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विद्या और ज्ञान की देवी सरस्वती के आहृवान का पर्व नजदीक है. आज हमारे समाने सबसे बड़ी चुनौती देश के पुनर्निर्माण की है. देश में व्याप्त जड़ता को तोड़ने की है. नये भारत के निर्माण में ज्ञान की भूमिका के सवाल पर केंद्रित विशेष आवरण-कथा.
‘वर दे, वीणावादिनी वर दे
प्रिय स्वतंत्र रव अमृत मंत्र नव भारत में भर दे..’
वसंत पंचमी के दिन जन्मे महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ज्ञान की देवी सरस्वती का आह्वान करती कविता की ये पंक्तियां क्रांति का स्वप्न देखती हैं. ‘वर दे, वीणावादिनी वर दे’
कविता में निराला ने एक नये भारत के निर्माण का स्वप्न देखा था. लेकिन, आजादी के बाद के 66 वर्षो के देश के अब तक के सफर को देखें, तो महाकवि की यह कामना आज भी अधूरी है. आजादी की मध्यरात्रि को जवाहरलाल नेहरू ने देश से नियति के साथ साक्षात्कार का जो वादा किया था, वह वादा बीच सफर में ही कहीं खो गया है. यह इम्तिहान की घड़ी है. एक राष्ट्र के तौर पर भारत के लिए भी और राष्ट्र की इकाई के तौर पर हम सबके लिए भी. आज हम इतिहास के उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां यह दारोमदार हम पर है कि हम नये भारत के निर्माण की अधूरी रह गयी परियोजना को आगे बढ़ायें.
यह परियोजना आगे कैसे बढ़ेगी? नये भारत का निर्माण कैसे होगा? इस सवाल का जवाब खोजने के लिए हमें सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि आखिर नया भारत कैसा होगा? समय-समय पर इस नये भारत को शब्दबद्ध करने की कोशिश की गयी है. लेकिन, संभवत: इस नये भारत की सबसे साकार अभिव्यक्ति रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में होती है. टैगोर एक ऐसे देश का स्वप्न देखते हैं-
‘जहां दिमाग भय रहित है और सिर गर्व से ऊंचा है/ जहां ज्ञान मुक्त है/ जहां दुनिया संकीर्ण दीवारों से विखंडित नहीं हुई है/ जहां शब्द, सच्चई की गहराई से निकलते हैं / जहां अथक संघर्ष पूर्णता की ओर ले जाता है/ जहां तर्क की धारा मृत रूढ़ियों में गुम नहीं हुई है/ जहां दिमाग सतत विस्तार लेते विचार और क्रियाओं के सहारे आगे बढ़ता जाता है/ हे परमपिता! स्वतंत्रता के उस स्वर्ग में मेरे देश को ले चलो..’
टैगोर की कल्पना में रचा-बसा यह भारत मुक्त ज्ञान से ही संभव है. कहा गया है-‘सा विद्या या विमुक्तये’ यानी ज्ञान वह है, जो मुक्त करता है. टैगोर की कविता में जिस देश की कल्पना की गयी है, वह मुक्त करनेवाले ज्ञान से ही मुमकिन है. मुक्त करनेवाला ज्ञान, यानी दमघोंटू रूढ़ियों से आजाद करनेवाला, असमानता के बंधन से मुक्त करनेवाला ज्ञान. निराला पर टैगोर का गहरा प्रभाव है. ऐसे में यह अनायास नहीं है कि नये भारत के निर्माण के लिए निराला सरस्वती की ओर मुखातिब होते हैं. उनसे यह आहृवान करते हैं कि हे मां! देश में स्वतंत्रता का अमृत मंत्र भर दो..देश में प्रकाश की ऐसी धारा बहा दो, जो सारी बुराइयों, पापों का नाश करनेवाली हो..वे सरस्वती से देश की जड़ता भंग करने और देश में नयी गति, नया ताल देने का आहृवान करते हैं. हिंदी के प्रख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं,‘यहां स्वतंत्रता शब्द का इस्तेमाल बहुत महत्वपूर्ण है. यह पहली बार है, जब ज्ञान को स्वतंत्रता से जोड़ा गया है. स्वतंत्रता बहुत व्यापक अवधारणा है, वह स्वयं ब्रह्ना है. यह सब कुछ को अपने में समाहित कर लेती है.’
सवाल है कि क्या हमारे समाज में ऐसा ज्ञान मौजूद है? क्या यह ज्ञान हमें स्वतंत्र करता है? क्योंकि बिना स्वतंत्र हुए निर्माण संभव नहीं है. हमारे समय में ज्ञान के जो स्नेत मौजूद हैं, क्या हमें ऐसे ज्ञान की ओर ले जाते हैं? बात पहले अगर ज्ञान के स्नेत तक पहुंच की जाये, तो आंकड़ों से उभरनेवाली तसवीर बहुत उत्साहजनक नहीं है. भारत में अभी भी ज्ञान तक हर किसी की पहुंच संभव नहीं हो सकी है. मसलन, भारत की 65 फीसदी ग्रामीण आबादी के लिए देश में सिर्फ 20 फीसदी कॉलेज हैं. शिक्षा पर सरकारी खर्च बढ़ाने की तमाम मांगों के बावजूद भारत शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का महज 3.3 प्रतिशत ही खर्च करता है.
जबकि शिक्षाविदों के अनुसार यह जीडीपी का छह प्रतिशत होना चाहिए. स्कूल शिक्षा की बात करें, तो 11वीं पंचवर्षीय योजना में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के स्कूलों में ड्रापआउट दर को 50 फीसदी से घटा कर 20 फीसदी करने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन, स्कूलों तक पहुंच लगभग 100 फीसदी होने के बाद भी ड्रापआउट दर 40 फीसदी के उच्च स्तर पर बनी हुई है. हालत यह है कि 13 फीसदी बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद माध्यमिक स्कूलों में दाखिला नहीं लेते हैं. मानव संसाधन विकास मंत्रलय की रिपोर्ट के मुताबिक 2009 में बच्चों में ड्रापआउट की दर 25 फीसदी थी. यह सबको शिक्षा देने के लक्ष्य के अधूरे रह जाने की दुखद दास्तां सुनाता है. शिक्षा के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल उसकी गुणवत्ता का है. सवाल है कि हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में जो शिक्षा दी जा रही है, क्या वह व्यक्ति निर्माण और देश निर्माण की जरूरतों को पूरा करनेवाली है? यूजीसी के वर्ष 2011 के आंकड़े बताते हैं कि देश के 68 फीसदी विश्वविद्यालय और 91 फीसदी महाविद्यालय गुणवत्ताविहीन हैं. स्कूली शिक्षा का स्तर तो और भी दयनीय है. 2012 में शिक्षकों के लिए आयोजित टेट परीक्षा में सिर्फ 14 प्रतिशत शिक्षक ही पास हो पाये. ऐसे शैक्षणिक माहौल में स्कूलों और महाविद्यालयों से देश का निर्माण करनवाली सक्षम पीढ़ी तैयार करने की कल्पना करना बेमानी ही है.
लेकिन, इससे भी चिंताजनक यह है कि भारत के विश्वविद्यालय ज्ञान के केंद्र से ज्यादा डिग्री बांटने के सेंटर बन गये हैं. पिछले साल डूटा अध्यक्ष नंदिता नारायण से जब मैंने यह सवाल किया था, तब उन्होंने इससे सहमति जताते हुए कहा था, ‘विश्वविद्यालयों की कल्पना एक ऐसी जगह के तौर पर ही हो सकती है, जो सवाल पूछना सिखाए, जो आसपास हो रही घटनाओं के विश्लेषण की ताकत दे.’ जब हमारे विश्वविद्यालय छात्र निर्माण की अपनी भूमिका को नहीं निभा पा रहे हैं, तो उन विश्वविद्यालयों से निकलनेवाली पीढ़ी से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है?
हमारे समय में ज्ञान का दूसरा और बेहद महत्वपूर्ण स्नेत इंटरनेट है. तमाम दावों के बावजूद इसका लोकतंत्र अभी संकुचित है. आज यह बात महसूस की जा रही है कि सूचना क्रांति मुक्ति से ज्यादा मुक्ति का भ्रम पैदा कर रही है. वह हमारे सरोकारों और बहसों को बाजारोन्मुख दिशा देने की कोशिश कर रही है. विचारवान समाज की जगह, बाजार द्वारा प्रचारित विचारों का आग्रही समाज बना रही है.
यहां सबसे अहम बात यह है कि हमारे समय में सूचना को ज्ञान का पर्यायवाची मान लिया गया है. सूचना, ज्ञान की दिशा में बढ़ने का पहला कदम तो हो सकती है, लेकिन वह खुद उपलब्धि नहीं है. यह निश्चित तौर पर वह ज्ञान नहीं है, जो परंपराओं पर संदेह करना सिखाता है, वैज्ञानिक चेतना देता है, सृजन की प्रेरणा देता है, जबकि इसका पहला लक्ष्य यही होना चाहिए.
तो चलिए, विद्या की देवी सरस्वती की वंदना करते हुए हम उनसे इसी ज्ञान का वरदान देने का आह्वान करें. ऐसा ज्ञान, जो मुक्त हो और मुक्त करनेवाला. इसी ज्ञान से नये भारत का निर्माण हो सकता है.
सखि, वसंत आया!
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया
सखि, वसंत आया!
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर तरु -पतिका,
मधुप-वृंद बंदी
पिक-स्वर नभ सरसाया
सखि, वसंत आया!
लता-मुकुल हार
गंध-भार भर,
बही पवन बंद मंद मंदतर
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया
सखि, वसंत आया!
आवृत सरसी उर सरिसज उठे
केशर के केश कली के छुटे
स्वर्ण शस्य अँचल
पृथ्वी का लहराया
सखि, वसंत आया!
* सूर्यकांत त्रिपाठी निराला