तंत्र को बदलिए, गणतंत्र को नहीं : प्रो रामजी सिंह

प्रो रामजी सिंह चर्चित गांधीवादी हैं. गांव के मुद्दों पर वे मौलिक ढंग से अपना विचार रखते हैं. पंचायतनामा के लिए उनसे सुजीत कुमार ने विस्तृत बातचीत की. पेश है प्रमुख अंश : ग्रामसभा का परिप्रेक्ष्य क्या है?भारतीय संस्कृति में शुरू से ही गांव का महत्व है. हमारे यहां गांव घर का केवल समूह भर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 15, 2014 11:58 AM

प्रो रामजी सिंह चर्चित गांधीवादी हैं. गांव के मुद्दों पर वे मौलिक ढंग से अपना विचार रखते हैं. पंचायतनामा के लिए उनसे सुजीत कुमार ने विस्तृत बातचीत की. पेश है प्रमुख अंश :

ग्रामसभा का परिप्रेक्ष्य क्या है?
भारतीय संस्कृति में शुरू से ही गांव का महत्व है. हमारे यहां गांव घर का केवल समूह भर नहीं है. बल्कि इसके साथ सामुदायिक भावना रहती है. एक-दूसरे के काम आने की प्रवृत्ति और सामाजिक पारस्परिकता को भारतीय संस्कृति में गांव कहा गया है. हमारी संस्कृति में मिथक की बातों को छोड़िए. अगर लिखी हुई बात पर यकीन किया जाये तो हमारे गांव और लोकतंत्र बहुत ही मजबूत रहे हैं. ग्रामसभा के लिए लिच्छवी गणराज्य को देखा जाये तो इससे शानदार उदाहरण कही देखने को नहीं मिलेगा. हम तो इस मामले में सौभाग्यशाली हैं कि लिच्छवी हमारे यहां है. पूरी दुनिया को हमने लोकतंत्र या गणतंत्र दिया है लेकिन हमने इससे क्या सीखा? वैशाली के हिंदू राजतंत्र में 300 के करीब ग्राम थे. भारत सांस्कृतिक रूप से एक था. राजनीतिक रूप से यहां एकता नहीं थी. हमारे यहां गणतंत्र था और यूनान में सुकरात के समय में सिटी स्टेट था. हमारे गांवों को शुरू से ही किसी ने नहीं छेड़ा था. ना तो मुगलों ने और ना ही अंगरेजों ने. कोई भी मुसलिम शासक हो या फिर मुगल शासक उन सब की नजर राजा, महाराजा की संपत्ति और मंदिरों की संपत्ति पर होती थी. उनको गांव से कोई मतलब नहीं होता था. गांव स्वावलंबी थे. सबसे बड़ी बात यह कि हुकूमत ग्रामीणों के हाथ में थी. गांव में स्वायत्त स्वावलंबन था. वेद में भी गांवों के बारे में बताया गया है. वहां गांव के लिए समिति शब्द का उपयोग किया गया है. बदलते दौर में गणतंत्र कहा जाता है. गांव के लिए पहली लड़ाई तो सही मायने में सन् 1921 में शुरू हुई थी. तब से लेकर अब तक के बदलते दौर में हम जड़ विहीन हो गये हैं. महात्मा गांधी ने पंचायत को माना था. भारतीय संस्कृति के संदर्भ से गांधी जी ने गणतंत्र की बात कही थी. गांव में हर जाति-धर्म के लोग रहते थे. आज तो यह सब विलुप्त हो गया है.

समय के साथ क्या ग्रामसभा का स्वरूप बदला है? ग्राम सभा के स्वरूप पर सरकार का क्या रुख रहा है?
यह बहुत शोचनीय बात है. यहां कुछ बातों पर ध्यान देना होगा. सशक्त गांव-पंचायत महात्मा गांधी का सपना था. कुछ असावधानी शुरू में ही हो गयी थी. भारतीय संविधान के ड्राफ्ट में गांव का कांसेप्ट ही नहीं था. संविधान बनाते समय ही यह चूक हो गयी. ग्राम पंचायत और भारतीय संस्कृति जिस बात से और मजबूत होती. उसका ख्याल ही नहीं आया. संविधान में पंचायत के साथ शराबबंदी और गोरक्षा का कहीं नामोनिशान नहीं था. संविधान में अन्य विषयों पर तो खुल कर बात हुई, लेकिन पंचायत को लेकर कोई स्पष्ट बात नहीं थी. यह विवेक के ऊपर छोड़ दिया गया. पंचायत का कांसेप्ट अलग था. कब चुनाव होगा इसकी कोई जानकारी नहीं थी. सबसे बड़ी बात यह की आजादी के इतने दिन गुजरने के बाद भी किसी का ध्यान पंचायत और उसकी हालात पर नहीं था. संविधान और पंचायत को लेकर जो पहल हुई वह राजीव गांधी ने करायी. उन्होंने संविधान का 73वां और 74वां संशोधन कराया. 73वां ग्राम पंचायत के लिए और 74वां नगर पंचायत के लिए. इसमें 29 अधिकारों पर बात हुई. बिहार में भी इस संदर्भ में बात हुई. बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुई. सरकार द्वारा संविधान प्रदत्त 29 अधिकारों को लागू करने की बात कही गयी. विडंबना यह कि इन घोषणाओं को तो न ही गजट में शामिल किया गया और न ही विधानसभा से उन्हें मंजूरी मिली. यह किसी ने भी नहीं सोचा कि एक सूची बना के उसमें पंचायत के 29 अधिकारों को डाल दिया जाये. राज्य सरकार ने लोकप्रियता के लिए घोषणा तो कर दी, लेकिन वह भी महज घोषणा बन के रह गयी. गांव की संसद तो बना दी, लेकिन उस संसद को अधिकार नहीं मिला. किसी भी सरकार का रवैया ऐसा नहीं है, जिसकी प्रशंसा की जा सके. ग्रामसभा जिस दिन सार्वभौम हो जायेगी तो चीज धरातल पर आ जायेंगी.

ग्रामसभा और लोकसभा के औचित्य का संदर्भ क्या है? लोकसभा और ग्रामसभा एक-दूसरे से जुड़े हैं?
ग्रामसभा ही ग्राम पंचायत की संसद है. वह सार्वभौम और स्वायत्त हो साथ ही वह केंद्र सरकार की भीख पर ना रहें. भारत के कोषागार का 60 प्रतिशत हिस्सा आबादी को दे दिया जाये. ग्रामसभा की मजबूती होगी तो लोकसभा के ऊपर उतना भार ही नहीं पड़ेगा. नक्सली समस्या से निजात मिल जायेगी, गांवों में डॉक्टर-नर्स काम करेंगे, स्कूलों में पढ़ाई सुचारु रूप से होगी. गांव के जीवन में सुधार हो जायेगा. राज्य सरकार और केंद्र सरकार का भार हल्का हो जायेगा. गांव का जीवन अच्छा होगा. अपराधों पर नियंत्रण, नशाबंदी, गांव की सुरक्षा पर सब ग्रामसभा की मजबूती पर ही निर्भर है. छोटे-छोटे विकास का काम करने में ग्रामसभा सक्षम है. आप बड़ा काम कीजिए. देश की रक्षा कीजिए. विदेश से संबंध बनाइए. लोकसभा और ग्रामसभा दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं.

आम जनता के लिए ग्रामसभा कितनी मददगार है?
पिरामीड की तरह देखिए, हमारा तंत्र ऐसा होना चाहिए. यहां तो उल्टा है. हमारा आधार ग्रामसभा है. ग्रामीण, गणतंत्र का आधार है. नीचे की बेस को मजबूत करने की जरूरत होती है. ऊपर सबसे कम भार देना होगा. ऊपर का आदमी रक्षा, मुद्रा देखे. हमारी योजना केंद्रित अभिरुचि वाली होनी चाहिए. यहां तो न कोई काम देना है और न ही पंचायत के सशक्तीकरण के लिए काम करना है. जिस देश की 78 करोड़ की आबादी भूखी हो वहां अगर खूनी क्रांति नहीं हो रही है तो या तो यह कायरता है या फिर महात्मा गांधी या गौतम बुद्ध का प्रभाव है.

ग्रामसभा और लोकसभा को एक-दूसरे से कैसे जोड़ सकते हैं? क्या बिना ग्रामसभा, लोकसभा की कल्पना की जा सकती है?
ग्रामसभा आधार है, लोकसभा मुकुट है. ग्रामसभा जड़ है. अगर हमारे पैर कमजोर हो गये तो क्या हमारा शरीर मजबूत होगा? कमजोर पैरों से हम ऊपर चढ़ना तो दूर, सीधे धरातल पर आ जायेंगे. दुनिया के कई देशों ने ग्रामसभा की ताकत को पहचाना है. सोवियत रूस ने गांवों का संगठन बनाया, जिसे ‘कोलखोस’ कहते हैं. चीन ने ‘कम्यून’ बनाया. इसी तरह इजराइल ने ‘किबुत्स’ बनाया. आज ये कहां और किस पायदान पर खड़े हैं. यह बताने की जरूरत नहीं है. हमने तो अपनी गांवों की ताकत को ही नहीं पहचाना.

क्या ग्रामसभा अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल हो सकी है?
उद्देश्य कहां से पूरा होगा? सही ग्रामसभा कहां है? केवल ढांचा है. संविधान में वर्णित 29 अधिकारों को सरकार ने तो मुट्ठी में कैद कर रखा है. आप पहले अधिकार तो दो, तभी तो ग्रामसभा का उद्देश्य पूरा होगा. केवल घोषणाएं होती हैं. सरकार चाहती ही नहीं कि ग्रामसभा मजबूत हो. पंचायत आजाद हो. संसद के सदस्य को पांच करोड़ देते हो. देश की 65 प्रतिशत आबादी को देश के कोष का 50 प्रतिशत ही तो दे दो.

किन-किन मुद्दों पर ग्रामसभा को और मजबूत करने की जरूरत है? इसका दायरा बढ़ना चाहिए?
वर्तमान परिवेश के ग्रामसभा में हर महीने आबादी के हिसाब से 50 की उपस्थिति होनी चाहिए. गांव की योजनाओं को गांव के हाथ में दे दिया जाये. तकनीकी काम में उस स्तर का आदमी सहयोग करे. जहां जिस चीज की जरूरत हो, उसी को पूरा किया जाये. जीविका के छोटे-छोटे अवसर प्रदान किये जायें. स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र और सबसे बड़ी बात मालगुजारी ग्रामसभा के हाथों में दे दी जाये. आमदनी पर ग्रामसभा का नियंत्रण हो. जल, जंगल, जमीन, खनिज, आकाश पर ग्रामसभा का नियंत्रण हो. इन सब प्रावधान के न होने के कारण झारखंड के छोटानागपुर को पूंजीपतियों ने लूट लिया है. गोबर के दाम पर यूरेनियम, अबरख, मैगिAज को लूट लिया गया. खनिज पर ग्रामसभा का अधिकार होना चाहिए. इसके दायरे को छोटा करने का प्रयास किया जा रहा है. एक पंचायत में कई गांव हैं. हमारे देश में कई स्तर पर अंतर है. गांवों की संख्या को मुनासिब रखना होगा. दायरा बीच का हो. सबके भले का हो. ग्रामसभा के भले का हो.

प्रो. रामजी सिंह

पूर्व सांसद एवं गांधीवादी

Next Article

Exit mobile version