव के रामरतन महतो की अगुवाई में 20 युवकों का दल हाथियों को आबादी वाले इलाक़े से पहाड़ों की ओर खदेड़ते हैं. ये मशाल जलाकर पहले हाथियों की घेराबंदी करते हैं. पटाखे जलाने के साथ ही कई किस्म की आवाज़ भी निकालते हैं. ये दल जब गांव पहुंचता है, तो बर्बादी से बचने की लोगों की उम्मीदें जगती है.
रामरतन बताते हैं कि कई मौकों पर बीस घंटे तक हाथियों के पीछे लगना होता है. संसाधनों के अभाव में वे लोग जान हथेली पर रखकर ये काम करते हैं. इसी दल के बिरेन महतो की पीड़ा यह है कि इस काम में उन्हें एक दिन के मज़दूरी के एवज़ में महज 187 रुपए मिलते हैं.
हाथियों के बढ़ते हमले के सवाल पर रामरतन महतो बताते हैं कि जंगलों में पसंद के भोजन जैसे बड़, पीपल और बांस कम पड़ने की वजह से हाथी अब दूसरी फसलों को भोजन बनाने लगे हैं. इसके अलावा उन्हें मकई, धान और चावल खाने की आदत लगती जा रही है.
महिलौंग रेंज के वन क्षेत्र पदाधिकारी आरके सिंह का कहना है कि कुछ हाथी अपने रास्ते से भटक गए हैं. भरसक कोशिश की जा रही है कि हाथी पहाड़ों की ओर लौट जाएं. वे बताते हैं कि 14 की संख्या वाले हाथी के एक झुंड में तीन बच्चे भी हैं. बड़े हाथी इसलिए भी भड़क जाते हैं कि शोर होने पर उन्हें लगता है कि उनके बच्चों पर हमला हो सकता है.
वहीं वन संरक्षक वाइके दास के मुताबिक हाथियों का जो इलाक़ा रहा है, उसमें लोग बसते जा रहे हैं. इनके अलावा भोजन के चक्कर में भी हमले बढ़ रहे हैं. इसे कम करने के लिए विभिन्न स्तरों पर उपाय किए जाने हैं.
जबकि जंगलों और जंगली जानवरों की आदतों पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अनिल श्रीवास्तव का कहना है कि वन विभाग के अफसरों को जंगल जाना होगा. मुआवजे के भरोसे हमले और टकराव नहीं रुक सकते.
उनका कहना है, "हाथियों के बदलते इलाक़े पर गंभीरता से काम नहीं हुआ है. बंगाल, छत्तीसगढ़ से हाथी भटक कर इधर आए, तो उन्हें लौटने में परेशानी होती है. जंगल भी लगातार उजड़ रहे हैं, जिससे हाथी गांवों की ओर रुख कर रहे हैं. इनके अलावा अपने इलाक़े से हाथी भगाकर अधिकारी निश्चिंत हो जाते हैं. तब हाथियों का झुंड सीमा से सटे दूसरे, तीसरे इलाके में उत्पात मचाते हैं. लिहाजा साझा अभियान चलाना होगा.”
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