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#upelection : क्‍या अति आत्‍मविश्‍वास अखिलेश को ले डूबा

।। विजय बहादुर ।। यूपी चुनाव में सबसे ज्यादा धक्का अखिलेश यादव की राजनीति को लगा है. चुनाव के तीन महीने पहले अखिलेश ने अपने पिता मुलायम यिंह यादव और चाचा शिवपाल सिंह यादव को बेदखल कर पूरी पार्टी अपने हाथ में ले लिया. आज नतीजें के आने के बाद सबसे ज्यादा सवाल उनके ही […]

।। विजय बहादुर ।।

यूपी चुनाव में सबसे ज्यादा धक्का अखिलेश यादव की राजनीति को लगा है. चुनाव के तीन महीने पहले अखिलेश ने अपने पिता मुलायम यिंह यादव और चाचा शिवपाल सिंह यादव को बेदखल कर पूरी पार्टी अपने हाथ में ले लिया. आज नतीजें के आने के बाद सबसे ज्यादा सवाल उनके ही चुनावी रणनीति पर उठ रहे हैं. पूरे चुनाव का जब आकलन करेंगें तो साफ लगेगा की अति आत्मविश्वास के कारण उन्होंने खुद को ही दांव पर लगा दिया. पुरे चुनाव में सपा ही एक मात्र पार्टी थी जो कम से कम शुरुआती दौर में अपने विकास के मुद्दों के साथ आगे बढ़ रही थी.

उन्हें लगता था की यूपी मुलायम और शिवपाल ब्रांड राजनीति से आगे निकल चुकी है और उनके द्वारा विकास के बड़े काम उन्हें हर जाति और धर्म में वोट दिलाने के लिए काफी है. उनका युवा नेतृत्व उनके लिए ट्रम्प का एक्का होगा. लेकिन चुनावी नतीजों से साफ लगता है, पारिवारिक कलह के कारण उनके कोर वोटरों में भ्रम के हालात पैदा हो गये. जिसका असर उन सीटों पर भी पड़ा, जहां साइकिल का सिंबल ही किसी उम्मीदवार के जीतने की गारंटी थी. संभल, इटावा, एटा, फिरोजाबाद और कन्नौज जैसे यादव बहुल गढ़ में भी बहुत सारी सीटें सपा हार गयी.

आज भी यूपी के मुसलमानों में मुलायम को सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है. मुलायम के प्रचार में नहीं निकलने के कारण और भाजपा द्वारा रणनीति के तहत बसपा को मुकाबले में दिखाने के कारण मुस्लिम वोटों में भारी विखराव हुआ. देवबंद जैसे मुस्लिम इलाकों तक में भी बीजेपी की जीत इसे साबित करती है. इसके अतिरिक्त टिकटों के बटवारें में देर होने और कांग्रेस को उसके जमीनी हालात से ज्यादा टिकट देकर भी सपा ने अपना बंटाधार कर लिया. पिछले चुनाव में कांग्रेस के पास बमुश्किल 6 फीसदी वोट था. उसमें भी बहुत बड़ा हिस्सा सपा के साथ असहज था. इसलिए गठबंधन के बाद ये वोट सपा में ट्रांसफर होने के बदले भाजपा को चला गया.

अखिलेश ने अपने ज्यादातर विधायकों को टिकट दिया जिनके लिए स्थानीय स्तर पर एंटी इंकमबेंसी फैक्टर भी था. अखिलेश के अति आत्मविश्वास से उनके कोर वोट बैंक में बिखराव हुआ. अतिरिक्त वोट बैंक जिसकी उम्मीद थी वो भी नहीं मिला. अखिलेश ने शायद चुनावी विसात में सामाजिक समीकरणों को कमतर आकां और अपने काम के प्रभाव को लेकर आकलन ज्यादा कर लिया. शायद इसलिए मुख्यमंत्री के रूप में सबसे ज्यादा पसंद किये जाने के बाद भी यूपी समर में बुरी तरह से पराजय हुई.

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