पर्यावरण दिवस पर विशेष : उपचार के कागजी नुस्खे से नहीं बनेगी बात, हमारी धरती दिनो-दिन होती जा रही है बीमार
डॉ मेहता नागेंद्र सिंह भू वैज्ञानिक व पर्यावरण के जानकार हमारी धरती खुद बीमार चल रही है. यह बीमारी हर दिन गहराती जा रही है. इसकी कई वजहें हैं. ओजोन परत में छेद, आम्लिक वर्षा और आपदाएं भी घी में आग जैसा काम करती हैं. इन सभी कारणों के मूल में सबसे भयावह वैचारिक प्रदूषण […]
डॉ मेहता नागेंद्र सिंह
भू वैज्ञानिक व पर्यावरण के जानकार
हमारी धरती खुद बीमार चल रही है. यह बीमारी हर दिन गहराती जा रही है. इसकी कई वजहें हैं. ओजोन परत में छेद, आम्लिक वर्षा और आपदाएं भी घी में आग जैसा काम करती हैं. इन सभी कारणों के मूल में सबसे भयावह वैचारिक प्रदूषण है जो आदमी और धरती, खासकर प्रकृति व पर्यावरण के बीच स्थापित संबंधों में विकृति व कटुता पैदा करने में पीछे नहीं है.
वस्तुत: हमारी धरती खुद से बीमार नहीं हुई है. इसे बीमार बनाया गया है. ऐसा कहने-मानने में नहीं है कि इसे बीमार बनाने की प्रक्रिया सालों पहले शुरू हो गयी थी. अब खतरा हमारे सिर पर मंडराने लगा है. इस प्रक्रिया की शुरुआत वनोन्मूलक, औद्योगिकरण, शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि से हुई. इसके चलते पर्यावरण प्रदूषण का प्रकोप दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है. इसमें पहली दुनिया के मुल्कों की भूमिका बड़ी है. धरती पर उत्सर्जित होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड के प्रभाव को ये वन ही कम करते हैं या उसे अवशोषित कर वायुमंडल के हरित गृह प्रभाव को कम करते हैं. धरती और वायुमंडल के विकिरण तथा उष्मा संतुलन को स्थिर रखते हैं. प्रकारांतर से वनों के उजड़ने से कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता बढ़ती गयी, जिससे धरती तेज बुखार से तपने लगी.
हमारे अलग-अलग तरह के स्वार्थ का ही नतीजा है कि धरती बेहद खतरनाक “हरित गृह प्रभाव” की चपेट में आ गयी. इसके चलते धरती का औसत तापमान, 15-16 डिग्री सेल्सियस ऊपर उठता जा रहा है.
जानकारी के अनुसार 1750 के बाद से ही वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 30 फीसदी बढ़ी. इसने हरित गृह प्रभाव में 65 फीसदी का योगदान किया और तभी से धरती के गर्म होने का सिलसिला जारी है. अनुमान है कि इस सदी के मध्य में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा औद्योगिक युग से पूर्व की तुलना में दोगुनी हो जायेगी. जाहिर है इससे धरती का तापमान भी बढ़ेगा. ऐसे में तेज बुखार से तपती धरती स्वस्थ कैसे रह पायेगी?
1961 से लेकर पेरिस करार तक दुनिया के सामने पर्यावरण की बेहतरी की चुनौतियां खड़ी हैं. धरती को निरोग रखने के वास्ते अब तक 40 से अधिक विश्वस्तरीय शिखर सम्मेलन हो चुके हैं. इस मुतल्लिक चिंता की पहली झलक 1972 में स्टॉकहोम में पृथ्वी शिखर सम्मेलन के रूप में दिखा.
इसके बाद से पर्यावरण की खातिर लगातार विमर्श की शृंखला रही. पर इन शिखर सम्मेलनों के नुस्खे पर्यावरण को बचा पाने की दिशा में कारगर साबित नहीं हो रहे हैं. तमाम तरह के नुस्खे गर्म होती धरती को ठीक नहीं कर पा रहे हैं.
दरअसल, धरती रहने लायक बनाना है तो वनों की हरियाली लौटानी होगी. औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को सुसंगत दिशा देनी होगी. आबादी विस्तार, जलवायु प्रदूषण, वैश्विक तापमान, पर्यावरणीय प्रदूषण और वैचारिक प्रदूषण को रोकना होगा.