आर्टिफिशियल ब्लड : रक्त का विकल्प बनाने की तैयारी

गंभीर समझी जानेवाली बीमारियों का इलाज मुमकिन बनाते हुए मेडिकल साइंस के क्षेत्र में अब तक अनेक उपलब्धि हासिल की जा चुकी है. मेडिकल विज्ञानी अनेक अंगों का प्रत्यारोपण भी कर चुके हैं, लेकिन कृत्रिम रक्त बनाने में कामयाबी नहीं मिल पायी है. ऐसे में कृत्रिम रक्त का विकल्प तैयार होना भी बड़ी उपलब्धि होगी, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 29, 2017 6:38 AM

गंभीर समझी जानेवाली बीमारियों का इलाज मुमकिन बनाते हुए मेडिकल साइंस के क्षेत्र में अब तक अनेक उपलब्धि हासिल की जा चुकी है. मेडिकल विज्ञानी अनेक अंगों का प्रत्यारोपण भी कर चुके हैं, लेकिन कृत्रिम रक्त बनाने में कामयाबी नहीं मिल पायी है.

ऐसे में कृत्रिम रक्त का विकल्प तैयार होना भी बड़ी उपलब्धि होगी, जिसे हासिल करने की दिशा में वैज्ञानिक आगे बढ़ चुके हैं और वह दिन दूर नहीं जब इस मकसद को समग्रता से हासिल किया जा सकेगा. क्या बड़ी कामयाबी हाथ लगी है मेडिकल वैज्ञानिकों को, समेत इससे संबंधित अन्य पहलुओं पर चर्चा कर रहा है आज का मेडिकल हेल्थ आलेख… मेडिकल वैज्ञानिकों ने एक नये कॉन्सेप्ट की खोज की है, जिससे इस बात की उम्मीद बढ़ गयी है कि कृत्रिम रक्त निर्माण की राह में जल्द ही बड़ी कामयाबी हासिल हो सकती है. शोधकर्ताओं ने इसके लिए इम्मोर्टल सेल्स यानी अमर्त्य कोशिकाओं के तौर पर पहचाने जानेवाली अर्ली-स्टेज स्टेम सेल्स का इस्तेमाल किया है. इनकी मदद से प्रयोगशाला में अरबों रेड ब्लड सेल्स काे विकसित किया गया है.

प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘नेचर कम्युनिकेशन’ में प्रकाशित संबंधित लेख के हवाले से ‘डेली मेल’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि शोधकर्ताओं ने उम्मीद जतायी है कि इस नयी तकनीक के विकसित होने से भविष्य रक्त के दुर्लभ प्रकार को भी बनाने में सफलता मिल सकती है. इस तकनीक के विकसित होने से दुर्लभ प्रकार के रक्त वाले लोगों को बड़ी मदद मिल सकती है.

पारंपरिक तौर पर कृत्रिम निर्माण एक प्रकार के स्टेम सेल पर निर्भर करता है, जिसके तहत इनसान के शरीर में अक्सर रेड ब्लड सेल्स यानी लाल रक्त कोशिकाएं पैदा की जाती हैं. लेकिन, यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टोल के शोधकर्ताओं ने एक नये मैथॉड की खोज की है, जिसमें ‘इम्मोर्टल’ यानी अमर्त्य स्टेम सेल्स का इस्तेमाल किया गया है.

शोधकर्ताओं ने स्टेम सेल्स को एक खास तरीके से मेनिपुलेट करते हुए ‘इम्मोर्टल’ सेल्स का सृजन किया है. स्टेम सेल्स जब अर्ली स्टेज में होते हैं, तब वे तेजी से असंख्य कोशिकाओं में विभाजित किये जा सकते हैं. इसके विपरीत, अब तक स्टेम सेल्स का इस्तेमाल कुछ इस तरह से हो पाता है कि उनके नष्ट होने से पहले उनसे महज 50,000 रेड ब्लड सेल्स बनाये जा सकते हैं. अस्पतालों में रक्त के एक टिपिकल बैग में करीब एक खरब रेड ब्लड सेल्स मौजूद होते हैं.

यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के संबंधित विशेषज्ञ डॉक्टर जैन फ्रेन का कहना है, ‘पूर्व के शोधों में रेड ब्लड सेल्स पैदा करने के लिए स्टेम सेल्स के विविध स्रोताें पर भरोसा करना पडा है, जिनके जरिये बेहद सीमित तादाद में ही इन्हें पैदा किया जा सकता है.’ फ्रेन कहते हैं, ‘वैश्विक स्तर पर वैकल्पिक रेड सेल प्रोडक्ट की जरूरत महसूस की जा रही है. दरअसल, कल्चर्ड रेड ब्लड सेल्स के साथ एक बड़ी खासियत है कि इनसानों से हासिल की गयी कोशिकाओं के मुकाबले इससे संक्रामक बीमारियाें के फैलने का जोखिम बहुत कम रहता है.’

इसके अलावा शोधकर्ता किसी ऐसे बायोलॉजिकल टूल्स का विकास करना चाहते हैं, ताकि उसकी मदद से व्यापक पैमाने पर और कम खर्च में इसका निरंतर निर्माण मुमकिन हो सके. यदि ब्रिटेन में ही इसकी जरूरतों की बात करें, तो प्रत्येक वर्ष मरीजों की जान बचाने के लिए करीब 1.5 मिलियन यूनिट रक्त एकत्रित करना होता है.

नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर हेल्थ रिसर्च ब्लड एंड ट्रांसप्लांट रिसर्च यूनिट के डायरेक्टर प्रोफेसर डेव एन्स्टी का कहना है, ‘वैज्ञानिक पिछले कई वर्षों से यह जानने में जुटे हैं कि ऐसे रेड ब्लड सेल्स का निर्माण किस तरह से किया जाये, ताकि उनकी मदद से मरीजों को उपचार का वैकल्पिक माध्यम मुहैया कराया जा सके.’

कल्चर्ड रेड सेल प्रोडक्ट का पहले थेराप्यूटिक के रूप में इस्तेमाल मरीजों पर तब किया जाता है, जब उसका रक्त समूह दुर्लभ हो, क्योंकि पारंपरिक तौर पर उनके लिए रेड ब्लड सेल हासिल करना बहुत ही कठिन होता है.

प्रोफेसर डेव एन्स्टी का कहना है, ‘वैज्ञानिकों का यह इरादा नहीं है कि ब्लड डोनेशन को रिप्लेस कर दिया जाये, लेकिन वे चाहते हैं कि खास समूह के मरीजों के लिए खास किस्म के इलाज की सुविधा विकसित की जा सके. सिकल सेल डिजीज और थैलेसेमिया जैसी बीमारी के शिकार मरीजों के लिए यह खास सुविधा ज्यादा अनुकूलित हो सकती है, क्योंकि उन्हें सटीक तौर पर मिलते-जुलते रक्त के ट्रांसफ्यूजन की सबसे ज्यादा जरूरत होती है.’

हालांकि, अब तक इनसानों पर इसका परीक्षण नहीं किया गया है, लेकिन शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस तरीके से किये जानेवाले ब्लड ट्रांसफ्यूजन के पहले क्लिनीकल परीक्षण को इस वर्ष के आखिर तक अंजाम दिया जा सकेगा.

काफी समय से चल रही कृत्रिम रक्त बनाने की कवायद

वैज्ञानिक पिछले लंबे अरसे से यह जानने में जुटे हैं कि कृत्रिम रक्त कैसे बनाया जा सकता है. वे यह मानते हैं कि लाल रक्त कणिकाओं को तथाकथित वयस्क स्टेम सेल से पैदा किया जा सकता है. लेकिन, इस तरीके से बड़े पैमाने पर खून नहीं बनाया जा सकता है. क्योंकि कोशिकाओं की प्रतिबंधात्मक क्षमता उसे प्रचुर मात्रा में पैदा करने से रोकती है. वैज्ञानिक यह जान चुके हैं कि मल्टी पावर स्टेम सेल- स्टेम सेल लाइंस या तो भ्रूण या फिर वयस्क ऊतक से प्राप्त किया जा सकता है. इन कोशिकाओं को प्रयोगशाला में संसाधित कर बड़े पैमाने पर सृजित किया जा सकता है.

ब्रिटेन में ब्लड ट्रांसफ्यूजन विभाग के संबंधित विशेषज्ञ टर्नर के हवाले से ‘डीडब्ल्यू’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि वे अब भी रक्त के औद्योगिक उत्पादन के सस्ते और सुरक्षित तरीकों तक नहीं पहुंचे हैं.

टर्नर के मुताबिक, ‘हमारे पास अब यह चुनौती है कि प्रयोगशाला आधारित प्रक्रिया को उत्पादन के माहौल में ले जाएं जहां क्वालिटी कंट्रोल, विनियामक अनुपालन को कड़ाई से लिया जाता हो. लाखों पाउंड खर्च कर लाखों रक्त कणिकाओं को बनाने का कोई तर्क नहीं है. कोई उसे इस्तेमाल नहीं करेगा. विकसित अर्थव्यवस्थाओं में आबादी के लिए पर्याप्त रक्त की आपूर्ति रहती है. लेकिन दुनिया में ऐसे भी बहुत सारे लोग हैं, जिन्हें पर्याप्त मात्रा और सुरक्षित रक्त नहीं मिलता है.

पाउडर के रूप में स्टोर किया जा सकेगा आर्टिफिशियल ब्लड

कृत्रिम रक्त के विकल्पों की तलाश करनेवाले वैज्ञानिकों ने एक ऐसे पाउडर का विकास किया है, जिसका इस्तेमाल से भविष्य में मरीजों को बचाने में कामयाबी मिल सकती है. इसे विकसित करनेवाले वैज्ञानिकों ने उम्मीद जतायी है कि पाउडर के प्रारूप में कृत्रिम रक्त को आगामी एक दशक में तरह से विकसित कर लिया जायेगा. इसे सूखे पाउडर के प्रारूप में फ्रिज करके रखा जायेगा और जरूरत के समय मरीजों में ट्रांसफ्यूज किया जायेगा. दुर्घटना और युद्ध की दशा में घायलों को बचाने में यह बेहद कारगर साबित हो सकता है.

इस नयी खोज के केंद्र में छोटी-छोटी सिंथेटिक कोशिकाएं हैं, जो बिल्कुल लाल रक्त कोशिकाओं से मेल खाती हैं. शरीर में सर्कुलेशन के दौरान इनमें भी ऑक्सीजन की प्रक्रिया ठीक उसी तरह होती है, जैसी कि मौलिक रूप से लाल रक्त कोशिकाओं से होती है. ‘डेली मेल’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सेंट लूइस स्थित वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों द्वारा विकसित की गयी कृत्रिम कोशिकाएं ऊतकों तक अपने साथ ऑक्सीजन भी कैरी करती हैं. पशुओं में किये गये परीक्षण में यह प्रभावी पाया गया है.

इनसान की लाल रक्त कोशिका के मुकाबले करीब दो फीसदी के आकार वाली इन सिंथेटिक रक्त कोशिकाओं की बडी खासियत यह होगी कि इन्हें कमरे के तापमान पर स्टोर करे रखा जा सकता है. इस शोध के प्रमुख डॉक्टर एलन का कहना है, ‘देखने में यह एक तरह से शिमला मिर्च के पाउडर की तरह लगता है. इसे आइवी प्लास्टिक बैग में स्टोर करके रखा जा सकता है, ताकि जरूरत के मुताबिक इसे कहीं भी ले जाया जा सके. जरूरत के समय इसे पानी में घोल कर तुरंत इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

रक्त का विकल्प – इरीथ्रोमेर

इरीथ्रोमेर नामक इस कृत्रिम रक्त का पशुओं पर परीक्षण प्रभावी रहा है और अब इसका इनसानों पर क्लिनीकल परीक्षण किया जायेगा. हालांकि, इनसानी रेड ब्लड सेल्स की हमारे शरीर में करीब 120 दिनों तक जिंदा रहते हैं, लेकिन यह कृत्रिम कोशिकाएं महज कुछ ही दिनों तक जीवित रह पायेंगी.

इसके बावजूद ट्रॉमा के मरीजों के लिए यह वरदान साबित हो सकती है, जिन्हें तत्काल ज्यादा तादाद में रक्त की जरूरत होती है. हालांकि, पूर्व में भी सिंथेटिक ब्लड के प्रोटोटाइप तैयार किये गये हैं, लेकिन वे ऑक्सीजन को प्रभावी तरीके से सर्कुलेट नहीं कर पाये और पीएच में आये बदलाव को शरीर के हिसाब से अनुकूलित नहीं कर पाये, लिहाजा इस दिशा में कामयाबी नहीं मिल पायी थी. लेकिन, इरिथ्रोमेर के बारे में यह उम्मीद की जा रही है कि आगामी एक दशक में मरीजों को इस्तेमाल के लिए मुहैया कराया जा सकता है.

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