रांची में गांधी के सौ साल

अश्विनी कुमार पंकज तीन जून, 1917 को गांधी पहली बार रांची आये थे. चार जून, 1917 को नियत समय पर उन्हें राजभवन, रांची में गवर्नर के सामने पेश होना था. सौ साल पहले गांधी की रांची यात्रा सुनियोजित नहीं थी. लेकिन, जब वे अप्रैल 1917 में चंपारण पहुंचे, उसके अगले महीने में ही उन्हें तत्कालीन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 15, 2017 6:46 AM
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अश्विनी कुमार पंकज

तीन जून, 1917 को गांधी पहली बार रांची आये थे. चार जून, 1917 को नियत समय पर उन्हें राजभवन, रांची में गवर्नर के सामने पेश होना था. सौ साल पहले गांधी की रांची यात्रा सुनियोजित नहीं थी. लेकिन, जब वे अप्रैल 1917 में चंपारण पहुंचे, उसके अगले महीने में ही उन्हें तत्कालीन बिहार-उड़ीसा के लेफ्टीनेंट गवर्नर ईए गेट द्वारा 27 मई, 1917 को भेजा ‘सम्मन’ मिला. इस सम्मन के अनुसार उन्हें चार जून 1917 को रांची हाजिर होना था.

तीन जून की शाम गांधी रांची पहुंच गये और तयशुदा कार्यक्रम के तहत चार जून को उनकी मुलाकात गवर्नर से राजभवन, रांची में हुई. जब गांधी रांची आये तो वे न सिर्फ गवर्नर से मिले, बल्कि उन्हीं दिनों उनका पहला परिचय यहां के आदिवासी समुदाय से हुआ. विशेषकर बेड़ो और मांडर इलाके के टाना भगतों से. वर्ष 1912 से आरंभ हुआ टाना आंदोलनकारियों का अनूठा अहिंसक सत्याग्रह और अवज्ञा आंदोलन तब भी जारी था. यह गौरतलब है कि गांधी ने इसी रांची दौरे के दौरान अहिंसक अवज्ञा आंदोलन को प्रत्यक्षतः देखा और आगे चलकर भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में अपने विचारों के साथ समन्वित कर उसका सफल प्रयोग किया.

जब गांधी को गवर्नर का सम्मन मिला था तो कांग्रेसियों में बड़ी घबड़ाहट मच गयी थी. बिहार कांग्रेस के नेताओं का पक्का अनुमान था कि गांधी रांची में गिरफ्तार कर लिये जायेंगे.

हालांकि गांधी ने सम्मन मिलते ही 30 मई, 1917 को पत्र लिख कर रांची पहुंचने की सहमति दे दी थी. पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘चंपारण में भू-संपत्ति संबंधी स्थिति के बारे में आपका 27 तारीख का पत्र मुझे मिल गया है. अगले सोमवार, चार जून को दोपहर को रांची में लेफ्टिनेंट-गवर्नर महोदय से मिलने में मुझे बड़ी खुशी होगी. …मैं तो रैयत की ओर से यही मनाऊंगा कि मैं ऐसा कुछ भी न करूं या कहूं, जिससे उसके इस जबर्दस्त कार्य पर कोई बुरा प्रभाव पड़े.’ पर बिहार के कांग्रेसी गवर्नर के बुलावे से आश्वस्त नहीं थे.

डॉ राजेंद्र प्रसाद इस संबंध में ‘सत्याग्रह इन चंपारण’ में लिखते हैं, ‘हमलोग समझ नहीं पा रहे थे गांधीजी को रांची क्यों बुलाया गया है. आशंका थी कि उन्हें वहीं रोक लिया जायेगा. आनन-फानन में सभी बड़े नेताओं को तार भेजकर पटना बुलाया गया. तय हुआ कि यदि गांधीजी गिरफ्तार हो जाते हैं तो चंपारण श्रीमान हक या मालवीय जी संभालेंगे.

गांधीजी की पत्नी जो उस समय कलकत्ता में थीं, उन्हें और और उनके छोटे बेटे देवदास को साबरमती टेलिग्राम भेजकर आने को कहा गया. बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद के साथ गांधी दो जून को पटना पहुंचे और उसी दिन दोनों रांची के लिए रवाना हुए. रास्ते में आसनसोल रेलवे स्टेशन से उन्होंने पत्नी और बेटे को भी साथ ले लिया.’ राजेंद्र बाबू के अनुसार इस मसले पर पटना में गठित आपात टीम और कोऑर्डिनेशन की जिम्मेदारी उन पर ही थी कि जैसे ही गांधी की गिरफ्तारी हो वे तुरंत कांग्रेस नेतृत्व को आगाह कर दें ताकि गिरफ्तारी के खिलाफ आंदोलनात्मक कार्यक्रम लिया जा सके.

बहरहाल, चार जून 1917 को गांधी नियत समय पर गवर्नर से मिले. गवर्नर से हुई बातचीत का ब्योरा उन्होंने अपने पत्र में दिया है. इसके अनुसार गवर्नर ने उनसे कहा – ‘मैंने श्री गांधी से कहा कि अब तो आपको जितनी-कुछ जानकारी की आवश्यकता थी, उसे प्राप्त करने के लिए पर्याप्त समय मिल चुका है, और उधर काश्तकार भी उत्तेजित हो रहे हैं; इसलिए जैसे भी हो, इस स्थिति को समाप्त करना आवश्यक है; क्योंकि यह बड़ी तेजी से खतरनाक रूप धारण करती जा रही है.’

चंपारण आंदोलन के क्रम में अक्तूबर, 1917 तक गांधी लगातार रांची आते रहे. जून से लेकर अक्तूबर तक कुल 21 दिनों का प्रवास गांधी ने रांची में किया. रांची प्रवास के दौरान गांधी ने चंपारण सत्याग्रह की पूरी रूपरेखा बनायी, किसानों, जमींदारों और सरकार के बीच समझौते आदि संबंधित कार्यों को संपादित किया. ‘चंपारण एग्रेरियन बिल’ यहीं ड्राफ्ट हुआ और 2 नवंबर 1917 को पारित होकर एक्ट बना. अपने परिवार के साथ रांची और आसपास के मनोरम जंगलों, प्रपातों आदि का भी विहार गांधी ने इन्हीं दिनों किया. उन्हें रांची के लोगों से बिरसा मुंडा के उलगुलान, 1912 में गठित ‘छोटानागपुर उन्नति समाज’ के सुधारवादी मांगों और टाना भगतों के अनोखे आंदोलन – अहिंसक सत्याग्रह – की जानकारी मिली. वे स्वयं टाना भगतों से मिलने बेड़ो गये और मांडर के टाना भगतों को भी देखा.

‘ग्राम स्वराज’ और ‘खादी’ की पूरी की पूरी अवधारणा गांधी ने हर मामले में आत्मनिर्भर आदिवासियों से ली थी. औपनिवेशिक काल से पहले भोजन, वस्त्र और आवास, इन तीनों बुनियादी जरूरतों के लिए आदिवासी कभी किसी पर निर्भर नहीं रहे. यहां तक कि नमक भी वे अपना बनाया ही इस्तेमाल करते थे. आज भी बहुत सारे मामलों में आदिवासी स्व-निर्भर हैं. परजीवीपन उनके दर्शन में नहीं है.

इसलिए कहा जा सकता है कि ‘सत्याग्रह’ और ‘ग्राम स्वराज’ की सीख गांधी को आदिवासियों से अनायास मिली, जिसका उन्होंने आजीवन ‘सायास’ प्रयोग किया और ‘महात्मा’ कहलाये. चंपारण ने गांधी को पहली बार भारत के ग्रामीण समाज से अंतरंग होने का अवसर दिया तो रांची, झारखंड के आदिवासियों ने उनके सत्याग्रह और ‘ग्राम स्वराज’ के रचनात्मक आंदोलन की परिकल्पना को जमीनी प्रयोग में बदलने का आत्मिक बल प्रदान किया.

(लेखक चर्चित उपन्यास ‘माटी माटी अरकाटी’ के रचनाकार हैं और ‘जोहार सहिया’ के संपादक हैं.)

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