दो पाटों के बीच फंसा यूक्रेन

यूक्रेन में तीन महीने से जारी हिंसा में भले ही कमी आयी हो, लेकिन अस्थिरता इतनी बढ़ गयी है कि एक छोटी सी चूक इस मुल्क की तकदीर बिगाड़ सकती है. संसद की ओर से राष्ट्रपति विक्टर यनुकोविच को अपदस्थ करने और उनकी कट्टर प्रतिद्वंद्वी पूर्व प्रधानमंत्री युलिया तिमोशेंको को रिहा करने से राजनीतिक माहौल […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 25, 2014 7:21 AM

यूक्रेन में तीन महीने से जारी हिंसा में भले ही कमी आयी हो, लेकिन अस्थिरता इतनी बढ़ गयी है कि एक छोटी सी चूक इस मुल्क की तकदीर बिगाड़ सकती है. संसद की ओर से राष्ट्रपति विक्टर यनुकोविच को अपदस्थ करने और उनकी कट्टर प्रतिद्वंद्वी पूर्व प्रधानमंत्री युलिया तिमोशेंको को रिहा करने से राजनीतिक माहौल एकाएक बदल गया है. जहां यनुकोविच भूमिगत हो गये, वहीं तिमोशेंको प्रदर्शनकारियों का नेतृत्व करने की कोशिश कर रही हैं.

जेल से रिहा होने के बाद वे सीधे राजधानी कीव के इंडिपेंडेंस स्क्वेयर पर पहुंचीं, जहां बड़ी संख्या में आंदोलनकारी डटे हुए हैं. अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि अभी हमारा काम पूरा नहीं हुआ है. जब तक हमें मंजिल नहीं मिल जाती प्रदर्शनकारियों को यहीं डटे रहना होगा. अपने लिए राजनीतिक जमीन तैयार कर रहीं तिमोशेंको इसके अलावा बोलतीं भी क्या? लेकिन लोगों पर इसका खास असर नहीं हुआ, बल्कि आंदोलन में शामिल एक बड़ा तबका उनके इंडिपेंडेंस स्क्वेयर आने से ही खिन्न हो गया. उन्होंने न केवल तिमोशेंको के खिलाफ नारेबाजी की, बल्कि यह कहते हुए आंदोलन का बहिष्कार कर दिया कि एक भ्रष्ट नेता उनका नेतृत्व नहीं कर सकता.

गौरतलब है कि जब वे सत्ता में थीं, तो उन पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे. यहां तक कि उन्हें जेल भी जाना पड़ा. ऐसे में 25 मई को प्रस्तावित चुनाव से किसी मजबूत राजनीतिक नेतृत्व के उभार की कल्पना करना बेमानी है. फिलहाल देश की कमान विपक्षी सांसद अरसेन अवाकोव के पास है, जिन्हें संसद ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त किया है. सरकार विरोधी प्रदर्शन का हिस्सा रहे अवाकोव के लिए यह सबसे बड़ी कामयाबी होगी कि वे हिंसा पर काबू रखें, ताकि निष्पक्ष व शांतिपूर्ण चुनाव हो सकें.

* इधर जाएं या उधर?

यूक्रेन में जारी इस फसाद की जड़ यूरोपियन यूनियन के साथ एक संधि है, जिस पर राष्ट्रपति विक्टर यनुकोविच ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया. इस पर पूरे देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई. विपक्ष ने आरोप लगाया कि यनुकोविच ने रूस के दबाव में आकर यह फैसला लिया. लोगों ने भी विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए प्रदर्शन शुरू कर दिया. ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि इस संधि में आखिरकार ऐसा क्या है कि राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किये और उनके इस कदम से लोग इतने नाराज हुए कि मरने-मारने पर उतारू हो गये.

दरअसल, यूक्रेन की सरकार पिछले कई सालों से यूरोपियन यूनियन के साथ लैंडमार्क ट्रेड डील के प्रयास कर रही थी, लेकिन पिछले साल नवंबर में जब यूरोपीय यूनियन इसके लिए राजी हुआ, तो राष्ट्रपति यनुकोविच अचानक पीछे हट गये. यदि यह संधि हो जाती तो यूक्रेन के नागरिक यूरोपीय संघ के देशों में बिना वीजा के यात्रा कर सकते थे. ऐसा नहीं है कि राष्ट्रपति लोगों को मिलनेवाली इस सहूलियत से अनजान थे, लेकिन उन्होंने रूस को खुश रखने के चक्कर में समूचे देश की नाराजगी मोल ले ली.

यूक्रेन पर रूस का दबाव जगजाहिर है. यूक्रेन ने जब भी यूरोपीय यूनियन के नजदीक जाने की कोशिश की, रूस ने कड़े कदम उठाने से परहेज नहीं किया. कभी गैस की आपूर्ति बंद की, तो कभी उत्पादों की बिक्री. इससे यूक्रेन को बड़ा आर्थिक नुकसान हुआ. यदि राष्ट्रपति यनुकोविच लैंडमार्क ट्रेड डील पर हस्ताक्षर करते, तो रूस यूक्रेन पर कोई न कोई आर्थिक प्रतिबंध जरूर लगाता. ऐसी स्थिति में जब यूक्रेन की अर्थव्यवस्था डांवाडोल हालत में है, यनुकोविच ने रूस को नाराज करना ठीक नहीं समझा.

* रूस की राजनीति

यूरोपियन यूनियन में अपनी साख बनाने के लिए राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन कई देशों का गंठबंधन बनाना चाहते हैं. वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि यूक्रेन की मदद लिए बिना यह संभव नहीं है. इसलिए वे किसी भी कीमत पर यूक्रेन को रूस से दूर नहीं होने देना चाहते. यहां तक कि उन्हें यूक्रेन को अपने नियंत्रण में रखने के लिए नकदी झोंकने से भी परहेज नहीं है. यूरोपीय यूनियन के साथ लैंडमार्क ट्रेड डील की बात शुरू होते ही उन्होंने यूक्रेन के लिए खजाना खोल दिया.

राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने यूक्रेन के 15 अरब डॉलर (करीब 93 करोड़ रुपये) के कर्ज को यूरो बांड के रूप में खरीदा और उनको बेची जानेवाली गैस की कीमत को करीब एक-तिहाई तक कम कर दिया. उन्होंने यह मदद ऐसे समय पर की, जब यूक्रेन दिवालिया होने के कगार पर खड़ा था. यूक्रेन के प्रधानमंत्री माइकोला अजारोव ने उस समय यह कहा भी कि रूस की सरकार अगर समय पर मदद नहीं करती, तो देश दिवालिया हो जाता और सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाती. जब रूस ने यूक्रेन पर इतना बड़ा एहसान कर दिया, तो लैंडमार्क ट्रेड डील खटाई में पड़ गयी थी.

राष्ट्रपति विक्टर यनुकोविच ने इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया. यह रूस के लिए अहम उपलब्धि थी, क्योंकि रूस के लिए यूक्रेन का साथ होना सामरिक और आर्थिक दृष्टि से अनिवार्य है. गौरतलब है कि रूस द्वारा यूरोप को आपूर्ति की जानेवाली गैस का 90 प्रतिशत भाग यूक्रेन से होकर जाता है. साथ ही, रूस की नौसेना का एक बड़ा दस्ता यूक्रेन के बंदरगाह पर तैनात है, जिसे रूस ने लीज पर लेकर रखा हुआ है. रूस को यह आशंका कई वर्षों से है कि यदि यूक्रेन यूरोपीय यूनियन के करीब जाता है, तो उसे भविष्य में भारी आर्थिक नुकसान झेलना पड़ेगा.

* यूरोप का स्वार्थ

यूरोपीय संघ भी यूक्रेन पर इतना फोकस इसलिए कर रहा है, क्योंकि वह उसके कूटनीतिक हितों की पूर्ति करता है. वह यूक्रेन के जरिये रूस को भारी नुकसान पहुंचा सकता है. यही वजह है कि यूरोपीय संघ ने लैंडमार्क ट्रेड डील में इतनी दिलचस्पी दिखायी. जब राष्ट्रपति विक्टर यनुकोविच ने इस पर हस्ताक्षर करने की बजाय रूस से आर्थिक सहायता ले ली, तो यूरोपीय संघ की ओर से तीखी प्रतिक्रिया आयी.

संघ के अध्यक्ष लिथुआनिया ने बयान दिया कि रूस से आर्थिक सहायता लेकर यूक्रेन ने सिर्फ एक आर्थिक संकट को कुछ समय के लिए टाला है. यूक्रेन की सरकार ने भविष्य के बारे में नहीं सोचा. यही नहीं, उन्होंने लैंडमार्क ट्रेड डील पर यूक्रेन के साथ महीनों से चली आ रही बातचीत को भी तुरंत स्थगित कर दिया. वहीं, स्वीडन के विदेश मंत्री ने ट्वीट किया कि ह्यअचानक रूस से इतना कर्ज लेने की वजह से यूक्रेन आर्थिक सुधारों और यूरोपीय यूनियन के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से काफी पिछड़ जायेगा.

जर्मनी की चांसलर अंगेला मर्केल ने भी उनकी हां में हां मिलाते हुए यूरोपीय यूनियन के साथ समझौता न हो पाने पर अफसोस जताया और कहा कि संघ की ओर से बातचीत के रास्ते अभी भी खुले हैं. यही नहीं, इस प्रकार की खबरें भी आ रही हैं कि यूरोपीय यूनियन ने ही यूक्रेन के विपक्षी नेताओं को आंदोलन करने के लिए उकसाया. उल्लेखनीय है कि पश्चिमी यूक्रेन के कई नेताओं के यूरोपीय यूनियन में शामिल देशों की सरकारों से अच्छे संबंध हैं. राष्ट्रपति विक्टर यनुकोविच विरोधी आंदोलन में भी ये ही नेता शामिल हैं. रूस के राष्ट्रपति भी यह कह चुके हैं कि यूक्रेन का आंदोलन जनता का आंदोलन नहीं है. यह सब पश्चिमी मुल्कों का किया-धरा है.

* राजनीतिक नाकामी

यूक्रेन में फैली ताजा हिंसा के लिए देश की पूरी राजनीतिक जमात जिम्मेदार है. राष्ट्रपति विक्टर यनुकोविच का दोष सबसे ज्यादा है, क्योंकि उन्होंने पहले तो लैंडमार्क ट्रेड डील पर सहमति जतायी और बाद में इससे मुकर गये. विपक्ष को उनके इस आचरण का विरोध करने का पूरा हक था, लेकिन वे तो हिंसा पर उतारू हो गये. राजधानी कीव के इंडिपेंडेंस स्क्वेयर पर शांति से प्रदर्शन कर रहे हजारों लोगों को भड़काने में विपक्ष के नेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी. लोग इतने उग्र हो गये कि उन्होंने कई सरकारी इमारतों पर कब्जा कर लिया.

इस स्थिति में राष्ट्रपति यनुकोविच को विवाद का कोई राजनीतिक हल निकालने की कोशिश करनी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने बातचीत करने की बजाय सख्त रुख अपनाने की चूक की. उन्होंने देश में किसी भी तरह के विरोध प्रदर्शनों पर रोक संबंधी कानून लागू कर दिया. इसके तहत प्रदर्शनकारी हैलमेट, मास्क नहीं पहन सकते. कहा गया कि ऐसा करनेवाले को पांच साल की सजा दी जायेगी. इससे माहौल और खराब हो गया.

प्रदर्शनकारी हमलावर बन गये, जिन्हें रोकने के लिए सेना को गोलियां चलानी पड़ीं. इसमें कई लोगों की जान गयी. राष्ट्रपति यनुकोविच को शायद यह लगता था कि गोली के डर से प्रदर्शनकारी भाग जायेंगे, लेकिन हुआ इसके विपरीत. जैसे-जैसे सेना ने सख्ती बढ़ायी, वैसे-वैसे लोग और भी उग्र होते गये. स्थिति नियंत्रण से बाहर होते देख राष्ट्रपति ने विपक्ष से बातचीत की पेशकश की. कुछ नेताओं ने इस पर हामी भी भरी, लेकिन बात बनी नहीं.

इस बीच राष्ट्रपति ने प्रदर्शनकारियों को सरकारी इमारतें खाली करने की शर्त पर माफी देने का शिगूफा छोड़ा, परंतु यह भी कारगर नहीं रहा. अंतत: संसद ने उन्हें अपदस्थ कर दिया और लोगों ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया. फिलहाल यनुकोविच कहां हैं, इस बात की जानकारी किसी को नहीं है.

* अधर में भविष्य

यूक्रेन की संसद ने राष्ट्रपति विक्टर यनुकोविच को अपदस्थ कर चुनावों की घोषणा कर दी है, लेकिन नयी सरकार भी शायद ही इस समस्या का समाधान कर पाये. असल में यूक्रेन में रूस और यूरोपीय यूनियन को लेकर दो प्रकार के मत हैं. यहां की आधी जनता यूरोपियन यूनियन के पक्ष में है और आधी रूस के समर्थन में. देश का पूर्वी हिस्सा रूस का समर्थन करता है, जबकि पश्चिमी इलाकों के ज्यादातर लोग यूरोपीय यूनियन का समर्थन करते हैं. दरअसल, इस इलाके में ज्यादातर रोमन कैथोलिक हैं, जो यूक्रेनियन भाषा बोलते हैं. ये वे लोग हैं, जो कई सालों से रूस के विरोध में हैं और इनका झुकाव यूरोप की ओर है.

यूरोपीय संघ का समर्थन करनेवाले लोगों का नेतृत्व विपक्षी दल के तीन नेता- लिश्को, आर्सने यात्सेयुक और ओलेग यांगबुक कर रहे हैं. 25 मई को प्रस्तावित चुनाव में जीत किसी की भी हो, नयी सरकार के लिए ऐसा फॉर्मूला तलाशना टेढ़ी खीर होगा, जिससे दोनों पक्ष संतुष्ट हो जाएं. यह विडंबना ही है कि यूक्रेन में जो भी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पद पर रहा उसने देश की बजाय खुद के बारे में सोचा. यहां किसी भी नेता का दामन साफ नहीं है.

वर्ष 2004 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने चुनावों में धांधली कर राष्ट्रपति चुनावों में स्वयं की जीत सुनिश्चित करने का प्रयास किया, तो विपक्ष के नेतृत्व में हुए ऑरेंज रिवॉल्यूशन में लाखों की तादाद में जनता सड़कों पर उतरी. अंतत: प्रधानमंत्री यनुकोविच को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी और विपक्षी नेता युश्चेंको राष्ट्रपति बन गये, लेकिन वे भी जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरे. 2010 में जब चुनाव हुए, तो जनता ने फिर से यनुकोविच को सत्ता सौंप दी. तीन सालों में ही उनसे भी जनता का मोहभंग हो गया और वह फिर से उनके खिलाफ सड़कों पर है.

* बरबादी के कगार पर एक आबाद देश

पूर्व में रूस की सीमा से लगा हुआ और पश्चिम में यूरोपीय देशों से यूक्रेन पर कभी मंगोलों ने राज किया, तो कभी पौलेंड ने. 18वीं शताब्दी में रूस ने इसे अपने कब्जे में ले लिया. रूसी नेता स्टालिन ने यहां कृत्रिम अकाल पैदा करके 70 लाख किसानों को तबाह कर दिया और हजारों बुद्धिजीवियों को सामूहिक फांसी दे दी. द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर की सेना ने यूक्रेन से सोवियत संघ को खदेड़ा और तब लगभग 50 लाख यूक्रेन के नागरिक इस युद्ध में मारे गये.

नाजियों की हार के बाद सोवियत संघ ने यूक्रेन पर वापस कब्जा कर लिया. इन झंझावातों के बावजूद यूक्रेन ने कभी भी खुद को बिखरने नहीं दिया. कम ही लोगों को इस बात की जानकारी है कि दुनिया का सबसे पहला संविधान 1710 में यूक्रेन में बना. अमेरिका में भी इसके 77 साल बाद संविधान बना. 1991 में सोवियत संघ जब बिखरा तो यूक्रेन भी आजाद हो गया. उस समय स्वतंत्र यूक्रेन के पास 1,000 से ज्यादा परमाणु हथियार थे.

यदि वह इन हथियारों को अपने पास रखता, तो आज दुनिया की तीसरे नंबर की परमाणु शक्ति होता, लेकिन उसने इन्हें रूस को सौंप दिया. इसके बदले में यूक्रेन ने रूस से सुरक्षा और धन की गारंटी ली. रूस अपने इस वादे से कभी नहीं मुकरा, लेकिन यूक्रेन का झुकाव यूरोपीय यूनियन की ओर बढ़ता गया. आज रूस की तरफ धन है, तो यूरोप की तरफ प्रजातंत्र. रूस की तरफ आराम है, तो यूरोप की तरफ विकास के लिए संघर्ष. यूक्रेन जब तक इस भ्रम से बाहर नहीं निकलेगा, उसका भविष्य सवालों के घेरे में ही रहेगा.

* भारत के लिए यूक्रेन का रूस के साथ रहना अच्छा

यूक्रेन और भारत के बीच सोवियत संघ के जमाने से द्विपक्षीय संबंध हैं. सोवियत काल में यूक्रेन में सोवियत संघ का करीब 30 फीसदी रक्षा उद्योग मौजूद था, इसलिए भारत आज भी यूक्रेन पर कई तरह के सैनिक साजो-सामान के लिए निर्भर है. भारतीय वायुसेना ने तत्कालीन सोवियत संघ से 1980 के दशक के मध्य में 104 एएन-32 परिवहन विमान खरीदे थे. वायुसेना के पास अब तक इसका कोई विकल्प नहीं होने की वजह से इन विमानों को और आधुनिक बना कर इनकी आयु बढ़ाने में यूक्रेन भारत को अहम सहयोग दे रहा है. एएन-32 विमान ही भारतीय सेनाओं की रीढ़ माने जाते हैं, जिनकी मदद से दूरदराज के सीमांत इलाकों में सैनिक साजो-सामान व रसद की सप्लाई की जाती है.

परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भी यूक्रेन से भारत को बड़ी मदद मिलती है. यहां के परमाणु वैज्ञानिक रूस द्वारा बनाये गये कुडनकुलम परमाणु बिजली घरों में कार्यरत हैं. भारत ने 2012 में यूक्रेन के साथ परमाणु सहयोग समझौता भी किया. इनमें परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड और यूक्रेन की परमाणु एजेंसी के बीच परमाणु क्षेत्र में तकनीकी जानकारी का आदान प्रदान किया जायेगा. इसके तहत दोनों पक्ष परमाणु क्षेत्र से जुड़े नियम, सुरक्षा मानकों, डिजाइन, संचालन, परमाणु प्रतिष्ठानों को बंद करने, कचरा प्रबंधन और पर्यावरण पर प्रभाव जैसे क्षेत्रों में परस्पर सहयोग करेंगे. दोनों देशों के बीच सैन्य तकनीक, अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में सहयोग लंबे समय से जारी है. दोनों देशों के बीच फिलहाल 2.3 अरब डॉलर का आपसी व्यापार होता है.

हालांकि, यूक्रेन में जारी उथल-पुथल में भारत का कोई हाथ नहीं है, लेकिन स्थिति जितनी जल्दी नियंत्रित हो जाये, उतना अच्छा है. जहां तक यूक्रेन का रूस और यूरोपीय यूनियन के बीच फंसने का सवाल है, भारत के लिए अच्छा यह है कि यूक्रेन पर रूस का असर ज्यादा रहे. इसकी बड़ी वजह यह है कि यूरोपियन यूनियन के मुकाबले रूस भारत के हितों के बारे में ज्यादा सोचता है.

।। अवधेश आकोदिया ।।

(विदेश मामलों के जानकार)

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