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‘आपको झकझोर कर रख देगी पिंक’

मयंक शेखर फ़िल्म समीक्षक फ़िल्म: पिंक निर्देशक: अनिरुद्ध रॉय चौधरी कलाकार: अमिताभ बच्चन, तापसी पन्नू रेटिंग: **** आप इस फ़िल्म को हिंदी फ़िल्मों की कतार में कहां रखेंगे? जैसे मिसाल के तौर पर मैं इसकी तुलना 1993 में रिलीज़ हुई राजकुमार संतोषी की फ़िल्म दामिनी से करना चाहूंगा. उस फ़िल्म की कथा वस्तु भी कुछ-कुछ […]

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फ़िल्म: पिंक

निर्देशक: अनिरुद्ध रॉय चौधरी

कलाकार: अमिताभ बच्चन, तापसी पन्नू

रेटिंग: ****

आप इस फ़िल्म को हिंदी फ़िल्मों की कतार में कहां रखेंगे? जैसे मिसाल के तौर पर मैं इसकी तुलना 1993 में रिलीज़ हुई राजकुमार संतोषी की फ़िल्म दामिनी से करना चाहूंगा.

उस फ़िल्म की कथा वस्तु भी कुछ-कुछ पिंक जैसी ही है. ‘दामिनी’ इतनी असरदार फ़िल्म थी कि साल 2012 में दिल्ली में हुए भयानक गैंगरेप की पीड़ित को हमने ‘दामिनी’ नाम दिया था.

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क्या ‘पिंक’ भी दर्शकों के दिलो-दिमाग़ पर दामिनी जैसा ही असर छोड़ पाएगी? ईमानदारी से कहूं तो मुझे लगता है पिंक, दामिनी से भी ज़्यादा प्रभावशाली फ़िल्म है.

ऐसा क्यों? क्योंकि फ़िल्म में दिखाया गया ख़ौफ़नाक हादसा हम में से किसी के साथ भी हो सकता है.

लेकिन फ़िल्म में और भी बहुत कुछ है जो आपको झकझोर कर रख देगा.

बेहतरीन बैकग्राउंड स्कोर, ज़बरदस्त डायलॉग, संवादों के बीच-बीच में ख़ामोश लम्हे, कहानी के रोमांच और तनाव को बड़ी ख़ूबसूरती से बढ़ाते हैं.

दर्शक हर पल सोचता रहता है कि अगले पल क्या होने वाला है.

फ़िल्म का थीम एक मनहूस रात के इर्द गिर्द घूमती है जब तीन लड़कियां अपने आपको सूरजकुंड के एक रिसॉर्ट में तीन लड़कों के साथ पाती हैं.

उसके बाद एक लड़का बुरी तरह से ज़ख़्मी हो जाता है.

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फ़िल्म का प्लॉट दिल्ली-एनसीआर बेस्ड है.

पिंक, आंशिक सामंतवादी सोच, आंशिक मॉडर्न, सत्ता के नशे में चूर नेताओं से भरी और महिलाओं के लिए बेहद असुरक्षित मानी जाने वाली भारत की राजधानी दिल्ली को पर्दे पर बखूबी तरीके से पेश करती है.

मैं जानता हूं कि दिल्ली के लोग इस बात से आहत होंगे कि कुछ लोगों की वजह से पूरे शहर को बदनाम नहीं करना चाहिए.

वो इसे दिल्ली के साथ नाइंसाफ़ी कहेंगे.

हां, मैं भी दिल्ली में पला-बढ़ा हूं लेकिन सच तो ये है कि मेरी एक भी महिला मित्र ऐसी नहीं है जिसे कभी ना कभी, किसी ना किसी प्रकार के यौन या शारीरिक शोषण का सामना ना करना पड़ा हो.

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इनमें से ज़्यादातर महिलाएं वो हैं जिन्हें पब्लिक प्लेस पर अजनबियों ने निशाना बनाया है.

फ़िल्म की तीन प्रमुख पात्र, मिडिल क्लास, कामकाज़ी महिलाएं हैं जो एक पॉश कॉलोनी में साथ में रहती हैं.

इन तीन लड़कियों (तापसी पन्नू, कीर्ति कुल्हरी, आंद्रिया) में से एक दिल्ली की रहने वाली है, एक लखनऊ की और एक लड़की पूर्वोत्तर भारत की है. इनके लिए दिल्ली में एक ख़ास किस्म का शब्द बोला जाता है.

ये तीनों, अपने पैरों पर खड़ी आत्मनिर्भर लड़कियां हैं.

इस तरह की लड़कियों को देखने का सबका अलग-अलग नज़रिया है.

आत्मविश्वास से भरी, मौज मस्ती कर अपनी ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाने वाली लड़कियों को दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे भारत में जिस तरह से देखा जाता है वो हम सब जानते हैं.

कहा जा सकता है कि फ़िल्म के पुरुष किरदार बिलकुल ‘दिल्ली के मर्दो’ जैसे हैं.

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चाहे वो तीन रईसज़ादों का किरदार निभाने वाले (अंगद बेदी, विजय वर्मा, रसूल टंडन) हों या दूसरे किरदार.

जैसे दामिनी में सनी देओल, मीनाक्षी शेषाद्रि का केस लड़ते हैं, उसी तरह से इस फ़िल्म में अमिताभ बच्चन ने एक रिटायर्ड वकील की भूमिका निभाई है जो न्याय की ख़ातिर वापस अदालत में लौटता है.

पिंक हमें सोचने पर मजबूर करती है कि अब भी ज़्यादातर मर्द, औरतों के बारे में कैसी राय रखते हैं.

ये बात चिंता में डालने वाली है कि अब भी औरतें को उनके कपड़ों, उनकी पसंदों, उनके दोस्तों, उनके खान-पान वगैरह के आधार पर लोग आंकते हैं.

ये सच है कि दफ़्तरों में, सार्वजनिक जीवन में औरतों की भागीदारी बढ़ रही है लेकिन अब भी उनके प्रति हमारी सोच में कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ है.

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