दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से पढ़ने के बाद प्रवीण कुमार गुंजन ने रंगकर्म के लिए बिहार के बेगूसराय को चुना. स्थानीय कलाकारों के साथ ‘द फैक्ट’ की शुरुआत की, ‘रंग-ए-माहौल’ नाट्य उत्सव के आयोजन के सूत्रधार बने. आज इनकी नाट्य प्रस्तुतियां राष्ट्रीय फलक पर सराही जाती हैं. पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित ‘महिंद्रा थियेटर फेस्टिवल’ में भिखारी ठाकुर की अमर कृति ‘गबरघिचोर’ का मंचन करने पहुंचे युवा नाट्य निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन से उनके रंगकर्म पर विस्तृत बातचीत की प्रीति सिंह परिहार ने. पेश हैं मुख्य अंश.
ऐसी कौन सी बात है, जिसने आपको थियेटर की ओर आकर्षित किया ?
शुरू में तो मुङो नहीं पता था कि थियेटर ही क्यों? लेकिन मैं जब गांव से शहर आया और थियेटर से जुड़ा, तो धीरे-धीरे थियेटर ने मुङो आत्मविश्वास दिया, लोगों से जुड़ने का मौका दिया. मुङो लगा कि इससे बेहतर और कुछ हो ही नहीं सकता मेरे लिए. अब थियेटर ही मेरा कर्म है और पेशा भी.
एनएसडी से पढ़ने के बाद दिल्ली या बंबई की जगह आपने रंगकर्म के लिए बेगूसराय को चुना?
मैं जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से पास आउट हो रहा था, मेरे शिक्षकों ने कहा कि तुम तकनीकी रूप से बहुत दक्ष हो गये हो, लेकिन बेगूसराय जाकर यह सब भूल जाओगे क्योंकि वहां रंगमंच के लिए न संभावनाएं हैं, न सुविधाएं. मैंने उन्हें जवाब दिया कि मुङो बेगूसराय में 14 साल थियेटर करने के बाद एनएसडी में प्रवेश मिला था. मेरे लिए वो 14 साल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. एनएसडी के तीन वर्षो के सीखे हुए से मैं क्या भूलूंगा, क्या मुङो याद रहेगा, ये तो नहीं जानता, लेकिन मेरा उन 14 वर्षो के प्रति दायित्व बनता है कि मैं उन्हें आगे बढ़ाऊं. एनएसडी से सीखने के बाद सब लोग अगर दिल्ली और मुंबई में ही रह जायेंगे, तो थियेटर यहीं सिमट कर रह जायेगा. ऐसे में बेगूसराय जैसे छोटे शहर की उम्मीदों का क्या होगा! इसलिए मैं वापस आया और बेगूसराय के साथ बिहार का रंगमंच कैसे राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी पहचान स्थापित करे, इसके लिए प्रयासरत हूं.
आपने थियेटर ग्रुप ‘द फैक्ट’ की शुरुआत की, ‘रंग-ए-माहौल’ का आयोजन करते हैं. अभी तक का सफर कैसा रहा?
मेरे लिए थियेटर का मतलब मुंबई, कोलकाता या दिल्ली नहीं है, इसलिए मैंने बेगूसराय में जाकर काम किया. वहां ट्रेंड कलाकार नहीं थे. वे न ढंग से संवाद बोल पाते थे, न गा पाते थे. मैं बाहर से ट्रेंड कलाकारों को बुला सकता था, लेकिन मैंने अपने कलाकार तैयार किये. आज वे धड़ल्ले से संवाद बोलते हैं, गाते हैं. मंच पर अपनी प्रस्तुति से दर्शकों को बांध लेते हैं. आज उन्हें देख कर मुङो लगता है कि जो मैं मुंबई या दिल्ली में रहकर नहीं पा सकता था, वो मैंने बेगूसराय में पाया. मैं जिस जमीन से जुड़ा हूं, जिस समाज में रहता हूं, उसकी बात को रचनात्मक ढंग से वहां के कलाकारों के साथ रंगमंच के माध्यम से दर्शकों के सामने रख सकता हूं. यह ताकत मुङो बेगूसराय ने दी है. मैं समझता हूं कि थियेटर वही मजबूत होगा, जो किसी एक वर्ग या शहर का ना होकर हर जगह के जनमानस में स्वीकार्य होगा.
आज के समय में रंगमंच की असल चुनौतियां क्या हंै आपकी नजर में ?
असल चुनौती है लगातार रंगमंच का न होना. आज थियेटर ने एक इंड्रस्टी का रूप ले लिया है. थियेटर इसलिए किया जा रहा है कि कोई प्रोजेक्ट मिल जाये. लेकिन थियेटर की जो मूलभूत जरूरत है उसे अनदेखा किया जा रहा है. नाटक हमेशा से सामाजिक बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान दिलाते रहे हैं. लेकिन थियेटर के प्रति दायित्व, प्रलोभन में तब्दील होता नजर आ रहा है. गंभीर थियेटर कम हो रहा है. मुङो लगता है कि आज के समय में जब देश की राजनीतिक स्थिति उथल-पुथल से भरी है, ऐसे समय में थियेटर की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है. और हर हाल में उसे यह भूमिका निभानी होगी.
‘संस्कृति राजनीति से आगे चलनेवाली मशाल है’, आज इस बात के क्या मायने रह गये हैं?
यह बीते वक्त की बात हो गयी. आज किसी भी सरकार या राजनीतिक दल को ऐसा नहीं लगता कि संस्कृति राजनीति से आगे चलनेवाली मशाल है. उनकी नजर सिर्फ बड़े वोटबैंक पर होती है, और थियेटर करने तथा देखनेवालों का एक छोटा सा वर्ग है. हालांकि इस छोटे से वर्ग से भी वे डरते हैं, लेकिन यह उनके लिए चैंलेज नहीं है. शायद इसलिए किसी भी पार्टी के ऐजेंडे में संस्कृति के लिए योजना नहीं है.
आपके नाटकों में रंगों का बहुत प्रयोग होता है और संगीत का भी, इसकी कोई खास वजह ?
यह मूल रूप से समय का प्रभाव है. आज समय बदल चुका है. मेरे दादा और पिता धोती कुरता- पहना करते थे. अब मेरे पिता पैंट और शर्ट भी पहनते हैं. यह महज पहनावे नहीं, समय का बदलाव है. मैं समझता हूं कि थियेटर को भी दस साल आगे की कल्पना के साथ खुद को प्रस्तुत करना होगा. तभी हम अपनी बात को प्रभावी तरीके से कह सकेंगे. मेरे नाटकों में जहां तक संगीत के प्रयोग की बात है, तो यह एक ऐसी विधा है, जिससे लोग अत्यंत गहराई से जुड़े हुए हैं. फिर चाहे वो शास्त्रीय या लोक संगीत हो या फिल्मी गीत. नाटक में कई टूल एक साथ काम करते हैं. अभिनय और प्रकाश के साथ संगीत भी मेरे लिए महत्वपूर्ण टूल है.
क्या एक नाटककार के नाटकों में उसकी निजी जिंदगी के अनुभवों की भी छाप होती है?
हां, बिल्कुल. नाटककार भी समाज से जुड़ा है, उसके जीवन में भी कई कहानियां हैं. मैं क्यों ‘समझौता’ या ‘अंधा युग’ का मंचन करने के बारे में सोचता हूं! इसलिए क्योंकि इनमें कहीं न कहीं मेरी या मेरे आस-पास के लोगों की जिंदगी का अक्स है. कला की कोई भी विधा हो, उसमें समकालीन समय का प्रभाव जरूर होता है, फिर चाहे वो साहित्य हो, चित्र हो या रंगमंच. जीवन के आस-पास घट रही चीजें खुद-ब-खुद रचनात्मकता का हिस्सा हो जाती हैं.
अमुक नाटक को मंचित करना है, इस चयन के पीछे भी कोई बात होती होगी?
मुक्तिबोध जी की कहानी पर किये गये ‘समझौता’ नाटक के माध्यम से इसका जवाब दूंगा. पढ़-लिख कर भी अगर किसी युवा को यह सिस्टम रोजगार न दे, तो वह और उसका परिवार कैसे जियेगा! मैंने मुक्तिबोध को पढ़ते हुए ‘समझौता’ के नायक के साथ ऐसा होते देखा. वह ग्रेजुएट है, लेकिन नौकरी नहीं मिल रहीं. अंत में वह पेट की भूख शांत करने के लिए जानवर बनने को तैयार हो जाता है. समझौता करने को तैयार हो जाता है. यह चीज मैं समाज में लगातार देख रहा हूं. इस पीड़ा ने ही मुङो यह नाटक मंचित करने के लिए आकर्षित किया. ऐसी कोई न कोई बात हर नाटक के साथ होती है.
ऐसे नाटककार, जिन्होंने आपको प्रभावित किया?
अनुराधा कपूर और अभिलाष पिल्लई. ये एनएसडी में प्रोफेसर हैं. इन्होंने एक गांव के लड़के को, यानी मुङो बदल दिया. राष्ट्रीय रंगमंच की समझ दी.