यदि देश की अर्थव्यवस्था को 7-8 प्रतिशत की दर से विकसित होना है, तो कृषि क्षेत्र का विकास इसकी पहली अनिवार्यता है, जो 2012-13 तक 4 प्रतिशत की वृद्धि दर के बाद 2015-16 में 1 प्रतिशत के आसपास सिमट चुकी है. हालांकि जीडीपी में कृषि का योगदान केवल 17 प्रतिशत ही है, पर हमारी आबादी का आधा हिस्सा कृषि पर ही निर्भर है. ऐसे में, ग्रामीण क्षेत्र की आय, मांग और उपभोग में गिरावट हमारी सकल आर्थिक संभावनाओं के लिए घातक हो जाती है. दिहाड़ियों की निम्न दरें, निम्न आय और कृषि से मिलता निम्न लाभ इस ग्रामीण बदहाली को बदतरीन करते हुए एक ऐसे दुष्चक्र की रचना करते हैं, जिसे कृषि में ऊंचे निवेश एवं वृद्धि के बूते ही तोड़ा जा सकता है.
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किसान आंदोलन : कृषि संकट और बेचैनी का गुबार
एक तरफ कर्ज का लगातार बढ़ता बोझ, तो दूसरी ओर जी-तोड़ मेहनत कर पैदा की गयी फसलों की वाजिब कीमतें नहीं मिल पाने का दर्द कितना असहनीय हो चुका है, इसका व्यापक असर मध्य भारत में स्पष्ट रूप से दिख रहा है. मध्य प्रदेश में किसान फसलों के लागत मूल्य नहीं मिलने, तो महाराष्ट्र के […]
एक तरफ कर्ज का लगातार बढ़ता बोझ, तो दूसरी ओर जी-तोड़ मेहनत कर पैदा की गयी फसलों की वाजिब कीमतें नहीं मिल पाने का दर्द कितना असहनीय हो चुका है, इसका व्यापक असर मध्य भारत में स्पष्ट रूप से दिख रहा है. मध्य प्रदेश में किसान फसलों के लागत मूल्य नहीं मिलने, तो महाराष्ट्र के किसान कर्ज माफी की मांग को लेकर आक्रोशित हैं. पुलिस फायरिंग में छह किसानों की मौत के बाद मध्य प्रदेश सरकार सवालों के घेरे में है. अन्य राज्यों में भी किसानों के दर्द कम नहीं हैं. किसान आंदोलन, किसानों के सवाल और सरकारों के रवैये पर केंद्रित परिचर्चा के साथ संडे इश्यू की विशेष प्रस्तुति…
पीर के पर्वत का पिघलाव है यह
योगेंद्र यादवराष्ट्रीय अध्यक्ष,स्वराज इंडिया
मध्य प्रदेश के मंदसौर में अपना विरोध व्यक्त करते किसानों पर पुलिस की गोलीबारी किसान आंदोलन के इतिहास में एक नये चरण का आगाज कर सकती है. सरकार के इनकार के बावजूद, अब यह साफ है कि 6 जून को चलीं पुलिस की इन गोलियों ने कम से कम पांच किसानों की हत्या कर दी. वहां की सरकार अब चाहे जो भी कोशिश कर ले, इतना स्पष्ट है कि इस आंदोलन का अंत अब तुरंत नहीं होने वाला है.
जैसा इस तरह के सारे आंदोलनों के साथ हुआ करता है, इसकी शुरुआत महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक गांव में हुई. वहां किसानों ने यह फैसला किया था कि पहली जून से वे खाद्यान्न, सब्जियां आदि शहरों को भेजना बंद कर देंगे. जल्दी ही उस गांव के किसानों का फैसला पूरे जिले के किसानों का बन गया और इसके पहले कि कोई इसके आयाम समझ पाता, उनका यह निश्चय महाराष्ट्र के कई जिलों को अपनी जद में ले चुका था. किसान इस निर्णय पर डटे रहे और पहली तथा दूसरी जून को अधिकतर कृषि उत्पाद विपणन सहयोग समितियों तक किसानों का कोई भी उत्पाद नहीं पहुंचा. इस विरोध को हलके में ले रही सरकार के सामने इसके बाद समझौता वार्ता के सिवाय दूसरा चारा न था.
अब यह आंदोलन मध्य प्रदेश तक पहुंच चुका था. महाराष्ट्र की ही तरह, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी अपने पक्षधर किसान संगठनों के साथ एक सौदे की घोषणा कर दी, जिसे अधिकतर किसान संगठनों ने यह कह खारिज कर दिया कि यह समझौता करनेवाले बिक चुके. महाराष्ट्र में राज्यव्यापी बंद के बाद, दूसरे राज्यों के किसान संगठनों ने भी मजबूती महसूस की. फिर पुलिस द्वारा गोली चलाने की खबर के बाद तो सभी किसान संगठनों का सक्रिय हो जाना निश्चित है.
जिस घटनाक्रम की परिणति मंदसौर के इस गोलीकांड में हुई, वह असाधारण है. इन आंदोलनों की स्वतःस्फूर्त प्रकृति तथा इसका तेज फैलाव हमें औपनिवेशिक वक्त के किसान विद्रोह की याद दिलाता है. महाराष्ट्र सरकार का आरोप यह है कि किसानों की यह हड़ताल उसके राजनीतिक विरोधियों, मुख्यतः शिवसेना तथा एनसीपी की करतूत है, किंतु तथ्य इसकी तसदीक नहीं करते. विपक्ष ने इसे प्रच्छन्न समर्थन अवश्य दिया, पर किसानों को एक करनेवाले संगठन और उनके नेतागण किसी भी मुख्य सियासी दल से संबद्ध नहीं हैं. शहरी निकायों के लिए संपन्न हालिया चुनावों में अपनी पराजय के सदमे से कांग्रेस और एनसीपी अभी उबर ही कहां सकी है. इसकी संभावना वैसे भी नहीं है कि किसान काफी अंश में श्रीहीन हो चुकी इन पार्टियों की सुनेंगे. ऐसे में प्रतीत तो यही हो रहा कि पूरे देश में किसानों का एक नया नेतृत्व उभर रहा है.
यह तथ्य इस आंदोलन को और भी असाधारण बनाता है कि यह कोई ऐसे वक्त नहीं हो रहा जब किसी प्राकृतिक आपदा अथवा फसलों के नुकसान ने किसानों पर चोट की हो. 2014-15 तथा 2015-16 के लगातार दो सुखाड़ों के बाद पिछले कृषि मौसम में महाराष्ट्र ने सामान्य बारिश और खूब सारी पैदावार पायी. दूसरी ओर, मध्य प्रदेश कई वर्षों से उच्चतम कृषि उत्पादकता के लिए पुरस्कार पाता रहा है. फिर किसानों के गुस्से का यह अचानक विस्फोट हुआ कैसे? इसकी दो संभावित वजहें हैं. पहली, ढेरों पैदावार से उनकी कीमतें किसानों के लिए नीचे आ गिरीं. दूसरी, उत्तर प्रदेश की नवनिर्वाचित सरकार द्वारा किसानों के फसल ऋणों की माफी ने अन्य राज्यों के किसानों के लिए भी उनकी अपूरी मांगों की याद ताजा कर दी.
कीमतों का धराशायी होना दालों के मामले में सबसे स्पष्ट दिखता है. देश में दालों की कमी के मद्देनजर केंद्रीय सरकार ने तुर दाल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 4,500 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 5,000 रु. प्रति क्विंटल से भी अधिक कर दिया और इसे दालों के उत्पादन को बढ़ावा देनेवाले प्रमुख कदम के रूप में पेश किया. कृतज्ञ किसानों ने वैसा ही किया और दालों की खेती का रकबा तथा उसका उत्पादन बढ़ चला. पर सरकार अपने वादे के एक हिस्से को निभाने में विफल रही. राज्यों की एजेंसियां इस निर्धारित मूल्य पर अधिकतर उत्पाद न खरीद सकीं और किसान अपनी दाल 3,000 रु. प्रति क्विंटल तक में बेचने को बाध्य हो गये.
इसी तरह, मध्य प्रदेश के सोयाबीन उत्पादकों तथा तेलंगाना के मिर्च उत्पादकों पर भी कहर टूटा. ऐसी रिपोर्टें आयीं कि देश के कई हिस्सों में टमाटर तथा आलू के उत्पादकों ने अपने उत्पाद मंडी की हास्यास्पद कीमतों पर बेचने की बजाय उन्हें फेंक देना कबूल किया. इस तरह किसानों ने न सिर्फ तब तबाही झेली, जब पैदावार हुई ही नहीं, बल्कि उन्हें तब भी तबाह होना पड़ा, जब निसर्ग ने उन्हें बारिश तथा पैदावार की भरपूर मात्रा से नवाजा. यही दोहरी हताशा वर्तमान आंदोलनों को गति दे रही है.
महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के किसान आंदोलनों की असली अहमियत यही है. यह कोई स्थानीय, मौसमी, किसी खास फसल के साथ पैदा हुआ याकि आपदा आधारित दर्द नहीं है. यह बेचैनी तो सीधे-सीधे भारतीय कृषि के संकट से जुड़ी है. इस कृषि संकट के तीन रूप हैं: पहला, यह देश की कृषि का पारिस्थितिक संकट है. हरित क्रांति से संबद्ध आधुनिक कृषि रीतियां टिकाऊ विकास का आधार नहीं प्रदान करतीं. संसाधन-केंद्रित, उर्वरकों और कीटनाशकों से बोझिल तथा पानी की अतृप्त प्यास से पीड़ित यह कृषि अब अपने अंत पर पहुंच चुकी है. दूसरा, भारतीय कृषि का एक आर्थिक संकट भी है. इसकी उत्पादकता देश की जरूरतों, जमीन तथा संसाधनों की उपलब्धता के समरूप नहीं रही है. और उससे ही लगा एक अन्य संकट किसानों के अस्तित्व का संकट है. कृषि अब लाभदायक नहीं, बल्कि एक नुकसानदेह पेशे में तब्दील हो चुकी है. कृषि जिंसों की कीमतें उसके इनपुटों की लागत तथा किसानों के उपभोग व्यय की बनिस्बत कहीं पीछे छूट चुकी हैं. किसान तो अब एक अच्छे वर्ष में किसी तरह जी लेते हैं, जबकि विपरीत वर्षों में खुद को ऋणों के फंदे में फंसा पाते हैं. यही वह संकट है, जो किसानों की आत्महत्याओं के लिए प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है.
वर्तमान किसान आंदोलन के बारे में उल्लेखनीय यह है कि इसने इस बुनियादी संकट को ही संबोधित करने की कोशिश की है. किसानों की मांगों में कोई तात्कालिक और स्थानीय राहत के तत्व शामिल नहीं हैं. इसकी बजाय, इस बार किसानों ने फसल मूल्यों के निर्धारण का आधारभूत मुद्दा ही उठा दिया है. उन्होंने सत्तासीन दल को उसके इस चुनावी वादे की याद दिलायी है कि एमएसपी इस तरह तय किये जाएंगे कि वे किसानों को उनकी लागतों पर पचास प्रतिशत का मुनाफा दे सकें. उन्होंने स्वामीनाथन आयोग की विभिन्न अनुशंसाएं लागू किये जाने की मांग की है. इसके अतिरिक्त, उन्होंने सहज ही सभी किसानों के लिए ऋण माफी की मांग भी रखी है. ये सभी मांगें किसान आंदोलनों की वे दीर्घकालीन मांगें हैं, जिन्हें संबोधित करने का साहस कोई भी सियासी दल नहीं दिखा सका है.
फड़णवीस सरकार एक आंशिक एवं सशर्त ऋण माफी की रजामंदी जाहिर कर चुकी है. पर किसान अब इतने से ही संतुष्ट होनेवाले नहीं. मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया कि पैदावार की खरीद एमएसपी के अनुसार ही होगी. किंतु इससे वह बुनियादी मुद्दा नहीं बदलता जो पहले तो इसकी ही परख करना चाहता है कि एमएसपी तय करने की प्रक्रिया में कौन से सुधार किये जायें. वैसे ही, शिवराज सिंह सरकार द्वारा हड़बड़ी में घोषित किये गये मरहमी प्रस्तावों का भी यही हश्र होनेवाला है. इन भाजपा मुख्यमंत्रियों को केंद्र से शायद ही कोई सहायता मिल सके. इस पर विवाद संभव है, पर एनडीए की यह सरकार स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसानों के लिए सबसे अधिक अमैत्रीपूर्ण सरकार है.
अभी यह कहना कठिन है कि पूरे देश के लिए मंदसौर के निहितार्थ क्या होंगे. हमें यह नहीं पता कि वर्तमान विरोध कितना लंबा खिंचेगा. पर हमें इतना तो मालूम ही है कि किसानों की वास्तविक मांगें शायद ही पूरी हो सकें. महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के किसानों ने राह दिखा दी है. अब बाकी देश के किसानों को यह झंडा थाम इसे तार्किक परिणति तक पहुंचाना है. हम किसान राजनीति के एक नये चरण की दहलीज पर हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)
कब शुरू हुआ आंदाेलन
कर्ज माफी, न्यूनतम समर्थन मूल्य समेत अनेक मांगों को लेकर एक जून से महाराष्ट्र के अहमदनगर और नासिक के किसानों ने आंदोलन शुरू किया. अगले ही दिन यानी दो जून को मध्य प्रदेश के किसान भी समर्थन में सड़कों पर उतर आये. विरोध में किसानों ने हजारों लीटर दूध व सब्जी सड़कों पर फेंक दी. किसानों की हड़ताल के कारण दूध और सब्जी की आपूर्ति बाधित हो गयी, जिससे अचानक सब्जियों के दाम आसमान छूने लगे.
क्या हैं किसानों की मांगें
मध्य प्रदेश
< किसानों के कर्ज माफ किया जायें.
< फसलों के समर्थन मूल्य बढ़ाये जायें.
<
दूध के दाम बढ़ाये जाएं यानी सरकारी डेयरी दूध के ज्यादा दाम दे.
<
फसल की लागत का डेढ़ गुना ज्यादा दाम मिले.
<
मंडी शुल्क वापस लिया जायें.
<
स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू की जायें.
< किसानों पर दायर मुकदमे वापस लिये जायें.
< किसानों के कर्ज माफ किया जायें.
महाराष्ट्र
<
उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले.
<
बिना ब्याज के ऋण मुहैया कराये जायें.
<
दूध के दाम बढ़ा कर 50 रुपये प्रति लीटर किया जायें.
<
60 वर्ष से अधिक उम्र के किसानों को पेंशन दी जाये.
2,57,000
करोड़ रुपये राज्य सरकारें किसानों के कर्जे के रूप में करेंगी माफ आम चुनाव 2019 लड़ने के लिए एक ग्लोबल बैंकिंग ग्रुप अनुसार.
2 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद का कर्जमाफी के रूप में चला जायेगा वर्ष 2019 के चुनाव तक यदि अन्य राज्य सरकारें भाजपा शासित यूपी और महाराष्ट्र के नक्शे-कदम पर चलती हैं, बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच रिपोर्ट के मुताबिक.
169.5
मिलियन मीट्रिक टन सब्जियां उत्पादित की गयी वर्ष 2014-15 के दौरान कुल कृषि योग्य 95.42 लाख हेक्टेयर जमीन से.
866
लाख मीट्रिक टन फलों का देश में किया गया उत्पादन वर्ष 2014-15 के दौरान कुल 61.1 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन पर.
कृषि उत्पादों की कीमतों में गिरावट
पिछले वर्ष माॅनसून के सामान्य रहने और अपेक्षाकृत बुआई में बढ़ोतरी के कारण दालों, आलू, प्याज और टमाटर समेत विभिन्न फसलों के दामों में गिरावट आयी है. वर्ष 2016-17 में दालों का उत्पादन 224 लाख टन अनुमानित है, जो गत वर्ष की तुलना में 37 फीसदी अधिक है. पिछले महीने अरहर दालों की खुदरा कीमतें 140-180 रुपये से गिरकर 74-86 रुपये प्रति किलोग्राम पर आ गयीं.
दाल की थोक कीमत आ गयी एमएसपी से नीचे
सरकार ने खरीफ 2016 के लिए तुर दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,050 रुपये प्रति क्विंटल की घोषणा की थी. वर्षों बाद सरकार ने तीन प्रमुख एजेंसियों एफसीआइ, नाफेल और एसएफएसी द्वारा किसानों से दालें लेकर संग्रहित करने की बात कही थी. अधिक उत्पादन और थोक मूल्यों में आयी कमी के कारण अरहर दालों की खुदरा कीमतें काफी नीचे गयीं.
किसानों को उचित लाभ नहीं?
दालों की कीमतों में आयी गिरावट के बाद मुख्य सब्जियों प्याज, आलू और टमाटर की कीमतें भी नीचे आ गयी. विशेषज्ञों का दावा है कि कृषि उत्पादों की कीमतें गिरने से सरकार को महंगाई नियंत्रित करने में मदद मिलेगी. दालों और सब्जियों के दाम गिरने से जहां उपभोक्ताओं को फायदा मिल रहा है, वहीं दूसरी ओर किसानों को अपनी फसलों के उचित दाम से वंचित होना पड़ रहा है. यदि फसलों का उचित दाम नहीं मिला, तो आपूर्ति के बाधित होने और महंगाई के उठ खड़े होने का जोखिम बना रहेगा.
आंदोलन पर सरकार का रुख
मध्य प्रदेश
< मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि सरकार इस वर्ष किसानों से आठ रुपये किलो प्याज और समर्थन मूल्य पर मूंग खरीदेगी. यह खरीदारी 30 जून तक चलेगी.
< कृषि उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने के लिए 1,000 करोड़ रुपये के प्राइस स्टैबिलाइजेशन फंड बनाने की बात भी कही गयी है. मंडी में किसानों को 50 प्रतिशत का नकद भुगतान तत्काल किया जायेगा और बाकी के 50 प्रतिशत की राशि रियल टाइम ग्रॉस सेटलमेंट के जरिये उन्हें मिलेगी यानी यह रकम सीधा उनके बैंक खाते में डाल दी जायेगी.
< किसानों को कम आढ़त देनी पड़े, इसके लिए सब्जी मंडियों को मंडी अधिनयम के दायरे में लाया जायेगा.
< फसल बीमा योजना को ऐच्छिक बनाने और आंदोलन के दौरान किसानों के खिलाफ दर्ज मामले को वापस लेने का फैसला भी सरकार ने किया है.
महाराष्ट्र
< मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने कहा है कि सरकार 31 अक्तूबर से पहले जरूरतमंद किसानों के कर्जे माफ करेगी. इस तरह महाराष्ट्र में यह अब तक की सबसे बड़ी कर्ज माफी होगी.
आत्महत्या के आंकड़े
< 12,360 किसानों और श्रमिकों ने आत्महत्या की वर्ष 2014 में देशभर में.
< 12,602 किसानों और श्रमिकों ने आत्महत्या की वर्ष 2015 में देशभर में.
< वर्ष 2015 में महाराष्ट्र में 3030, तेलंगाना में 1,358, कर्नाटक में 1,197, छत्तीसगढ़ में 854, मध्यप्रदेश में 581, आंध्र प्रदेश में 516, उत्तर प्रदेश में 145, पंजाब में 100, असम में 84, गुजरात में 57, हरियाणा में 28, ओडिशा में 23, सिक्किम में 15, अरुणाचल प्रदेश में 7, केरल व राजस्थान में 3-3, मेघालय व तमिलनाडु में 2-2, और त्रिपुरा व मणिपुर में 1-1 किसानों ने आत्महत्या की.
सरकारों द्वारा की गयी कर्ज माफी की घोषणा
आंध्रप्रदेश : एन चंद्रबाबू नायडू ने 2014 के चुनाव में किसानों की कर्ज माफी की घोषणा की थी और सत्ता में आने के बाद यहां 40,000 करोड़ रुपये के कर्ज माफ कर दिये थे.
तेलंगाना : टीआरएस के चंद्रशेखर राव ने भी 2014 में किसानों के कर्ज माफी की घोषणा की थी. सत्ता में आने के बाद 20,000 करोड़ रुपये की कर्ज माफी दी गयी थी. उत्तर प्रदेश : मार्च में सत्ता में आयी भाजपा सरकार ने किसानों को 36,000 करोड़ रुपये की कर्ज माफी दी है.
पंजाब तक आंदोलन का प्रभाव?
महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में हो रहे किसान आंदोलन की आग बहुत जल्द पंजाब में भी फैल सकती है. कर्ज माफी और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की मांग को लेकर किसान संगठनों ने राज्यभर में 12 जून को प्रदर्शन करने का फैसला किया है. यहां की सरकार कर्ज माफ करेगी या नहीं, इसे लेकर अभी कोई फैसला नहीं हुआ है.
जरूरी है कृषि को केंद्र में लाना
वर्ष 1980 के बाद की उस स्थिर अवधि को छोड़, जब कृषि उपज 4 प्रतिशत की दर से बढ़ी और हमने गेहूं और चावल का निर्यात शुरू किया, सरकार द्वारा बाद में इस क्षेत्र में निवेश का अनुपात घटाते जाने से भारतीय कृषि संकट के दौर में आ गयी. ये 1990 के आरंभिक वर्ष थे, जब सरकार ने ‘ढांचागत सुधार’ एवं आर्थिक उदारीकरण की दुहाई देते हुए अहम जिम्मेदारियों और सेवाओं से मुंह मोड़ लिया. तदनुरूप, राष्ट्रीयकृत बैंकों ने भी अपनी प्राथमिकताओं से कृषि ऋणों को बाहर कर दिया. नतीजतन, कृषि क्षेत्र में मंदी के गंभीर नतीजों ने देश को कृषि क्षेत्र की व्यापक बदहाली तक पहुंचा दिया. खाद्य उत्पादन घट चला और इसके साथ ही उसकी प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी. खाद्यान्नों के आयात बढ़ाने पड़े और देश द्वारा इस क्षेत्र में हासिल आत्मनिर्भरता पर असर पड़ा.
यह संकट तब अपने चरम पर जा पहुंचा, जब एक लाख से अधिक किसानों ने उन वजहों से आत्महत्या कर ली, जिन्हें वैश्विक, राष्ट्रीय तथा स्थानीय श्रेणियों में बांटा जा सकता है. देश का मीडिया नगरोन्मुख हो गया, प्रभावशाली मध्यवर्ग विमर्श के केंद्र में आ गया और कृषि इससे बाहर हो गयी. हमारी कृषि ने विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का असर भी महसूस किया, जब सस्ते आयातों ने लघु तथा मध्यम जोतों के किसानों का जीना दूभर कर दिया.
2005-06 के बाद परिस्थितियों में सुधार आया, जब केंद्र तथा राज्य सरकारों ने इस बदहाली को संबोधित करने हेतु कई पहलकदमियां कीं, जिनसे इसके बाद के दशक में इस क्षेत्र की वृद्धि दर 3.75 प्रतिशत तक पहुंच गयी. इन कोशिशों के बूते इस क्षेत्र का सकल पूंजीकरण-जो निवेश में वृद्धि प्रदर्शित करता है-2004-05 के 75,000 करोड़ रुपयों से बढ़ कर 2010-11 में 1,40,000 करोड़ रुपयों पर चला गया. कृषि उत्पादन की वृद्धि घरेलू मांग को पार गयी. नतीजतन, कृषि निर्यात बढ़ा और किसानों को भी इसका लाभ बढ़े न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के रूप में मिला. इस दशक में कृषि निवेश में खासी बढ़ोतरी तो हुई ही, नरेगा की तुलनात्मक सफलता से ग्रामीण बदहाली में गिरावट लायी जा सकी और ग्रामीण उपभोग एवं मांग ने रफ्तार पकड़ी, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गति लाने की दीर्घकालीन जरूरत पूरी हो सकी.
यदि देश की अर्थव्यवस्था को 7-8 प्रतिशत की दर से विकसित होना है, तो कृषि क्षेत्र का विकास इसकी पहली अनिवार्यता है, जो 2012-13 तक 4 प्रतिशत की वृद्धि दर के बाद 2015-16 में 1 प्रतिशत के आसपास सिमट चुकी है. हालांकि जीडीपी में कृषि का योगदान केवल 17 प्रतिशत ही है, पर हमारी आबादी का आधा हिस्सा कृषि पर ही निर्भर है. ऐसे में, ग्रामीण क्षेत्र की आय, मांग और उपभोग में गिरावट हमारी सकल आर्थिक संभावनाओं के लिए घातक हो जाती है. दिहाड़ियों की निम्न दरें, निम्न आय और कृषि से मिलता निम्न लाभ इस ग्रामीण बदहाली को बदतरीन करते हुए एक ऐसे दुष्चक्र की रचना करते हैं, जिसे कृषि में ऊंचे निवेश एवं वृद्धि के बूते ही तोड़ा जा सकता है.
कृषि को एक बार फिर केंद्र में लाना आवश्यक है, ताकि इस क्षेत्र की विकास दर 4 प्रतिशत अथवा उससे भी ऊंचे स्तर पर बनी रह सके. इससे ग्रामीण आय, उपभोग तथा मांग में इजाफा तो होगा ही, हमारी पूरी अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर बढ़-चढ़ कर पड़ेगा. एमएसपी में बढ़ोतरी से किसान उन्नत बीजों के उपयोग, इनपुटों की मात्रा में वृद्धि, फसलों और मवेशियों की बेहतर देखभाल तथा उन्नत प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को प्रेरित होते हैं. इसी तरह, संस्थागत ऋणों की आपूर्ति और सिंचाई सुविधाओं के विस्तार से भी इस दिशा में तेज प्रगति सुनिश्चित की जा सकेगी. बिचौलियों की भूमिका समाप्त करने और कृषि उत्पादों के उपभोक्ताओं द्वारा चुकाने जानेवाली कीमतों में किसानों का हिस्सा बढ़ाने की जरूरत है, ताकि मुद्रास्फीति में इजाफे के बगैर किसानों की आय बढ़ायी जा सके.
अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के साथ अपने गहरे अंतर्संबंध की वजह से कृषि संकट उससे कहीं बड़ी विपत्ति है, जितना उसे समझा जाता है. गिरते कृषि उत्पाद के साथ ही किसानों की क्रयशक्ति भी नीचे आ जाती है, और उसी अनुपात में ग्रामीण बाजारों में गैर-कृषि चीजों की मांग और खपत भी गिर जाती है. संकटग्रस्त कृषक और मजदूर तब आजीविका की तलाश में शहरों का रुख करने और ऐसी स्थिति में गहरे ऋण जाल के ग्रामीण तंत्र की वजह से आत्महत्या करने को बाध्य हो जाते हैं.
किसानों को लाभदायी समर्थन मूल्य तथा अन्य उपायों का सहारा देने के अलावा, जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण ऋणग्रस्तता को अनियंत्रित हदों तक जाने से रोकने हेतु कठोर संस्थागत सुरक्षा उपायों के प्रावधान किये जायें. वक्त आ गया है कि किसानों को ऐसे किसी भी आर्थिक तथा राजनीतिक निर्णय के केंद्र में रखा जाये, जो उसकी आजीविका पर असर डालते हैं. किसानों की आवश्यकताओं तथा हमारे समाज में उनके हितों पर कॉरपोरेट लालच को हावी होने से रोकना ही होगा, क्योंकि किसान ही हमारे प्राथमिक उत्पादक और खाद्य सुरक्षा के वास्तविक प्रदानकर्ता हैं.
रूपेन घोष
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