सरकार व व्यवस्था जिम्मेवार, विद्यार्थी नहीं
परिणामों के बाद बहस के केंद्र में िशक्षा व्यवस्था हरिवंश चतुर्वेदी निदेशक, बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी, नाेएडा बिहार और झारखंड के परीक्षा परिणाम चिंताजनक हैं. लेकिन, इसके लिए सिर्फ विद्यार्थियों को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है. शिक्षा प्रणाली को झारखंड और बिहार की राज्य सरकारें चला रही हैं, इसलिए ज्यादा जिम्मेवारी इनकी बनती […]
परिणामों के बाद बहस के केंद्र में िशक्षा व्यवस्था
हरिवंश चतुर्वेदी
निदेशक, बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी, नाेएडा
बिहार और झारखंड के परीक्षा परिणाम चिंताजनक हैं. लेकिन, इसके लिए सिर्फ विद्यार्थियों को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है. शिक्षा प्रणाली को झारखंड और बिहार की राज्य सरकारें चला रही हैं, इसलिए ज्यादा जिम्मेवारी इनकी बनती हैं कि ये अपनी शिक्षा प्रणाली को किस तरह से दुरुस्त रखें. इस परिणाम के लिए सरकार की और सरकारी अधिकारियों की जवाबदेही होनी चाहिए. साथ ही स्कूलों के प्रधानाध्यापकाें और शिक्षकों की भी जवाबदेही होनी चाहिए और वे यह सुनिश्चित करें कि वे विद्यार्थियों को सही और अच्छी शिक्षा देने में कोई कोताही न करें.
शिक्षा व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए संसाधनों की जरूरत होती है. सरकारों के साथ ही स्कूल प्रशासन को यह चाहिए कि वे स्कूलों में लाइब्रेरी-लेबोरेट्री से लेकर भवनों-शौचालयों की व्यवस्था तक और खेलकूद के अवसरों से लेकर समय पर कोर्स पूरा होने तक की सारी जवाबदेही तय करें. जिस तरह से सीबीएसइ की शिक्षा प्रणाली है, उसी तर्ज पर सरकारी स्कूलाें की भी व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सके.
कुल मिला कर देखें, तो बिहार और झारखंड की मौजूदा स्थिति में गवर्नेंस की कमी दिखती है, जवाबदेही की कमी दिखती है. जहां तक बच्चों के मां-बाप का सवाल है, तो मैं यह कहूंगा कि उनको भी जिम्मेवार होना चाहिए, लेकिन मसला यह है कि उनमें ज्यादातर खुद ही अशिक्षित हैं, या ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, तो वे कैसे अपने बच्चों को गाइड कर सकते हैं. दूसरी बात यह भी है कि ज्यादातर लोग आर्थिक कमी से जूझ रहे हैं, इसलिए वे अपने बच्चों की शिक्षा पर ज्यादा खर्च नहीं कर सकते. आर्थिक पिछड़ापन एक समस्या है, और यह समस्या खराब परीक्षा परिणाम आने में कुछ योगदान जरूर देती है.
आर्थिक पिछड़ेपन के कारण सामाजिक परिवेश भी शिक्षा के लिए अनुकूल माहौल नहीं बना पाता. मसलन, दिल्ली के बच्चों की इच्छा होती है कि वे आइएएस बनें, डॉक्टर बनें या इंजीनियर बनें. लेकिन, वहीं बिहार-झारखंड के बच्चों की इच्छा में रेलवे गार्ड या पुलिस इंस्पेक्टर बनना शामिल होता है. सुदूर देहातों में बच्चों को कोई दिशा-निर्देश देनेवाला या प्रेरित करनेवाला भी कोई नहीं है और न ही उनका कोई रोल मॉडल ही है, इसलिए वे बस किसी तरह पास होने की साेच कर पढ़ते हैं. शिक्षा का आधारभूत ढांचा बहुत कमजाेर है.
प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी, संसाधनों की कमी, प्रयोगशालाओं की कमी और सबसे बढ़ कर शिक्षा को लेकर बेहतर माहौल की कमी के चलते ऐसी स्थिति बन जाती है कि बच्चे मजबूर हो जाते हैं, कभी नकल करने के लिए, तो कभी यूं ही जैसे-तैसे पास होने के लिए. यह स्थिति तभी बनती है, जब बुनियादी शिक्षा यानी प्राथमिक स्तर पर बच्चों की शिक्षा कमजाेर हो. शिक्षा की नींव कमजाेर होने से आगे चल कर ऐसी विकट परिस्थितियां पनपने लगती हैं. जब नकल की भ्रष्ट व्यवस्था हावी हाेती है, तो लोगों में यही सोच बनने लग जाती है कि नकल से ही पास हो जायेंगे, पढ़ने की क्या जरूरत है.
यही वजह है कि नकल के ठेकेदार पनपने लगते हैं, नकल माफिया पनपने लगते हैं. ऐसे में विद्यार्थियों को दोष देना कतई उचित नहीं है.
एक-दूसरे को जिम्मेवार मानने और एक-दूसरे पर आरोप लगाने से स्थिति ठीक नहीं होगी. सरकारों को चाहिए कि वे शिक्षा पर उचित बजट का प्रावधान करें और शिक्षा से जुड़े तमाम अधिकारियों की जवाबदेही को सुनिश्चित करें. दरअसल, सरकारी भ्रष्टाचार भी शिक्षा की दुर्गति के लिए जिम्मेवार है.
इसलिए पहले यह सुनिश्चित करने की भी जरूरत है कि सरकार के भीतर शिक्षा को समृद्ध बनाने की कितनी ठोस तैयारी है. जब तक शिक्षा पर जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च नहीं होगा और इस छह प्रतिशत को शत-प्रतिशत खर्च करने की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं होगी, तब स्कूल यूं ही संसाधनविहीन और सिंगल टीचर स्कूल की तरह चलते रहेंगे और हम शिक्षा प्रणाली के कमजोर होने का रोना रोते रहेंगे.