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इमरजेंसी : जागते रहो का दिन

आज हमने जनता को नहीं जगाया, तो एक बार फिर कहना पड़ेगा कि अरे ‘यह क्या हो गया’ कुमार शुभमूर्ति 26 जून, 1975 की सुबह आठ बजे से हम संघर्ष वाहिनी के युवा साथी एक जगह जुटने लगे थे. पटना के हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन में संघर्ष वाहिनी का सम्मेलन आयोजित था. इस निर्दलीय युवा […]

आज हमने जनता को नहीं जगाया, तो एक बार फिर कहना पड़ेगा कि अरे ‘यह क्या हो गया’
कुमार शुभमूर्ति
26 जून,
1975 की सुबह आठ बजे से हम संघर्ष वाहिनी के युवा साथी एक जगह जुटने लगे थे. पटना के हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन में संघर्ष वाहिनी का सम्मेलन आयोजित था. इस निर्दलीय युवा संगठन की नींव स्वयं लोकनायक जयप्रकाश ने डाली थी. इस सम्मेलन में जयप्रकाश जी वाहिनी नायक के रूप में भाग लेने के लिए दिल्ली से आने वाले थे. पटना हवाई अड्डे से अपने निवास महिला चरखा समिति जाकर सम्मेलन स्थल तक वे कैसे आयेंगे, यह सिरदर्द हमलोगों का नहीं था. हमलोग तो इन्हीं ख्यालों में थे कि जेपी अब कैसे जनता सरकार के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए हमारा नेतृत्व करेंगे. कुछ ही दिन पहले जयप्रकाश जी ने यह घोषणा की थी कि अब मैं संपूर्ण क्रांति आंदोलन के प्रचारात्मक या संघर्षात्मक कार्यक्रमों के बदले ‘जनता सरकार’ के इस बुनियादी कार्यक्रम पर ज्यादा जोर दूंगा.
इस बीच एक ऐसी खबर आयी, जिसकी आशंका किसी को नहीं थी. मध्य रात्रि (25 जून) में आपातकाल की घोषणा कर दी गयी थी. रात के करीब दो बजे लोकनायक जयप्रकाश को सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें किसी अज्ञात स्थान की ओर ले जाया गया था. नेताओं की गिरफ्तारी, लिखने-बोलने की आजादी और सभा-सम्मेलनों पर प्रतिबंध, मीसा जैसा भयंकर कानून, ये सब एक साथ लागू कर दिये गये. सारा देश स्तब्ध था.
जयप्रकाश जी का यह आकलन कितना सही निकला कि देश की प्रधानमंत्री देश को तानाशाही की तरफ ले जा रही हैं. इमरजेंसी क्यों लगा दी गयी, इसकी थोड़ी गहराई से छानबीन की जाये, तो एक तात्कालिक कारण तुरंत सामने आता है. वह कारण एक व्यक्ति पर आधारित है, और इस तरह कि स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगायी थी, तो सिर्फ अपनी कुरसी बचाने के लिए.
इलाहाबाद हाइकोर्ट में उस वक्त के प्रसिद्ध समाजवादी नेता राजनारायण ने एक केस दायर किया था. 13 जून, 1975 को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने यह फैसला दिया कि इंदिरा गांधी निर्वाचन अवैध है. ऐसे में इंदिरा गांधी ने इस्तीफा न देकर यही ठीक समझा कि सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाये. सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले को सरसरी नजर से देखा, तो उसे उस फैसले में काफी दम दिखा. उसने फैसले की जांच करना तो स्वीकार कर लिया, लेकिन प्रधानमंत्री पर कुछ महत्वपूर्ण बंदिशें लगा दीं. सबसे बड़ी बंदिश यह कि जब तक प्रधानमंत्री का सांसद होना संदिग्ध है, तब तक वे कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकतीं. तभी सभी विपक्षी दलों ने मिल कर दिल्ली में 25 जून, 1975 को एक आम सभा का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण को भी जन आंदोलन की तरफ से अपनी बात रखने के लिए आमंत्रित किया. उन दिनों जयप्रकाश जी के नेतृत्व में चल रहा संपूर्ण क्रांति का जन आंदोलन अपनी तेजी पर नहीं था. लेकिन, वह बिहार तक ही सीमित न रह कर देश के अनेक प्रांतों में फैल चुका था.
इसे देश के लगभग सभी वर्गों और बुद्धिजीवियों का समर्थन मिल चुका था. 25 जून की उस सभा में जयप्रकाश जी ने विरोधी दलों द्वारा इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग का समर्थन किया. जयप्रकाश को इंदिरा गांधी के स्वभाव का अंदाजा था, इसलिए उन्होंने जनता को दबाने वाली संवैधानिक शक्तियों-पुलिस और फौज के लोगों से संविधान प्रदत्त शक्ति के अंदर रह कर ही काम करने की अपील की. उन्होंने कहा कि सरकार के किसी भी गैरकानूनी आदेश का पालन वे न करें. यह बात संविधान की भावना के अनुकूल तो है ही, लिखित रूप से कानून में भी निर्दिष्ट है.
इंदिरा जी ने फैसला ले लिया था. नेताओं को तो गिरफ्तार किया ही, सारे देश पर इमरजेंसी थोप दी. सारा विपक्ष या तो जेल में था या भूमिगत हो गया था. संसद का सत्र बुलाया गया और बिना विपक्ष के ही संसद की कार्रवाइयां चलायी गयीं. कानून बदले गये, संविधान में संशोधन किया गया. ऐसे संशोधनों का विरोध करते हुए जस्टिस एचआर खन्ना ने कहा कि यह संविधान का न तो एमेंडिंग है और न मेडिंग है, बल्कि यह तो संविधान की एंडिंग है.
इमरजेंसी के डेढ़ वर्ष में कोई खुशहाल था, कोई दुखी, लेकिन सभी कैदी थे. सारा देश एक कैदखाना बन गया था. अधिकारों की बात तो छोड़िए, जीने का अधिकार भी कानूनी रूप से छीन लिया गया था.
संविधान मृतप्राय हो गया था. आम चुनाव भी समय आने पर टाल दिया गया था. 1977 की जनवरी में घोषणा कर दी गयी कि चुनाव मार्च में होंगे.
अब बाकी इतिहास को छोड़ दें. वर्तमान को देखें. आज सारे देश में सत्ता से डर का एक वातावरण है. कानून के बाहर अनेक स्थानों पर ऐसे अनेक संगठन या गैंग सक्रिय हो गये हैं, जो कानून को अपने हाथ में लेकर कहते हैं कि हम धर्म की रक्षा या राष्ट्र की रक्षा में लगे हुए हैं.
कुछ तो मारे भी जा रहे हैं. इन मारे जा रहे लोगों में सिर्फ मुसलिम और दलित ही नहीं हैं, कुछ तो देश के चोटी के बुद्धजीवी भी हैं. प्रधानमंत्री इन मुद्दों पर पूर्व प्रधानमंत्री से भी ज्यादा मौन हैं. यही वक्त है, जब हमें जनता को जगाना चाहिए, नहीं तो एक बार फिर हमें स्तब्ध होकर कहना पड़ेगा कि अरे ‘यह क्या हो गया’? और ध्यान रहे कि आज हमारे बीच कोई जयप्रकाश नहीं है.
(लेखक संघर्ष वाहिनी के प्रथम राष्ट्रीय संयोजक रह चुके हैं)

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