मनोज रूपड़ा युवा कथाकारों की पीढ़ी में अलग से चमकता हुआ नाम हैं. उनकी कहानियां अपने नीरव जादुई एहसास के कारण पाठक को खुद ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं. मनोज रूपड़ा से प्रीति सिंह परिहार की लंबी बातचीत का अंश..
आपकी कहानियां पढ़ने के लिए पाठकों को लंबा इंतजार करना पड़ता है. यह अंतराल क्यों?
हां यह सच है, मेरी एक कहानी और दूसरी कहानी के बीच काफी लंबे अंतराल रहे हैं. इसे आप खूबी समङिाये या खामी लेकिन मैं अकेला ऐसा लेखक नहीं हूं , जो अपनी बात कहने या कहानी को गढ़ने में ज्यादा वक्त लेता है. आप गौर से देखेंगे तो मेरी पीढ़ी के कुछ और कथाकारों के यहां भी दो कहानियों के बीच लंबे अंतराल रहे हैं. योगेंद्र आहुजा, देवेंद्र , आनंद हषरुल, अखिलेश- ये ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने कभी तात्कालिक दबाव में या किसी संपादक की मांग के आधार पर कहानियां नहीं लिखी. क्योंकि हममे से किसी को भी भीड़ के केंद्र में खड़े रहने का लालच नहीं था. और सबसे अहम बात तो ये है कि हमने सिर्फ कहानियां नहीं लिखीं, बल्कि उसे लिखते हुए अपने स्वभावगत अंशों को भी जिया है. एक अर्थ में यह भी कहा जा सकता है कि हमारी मूल प्रवृत्ति किसी स्क्यूबा ड्राइवर जैसी है, जो पानी में गहरे उतरता है. लेकिन तसवीर का दूसरा पहलू ये भी है कि मैं कुछ हद तक काहिल भी हूं. मैंने तकनीक द्वारा मुहैया कराये गये साधनों और प्रवृत्तियों से खुद को अपडेट नहीं किया. तेजी से बदलती दुनिया मुङो अभिव्यक्ति का विराट अवसर दे रही है, पर मैं अभी तक अपने ही सुर और रंग में रमा हुआ हूं. मैं नहीं जानता के मेरे जैसे अपनी ही फिजा में रहने वाले लेखकों का क्या हश्र होगा.
आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?
मैं कोई जन्मजात प्रतिभाशाली लेखक नहीं हूं. मेरे अंदर के कथाकार को गढ़ने में मेरे कई उस्तादों का हाथ है. मैंने कहानियां पढ़-पढ़ कर कहानियां लिखने का हुनर हासिल किया है. दुनिया के सभी लेखक मुङो लिखने के लिए प्रेरित करते हैं और मैं सिर्फ लेखन से ही नहीं, पेंटिंग, संगीत, सिनेमा, गजल गायन, म्यूरल्स, इंस्टालेशन आर्ट, पत्थर की मूर्तियों, नाटकों और नृत्य से भी अपने लेखक के लिए सत हासिल करता हूं. ये सभी कला विधाएं मेरी प्रेरणा का स्नेत हैं.
कोई घटना या अनुभव कौन सी चीज आपको कहानी लिखने के लिए बाध्य करती है?
इस दुनिया के ग्लोबल होने से पहले भी हमारे पास विविध विषय थे और आज भी हम कई कई चीजों से गुजर रहे हैं. किसी विषय के बड़े होने से कहानी नहीं बनती. मुख्य चीज है उस पहले बिंदु का मिलना, जिसमें कथा के सूत्र को पिरोया जा सके. लेकिन यह पहला ‘बिंदु’ कोई अमूर्त अवधारण नहीं है. वह बिंदु भी हमें हमारी इसी जीती-जागी दुनिया से हासिल होता है. ‘साज नासाज’ का बूढ़ा सेक्सोफोनिस्ट दरअसल, एक अमेरिकन हिप्पी था, जिससे गोवा के समुद्र तट पर मेरी मुलाकात हुई थी. उसने एक रॉक बीच पर अपने लिए अस्थायी कुटिया किराये पर ले रखी थी. मैंने पहली बार जब उसे सेक्सोफोन बजाते देखा और सुना तो दंग रह गया. उसने मुङो बिल्कुल मंत्रमुग्ध कर दिया था. अपनी धुन पूरी करने के बाद जब उसने मेरी तरफ देखा और वह धीरे से मुस्कराया, तो मुङो लगा कि मेरे और उसके बीच कोई ट्यूनिंग हो गयी है. बस वही ट्यूनिंग ‘साज-नासज’ की बुनियाद थी.
आपने यात्रएं बहुत की हैं. यात्रओं की क्या अहमियत है आपके जीवन और लेखन में?
यात्रा,भ्रमण और घुमक्कड़ी तीनों अलग-अलग चीजें हैं और तीनों का प्रभाव भी हमारे ऊपर अलग ढंग से पड़ता है. यात्र तो उन लोगों ने की थी, जिन्होंने पहले पहल यह सोचा था कि समुद्र के उस पार क्या है? पर्वत माला के पीछे क्या है? अनजान बीहड़ों, रेगिस्तानों और दुर्गम जंगलों के पार क्या है? और सिर्फ सोचा ही नहीं, उन्होंने उसे पार करने के लिए यात्रएं भी कीं. उन्होंने अज्ञात खतरों को चुनौती दी और वहां जा पहुंचे जहां पहले मनुष्य नहीं था. उन्होंने उन निजर्न इलाकों में नयी दुनिया बनायी. बरसों पहले बसायी गयी उस दुनिया के स्थापत्य या पुरातात्विक अवशेषों और भगA मूर्तियों के बीच से या उनके द्वारा बनाये गये किसी रेगिस्तानी पहाड़ी या समुद्री रास्ते या किसी नदी के किनारे की सभ्यता या उन घनघोर आबादीवाले प्राचीन नगरों की इमारतों या गोथिक गलियारों या बदनाम गलियों से जब मैं गुजरता हूं तो सिर्फ स्थानीय विशेषताओं के ब्यौरे दर्ज नहीं करता, बल्कि वहां के सारे इंप्रेशंस खुद-ब-खुद मेरे अंदर दर्ज हो जाते हैं. जो लोग नोटबुक साथ लेकर ऑब्जर्वर की हैसियत से यात्र पर जाते हैं और अपने पायचे ऊपर उठाकर चलते हैं, उन्हें सिर्फ सूखे-सपाट ब्योरे हाथ लगते हैं. वे संस्कृति के उस प्रवाह से अधूरे रह जाते हैं, जो जीवन और लेखन दोनों के लिए जरूरी है.
आप अपनी सबसे प्रिय कहानी के तौर पर किसका जिक्र करना चाहेंगे?
जब मैं मुंबई में था तब फिल्म अभिनेता राजेंद्र गुप्ता ने अपने घर में एक गोष्ठी आयोजित की थी. विषय था ‘मेरी प्रिय कहानियां’. कहानी पाठ के लिए 66 कथाकारों का चयन हुआ था. बाकी सभी कथाकारों ने खुद अपनी लिखी हुई कहानियों में से अपनी प्रिय कहानी का चयन किया था. अंत में जब मेरी बारी आई तो मैंने कहा कि दुनिया में जब इतने बड़े-बड़े उस्तादों की कहानियां मौजूद हैं तो मेरी खुद की लिखी हुई कहानी मेरी प्रिय कहानी कैसे हो सकती है? लिहाजा मैंने अपनी कहानी का पाठ करने के बजाय एक चीनी लेखक फ्र ची छाई की कहानी ‘नाव का गीत’ का पाठ किया. वह आज भी मेरी सबसे प्रिय कहानी है.
ऐसी साहित्यिक कृतियां जो पढ़ने के बाद जेहन में दर्ज हो गयी हों? क्या खास था उनमें?
मेरे जेहन में इतनी सारी कृतियां दर्ज हैं कि उनकी सूची बनाना भी मुश्किल है. फिलहाल कुछ आउटस्टैंडिग रचनाओं का जिक्र किया जा सकता है. मसलन, मंजूर एहतेशाम का उपन्यास ‘बशारत मंजिल’, नार्वेई लेखक क्जूत हाम्सुन का ‘भूख’, विक्रम सेठ का ‘एक सा संगी’, राही मासूम रजा का ‘आधा गांव’, फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ और इसके अलावा हाल ही में हंगरी लेखिका मागदो साबा का उपन्यास ‘दरवाजा’ मैंने पढ़ा है. बाकी सभी कृतियों का अपने-अपने ढंग से प्रभाव मेरे ऊपर रहा है लेकिन मागदो साबा के ‘दरवाजा’ ने मेरे अंदर के लेखक को झकझोर कर रख दिया. यह एक घोर एंटी इंटेलेुअल उपन्यास है. उपन्यास में दो केंद्रीय पात्र हैं. एक बुद्धिजीवी लेखिका और दूसरे उसकी एक बेहद कर्मठ और उतनी ही अड़ियल मेड सर्वेट. लेखिका में किताबी ज्ञान और उसकी नौकरानी के भयानक जीवनानुभवों के बीच जो ‘घमासान’ इस किताब में आया है, वो मैंने पहले कभी नहीं देखा था. इस उपन्यास का सबसे ज्यादा भरपूर और शक्तिशाली तत्व ये नहीं है कि वह अपनी मालकिन के अंदर की बुद्धिजीवी को मार डालती है. असली तथ्य तो ये है कि वह अपनी मालकिन से प्यार भी उतनी ही करती है, जितना कोई मां अपनी बेटी से करती है और अपनी इस प्यारी बेटी पर आनेवाले किसी भी संकट से वह वैसे ही निपटती है जैसे कोई मादा अपने छौने को बचाने के लिए जान लगा देती है. अद्भुत.. बेमिसाल..मैंने फिक्शन निगारी के समूचे इतिहास में ऐसा फिक्शन नहीं पढ़ा था.