इसरो: बैलगाड़ी से उपग्रहों की सेंचुरी तक

संजय मिश्रा बीबीसी हिंदी के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का सफर बैलगाड़ी से शुरू हुआ और आज उस मुकाम तक पहुंच गया है कि भारत एक साथ 104 उपग्रह अंतरिक्ष में भेजने में क़ामयाब हुआ है. इसरो की यात्रा भारत में अंतरिक्ष कार्यक्रमों के जनक माने जाने वाले डॉ विक्रम ए साराभाई की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 16, 2017 9:59 AM
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भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का सफर बैलगाड़ी से शुरू हुआ और आज उस मुकाम तक पहुंच गया है कि भारत एक साथ 104 उपग्रह अंतरिक्ष में भेजने में क़ामयाब हुआ है.

इसरो की यात्रा भारत में अंतरिक्ष कार्यक्रमों के जनक माने जाने वाले डॉ विक्रम ए साराभाई की सूझबूझ से शुरू हुई. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में उसका जन्म हुआ और वहां से शुरू होकर अंतरिक्ष कार्यक्रम बना, फिर इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन बना.

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भारत को अंतरिक्ष में भेजने वाली महिलाएं

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रॉकेट प्रोग्राम

सबसे पहले एक छोटा सा उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा गया उसके बाद रॉकेट बने. पहला रॉकेट फेल हुआ तो सैटेलाइट लॉन्च व्हिकल (एसएलवी) 3 रॉकेट बना जो क़ामयाब रहा.

इस क़ामयाबी में भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है. हमारे छोटे रॉकेट पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हिकल (पीएसएलवी) के जन्म से पहले एसएलवी 3 रॉकेट प्रोग्राम में कलाम साबह का बहुत बड़ा रोल था.

पहला रॉकेट फेल हो जाने के बाद उसमें सुधार के लिए जो कदम उठाए गए थे उसमें कलाम साहब का बहुत बड़ा योगदान था. इन लर्निंग स्टेप्स से इसरो ने बहुत कुछ सीखा.

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धीरे धीरे इसरो ने छोटे उपग्रह बनाए फिर बड़े उपग्रह बनाए और आज स्थिति ये है कि भारत अपने सारे संचार उपग्रह ख़ुद ही बनाता है. अर्थ इमेजिंग सैटेलाइट्स के क्षेत्र में भी भारत ने काफ़ी तरक़्क़ी की है. आज भारत के पास अर्थ इमेजिंग के ऐसे सैटेलाइट्स हैं जिनकी मदद से जहां पहले धरती में 6 मीटर दूरी तक की चीज़ें देखी जा सकती थीं, वहीं आज एक मीटर से कम दूरी तक की चीज़ें देखी जा सकती हैं.

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प्रधानमंत्रियों का सफ़र

ये यात्रा कठिन थी लेकिन इसमें सरकार की तरफ से बहुत समर्थन रहा है. इसरो के काम का प्रभार हमेशा प्रधानमंत्री के पास रहा है. 15 अगस्त, 1969 में जब इसरो की पैदाइश हुई तब से लेकर आज तक सिर्फ़ प्रधानमंत्री ही इस विभाग के मंत्री रहे हैं. इससे इसरो को बहुत फ़ायदा हुआ है.

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अर्थ इमेजिंग के जो सैटेलाइट (कार्टोसेट सिरीज़) अंतरिक्ष में भेजे गए हैं, उसकी क़ाबिलियत बहुत सटीक है. अगर प्रधानमंत्री आज चाहें तो अपने घर या दफ़्तर में बैठे हुए ये देख सकते हैं कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री या अमरीका के राष्ट्रपति के पार्किंग में कितनी गाड़ियां खड़ी हैं.

तो जो गाड़ियां गिन सकता है वो सुरक्षा के क्षेत्र में तैनात टैंक, हवाई जहाज़, हथियार भी गिन सकता है. इसी तरह जब भारत ने पाकिस्तान की सीमा में सर्जिकल स्ट्राइक्स किए थे तो उस अभियान में भी इसरो से मिली तस्वीरों ख़ासतौर से कार्टोसेट की तस्वीरों का भरपूर योगदान रहा.

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चंद्रयान और मंगलयान

साल 2008 में भारत ने पहली बार धरती से चांद का रूख़ किया था और चंद्रयान-1 के रूप में पहला इंटर प्लेनेटरी मिशन शुरू किया था. ये बहुत ही क़ामयाब अभियान रहा.

इसी अभियान से चांद पर पानी के कण हैं- पहली बार इसका पता लगाया जा सका, जो बहुत बड़ी खोज थी.

साल 1969 में पहली बार अमरीका के नील आर्मस्ट्रॉन्ग चांद की सतह पर उतरे. उसके बाद एक दर्जन से ज़्यादा अंतरिक्ष यात्री वहां जा चुके हैं. उन्होंने चांद पर पत्थरों को लात मारी, वहां से पत्थर के नमूने धरती पर लाए, चांद पर बहुत से खेल खिलवाड़ किए. लेकिन इतना कुछ करने के बावजूद अमरीकी स्पेस एजेंसी नासा को चांद पर पानी की मौजूदगी का पता नहीं लगा.

यह चंद्रयान-1 मिशन ही था जिसने चांद पर पानी खोजा और उसके बाद अन्य अंतरिक्ष अभियानों ने उसकी खोज की.

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इसी तरह साल 2013 में भारत ने मंगल ग्रह का रूख़ किया और पहला मिशन मंगलयान मंगल ग्रह पर भेजा. भारत के इस मिशन की क़ामयाबी यह थी कि मंगलयान मिशन पहली बार में ही मंगल ग्रह पर पहुंच गया.

अमरीका, रूस और चीन समेत कोई भी देश मंगल ग्रह पर अपनी पहली कोशिश में पहुंचने में सफल नहीं हो पाया था. मंगलयान मिशन का जीवन महज़ 6 महीने बताया जा रहा था और आज उसे तीन साल से ज़्यादा हो गए हैं और अभी उसकी उम्र तीन साल और बताई जा रही है.

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मंगलयान मिशन एक छोटा मिशन था जिसका एक ही मक़सद था कि भारत चीन से पहले मंगल ग्रह की कक्षा में पहुंच जाए. इसरो ने इस काम को बहुत सटीक तरीक़े से कर दिखाया जिससे भारत की जनता का मनोबल बहुत ऊंचा हुआ.

आप याद करें तो उस वक़्त यूपीए-2 की सरकार थी और जनता में बहुत मायूसी थी. मायूसी के समय में जब इसरो ने मंगलयान मिशन को सफलता से अंजाम दिया तो जनता में खुशी की लहर दौड़ गई थी. ऐसी जानकारी है कि भारत इस बजट में कई अंतरिक्ष अभियान की शुरूआत करने वाला है. अब इसरो शुक्र ग्रह की ओर रूख़ करेगा. साथ ही 2021 तक मंगलग्रह पर एक और अंतरिक्ष यान भेजा जाएगा.

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सपने सच हुए

इसरो ने छोटे-छोट क़दमों से चलकर बड़े सपने पूरे किए हैं और इसरो पर जितना ख़र्च किया है उसका पूरा फ़ायदा भारत की जनता को दिया है. 2000 के नए नोट पर मंगलयान की तस्वीर छपना इसरो के लिए बहुत सम्मान की बात है.

किसी देश की मुद्रा में किसी की तस्वीर का छपना उस संस्थान के लिए बहुत गर्व की बात होती है जिससे वह जुड़ा होता है. वित्त मंत्रालय ने मुझे बताया कि प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत पसंद से मंगलयान की तस्वीर 2000 के नए नोट पर छपी थी. इसरो ने मंगलयान दिया और प्रधानमंत्री मोदी ने देश की जनता के हाथों में मंगलयान दे दिया.

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इसरो की चुनौती

इसरो के समाने मौजूद चुनौतियों की बात करें तो ह्यूमन स्पेस फ्लाइट प्रोग्राम को लागू करना एक बड़ा चुनौती है. किस तरह किसी भारतीय व्यक्ति को अंतरिक्ष में भेजा जाए इसकी तैयारी पूरी है. इसरो चाहता है कि सरकार उन्हें 13 से 14 हज़ार करोड़ रुपए दे और सरकार की हरी झंडी मिलने के बाद सात साल के भीतर वो पहली बार किसी भारतीय पुरूष या महिला को अंतरिक्ष में भेजने की क़ाबिलियत हासिल कर पाएंगे.

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अंतरिक्ष के सफ़र में एक बहुत बड़ा पड़ाव था साल 1984 में जब भारतीय एस्ट्रोनॉट राकेश शर्मा अंतरिक्ष में गए थे. वे आज तक एकमात्र भारतीय नागरिक हैं जिन्होंने रूस की मदद से सोयूज़ कैप्सूल में बैठकर आठ दिनों तक अंतरिक्ष का सफ़र किया था.

इस यात्रा का एक महत्वपूर्ण क़िस्सा है जब अंतरिक्ष से राकेश शर्मा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बातचीत की थी. इंदिरा गांधी ने राकेश शर्मा से पूछा था, "अंतरिक्ष में अपने कैप्सूल में बैठकर आपको भारत कैसा दिखता है?" इस पर राकेश शर्मा का जवाब था, "सारे जहां से अच्छा." ये एक ऐसी बात थी जो भारतीयों के लिए बहुत गर्व की है.

आनेवाले 10, 15 या 20 सालों में भारत ये दोहराने के लिए तैयार होगा जब भारत की धरती से कोई व्यक्ति अंतरिक्ष में जाएगा.

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बेहतरीन कार्य संस्कृति

इसरो के ऐसे कई पहलू नज़र आते हैं जिससे उसकी कार्य संस्कृति का पता चलता है. मुझे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब ने बताया था कि जब पहली बार कोई रॉकेट फेल हुआ था तब इसरो के चेयरमैन और मशहूर अंतरिक्ष वैज्ञानिक सतीश धवन ने ख़ुद प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी और उस नाक़ामी का ज़िम्मा अपने उपर लिया था.

धवन ने कहा कि प्रोजेक्ट डायरेक्टर कलाम साहब इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं है. लेकिन बाद में जब रॉकेट सफल हो गया तो सतीश धवन साहब ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कलाम साहब से करवाई. इसरो की यही कार्य संस्कृति है कि नाकामी की ज़िम्मेवारी वरिष्ठ अपने सिर लेते हैं और क़ामयाबी का श्रेय अपने से छोटे सहयोगियों को देते हैं.

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मैंने देखा कि इसरो की कार्य संस्कृति ऐसी है जिसमें छोटे से छोटे पद पर काम करनेवाला इंजीनियर या वैज्ञानिक इसरो चैयरमैन से तकनीक से जुड़ा हुआ किसी भी तरह का सवाल खुल कर पूछ सकता है.

इसरो के ऐसे बहुत से अभियान हैं जिनकी कमान युवा महिलाओं के हाथों में हैं. पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हिकल (पीएसएलवी) रॉकेट जिसका भार 320 टन और ऊंचाई 44 मीटर है. मुझे बताया गया है कि इतने भारी-भरकम रॉकेट को इसरो की इमारत से निकालकर जब लॉन्च पैड पर लाया जाता है तो इसकी कमान एक युवा लड़की के हाथ में है.

इसरो की कार्य संस्कृति में युवाओं और महिलाओं को बहुत जगह दी जाती है इसलिए इसरो इतना क़ामयाब संस्थान बन पाया है.

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