आरक्षण की नीति अब बन गयी है आरक्षण की राजनीति

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने हाल में यह बयान देकर राजनीतिक हलकों में खलबली मचा दी कि आरक्षण का आधार जातिगत नहीं, आर्थिक होना चाहिए. हालांकि इस मुद्दे पर बहस आजादी के बाद से ही जारी है और बुद्धिजीवियों में कोई एक राय नहीं बन पायी है. हमारे संविधान में आरक्षण की अवधारणा और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 16, 2014 10:21 AM

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने हाल में यह बयान देकर राजनीतिक हलकों में खलबली मचा दी कि आरक्षण का आधार जातिगत नहीं, आर्थिक होना चाहिए. हालांकि इस मुद्दे पर बहस आजादी के बाद से ही जारी है और बुद्धिजीवियों में कोई एक राय नहीं बन पायी है. हमारे संविधान में आरक्षण की अवधारणा और अब तक की उपलब्धियों पर संविधानविद् डॉ सुभाष कश्यप से बात की वसीम अकरम ने..

आरक्षण का आधार जातिगत होना चाहिए या आर्थिक, इसे लेकर फिर से बहस छिड़ गयी है. कुछ लोग मानते हैं कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधानसम्मत नहीं है. एक संविधानविद होने के नाते क्या कहेंगे आप?

पहली बात तो यह कि इसके लिए हमें तथ्यों को देखना होगा. यानी सबसे पहले यह देखना होगा कि राजनीतिक दलों द्वारा आरक्षण देने की बात कहने की कवायद के पीछे का उद्देश्य क्या है. उद्देश्य नीतिगत है, या राजनीतिगत है. लेकिन उससे पहले संविधान की बात करते हैं.

संविधान में आरक्षण का प्रावधान एक निश्चित समयावधि के लिए किया गया था. एक विशेष समुदाय के लिए किया गया था, जिसे माना गया था कि यह समुदाय सदियों से प्रताड़ित, दबा-कुचला रहा है. यानी अनुसूचित जाति (दलित) और अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) के लोगों को सदियों से दबाया जाता रहा है. इनके लिए आरक्षण का प्रावधान जब संविधान सभा में पास हुआ, तो इस अमेंडमेंट के साथ पास हुआ था कि यह आरक्षण निश्चित समय के लिए होगा और इसमें किसी और समूह को जोड़ा नहीं जायेगा. उस वक्त सदन के अंदर इसका पुरजोर विरोध भी हुआ कि यह प्रावधान समानता की नीति के खिलाफ है और अलोकतांत्रिक है. डॉ भीमराव आंबेडकर ने भी जोर देकर कहा था,‘आरक्षण का यह प्रावधान किसी और समुदाय पर लागू नहीं होगा, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि यह बदनुमा धब्बा भारतीय समाज पर हमेशा के लिए लगा रहे.’ तो यह नीति थी दलितों-आदिवासियों को समाज में बराबरी के स्तर पर लाने की, क्योंकि वे समाजिक दृष्टि से नेपथ्य में थे.

लेकिन आरक्षण लागू होने के इतने अरसे के बाद भी दलितों-आदिवासियों को पूरी तरह से समाज की मुख्यधारा में नहीं लाया जा सका. आखिर क्या वजह रही इसके पीछे?
दरअसल, संविधान की नीति और आरक्षण का प्रावधान तो सही है, लेकिन समय के साथ यह नीति न रह कर राजनीति बन गयी. सियासी मकसदों से इसका इस्तेमाल होने लगा. मौजूदा वक्त में आरक्षण का मामला वोट बैंक की राजनीति में तब्दील हो गया है. वोट बैंक की इस राजनीति में दलितों-आदिवासियों का भला करने की मंशा किसी में नहीं है. राजनीतिक दल हों या नेता, उनकी मंशा भला करने की नहीं, इस बात की होती है कि क्या करने से किस समुदाय से कितने वोट मिल जायेंगे.

आरक्षण पर वोट बैंक की राजनीति कब से शुरू हुई थी?
आरक्षण पर वोट बैंक की राजनीति की शुरुआत 1967 के बाद हुई थी. इससे पहले कांग्रेस ताकतवर पार्टी मानी जाती थी. ऐसा माना जाता था कि कांग्रेस का राजनीति पर एकाधिकार है. लेकिन 1967 में यह एकाधिकार बिखरता नजर आया और बहुत से राज्यों में संयुक्त मोरचा की सरकारें बनीं. तभी से यह जुगत शुरू हुई कि किस तरह से वोट बंटोरे जायें. यहीं से समाज को बांट कर राजनीतिक लाभ लेने कोशिशें शुरू हुईं और पूरी की पूरी राजनीति जाति-धर्म पर आधारित होने लगी. इस बात का ध्यान दिये बिना कि आरक्षण के जरिये बराबरी का हक उन्हें दिया जाये, जो पिछड़े हैं. जिन्हें मूलभूत मानवीय सुविधाएं नहीं मिल रही हैं, उन्हें वो सुविधाएं दी जायें, जो पढ़े-लिखे नहीं हैं उन्हें शिक्षित किया जाये वगैरह-वगैरह. इसकी जगह इस बात पर ध्यान दिया जाने लगा कि जाटों को दलितों में शामिल कर लिया जाये, तो जाट वोट पक्का हो जायेगा. अन्य पिछड़ी जाति जैसी कोई अवधारणा पहले नहीं थी, लेकिन इसकी शुरुआत बिहार से हो गयी. फिर अति पिछड़ों का नारा लगाया गया. इस तरह से अलग-अलग जातियों-समुदायों को लुभाने के लिए राजनीति की शुरुआत हुई, जो आज भी बदस्तूर जारी है. जैसे-जैसे सरकार की सत्ता कमजोर होती गयी, वैसे-वैसे राजनीति में ये सारी विसंगतियां आती गयीं.

तो क्या यही वजह है कि दलितों में भी दलित की एक नयी अवधारणा ने जन्म लिया, जिसके परिणास्वरूप आज दलित मुसलिमों की भी बात की जाती है?
बिल्कुल! अब यह हो गया कि समूहों में भी आरक्षण का लाभ पाने को लेकर प्रतियोगिता बढ़ने लगी. और लोगों ने मांग करनी शुरू कर दी, एक कहता है कि मैं सबसे ज्यादा पिछड़ा हूं, दूसरा कहता है, मैं सबसे ज्यादा पिछड़ा हूं, और तीसरा कहता कि मैं तो अति-पिछड़ा हूं. राजस्थान का गुजर्र-आंदोलन इसका एक उदाहरण है, जिन्होंने खुद को एसटी में शामिल किये जाने को लेकर आंदोलन किया था. आरक्षण की संवैधानिक कसौटी यानी दलितों-आदिवासियों के उत्थान से कहीं दूर अब जाति-धर्म के आधार पर आरक्षण ने जन्म ले लिया है.

अब तो दलित समूह भी यह मांग करने लगे हैं कि मुसलिम और ईसाई समुदायों के दलितों को भी आरक्षण मिले. जाहिर है, धर्म का मामला है तो यह शायद संविधानसम्मत न हो. आपकी राय क्या होगी?
हां! वजह तो यही है. लेकिन जिन्हें पहले से ही आरक्षण मिल रहा है, उन्हें तो यही लगेगा न कि अब मुसलिम दलित और ईसाई दलित भी उनका हिस्सा मारेंगे. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है कि 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण न दिया जाये. जाहिर है, 50 प्रतिशत में से ही उन्हें भी देना पड़ेगा. इसलिए किसी नये समुदाय को आरक्षण के दायरे में शामिल करने का मतलब यह हुआ कि अब पिछड़े ही पिछड़ों के दुश्मन बन गये और एक सामाजिक वैमनस्यता उभर गयी. इस ऐतबार से मौजूदा आरक्षण नीति में कुछ सुधार कर इसे बढ़ाया जा सकता है, लेकिन अभी इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता. कर्नाटक और तमिलनाडु में 50 प्रतिशत से ज्यादा के आरक्षण की व्यवस्था है. हो सकता है कि अन्य राज्यों में मांग को देखते हुए ऐसा करना पड़े. लेकिन वहीं सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि अगर 50 प्रतिशत से ज्यादा का आरक्षण दिया जायेगा, तो यह फिर आरक्षण कहां रहा.

अल्पसंख्यक समुदायों को भी आरक्षण की मांग अरसे से होती रही है. रंगनाथ मिश्र आयोग ने भी इसकी सिफारिश की थी. यह किस प्रक्रिया के तहत संभव है?
अल्पसंख्यकों के लिए देश में बहुत सी योजनाएं बनायी गयी हैं, फिर भी क्या वजह रही कि आजादी के इतने बरसों बाद भी उनकी स्थिति वैसी नहीं सुधरी जैसी कि सुधरनी चाहिए थी. सबसे पहले तो इस बात का पुष्टिकरण बहुत जरूरी है, क्योंकि हमारे देश के नेता हमेशा यही चाहते रहे हैं कि लोग पिछड़े रहें और अशिक्षित रहें, ताकि वे लोकलुभावन राजनीति करते रहें. यह किसी एक पार्टी के बारे में नहीं कहा जा सकता, लगभग सभी पार्टियों का यह निहित स्वार्थ हो गया कि अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को बैकवर्ड ही रखा जाये, ताकि उनका शोषण किया जा सके. वरना कोई वजह नहीं कि आजादी के इतने साल बाद भी देश का कोई तबका जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहे. आजादी के समय जो हालत दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की थी, आज उससे भी बदतर स्थिति है उनकी. यह विभिन्न सर्वेक्षणों से साबित भी हो चुका है. फिर तो आरक्षण दे भी दिया जाये तो, उनका क्या भला होनेवाला है, इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है. नेताओं में इच्छाशक्ति का अभाव है और सच कहें तो उनकी मंशा ही नहीं है इससे इतर सोचने की. तकरीबन सभी समुदायों का नेतृत्व करनेवालों का भी यही इरादा रहता है.

क्या क्रीमी लेयर की अवधारणा आरक्षण की मूल भावना के विपरीत है?
हम लोगों ने ‘प्रोग्रेसिव डिरिजर्वेशन’ का सुझाव दिया था. इसका अर्थ यह है कि अगर कोई प्रशासनिक अधिकारी बन जाता है, तो उसके परिवार को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ‘क्रीमी लेयर’ की संज्ञा दी थी. हर हाल में यह संविधान में दर्ज आरक्षण की नीति की मूल भावना के खिलाफ है. जहां तक एससी/एसटी में क्रीमी लेयर की बात है, तो सुप्रीम कोर्ट का आदेश है. देखना यह है कि इस पर कैसी सियासत होती है.

Next Article

Exit mobile version