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अमरनाथ के तीर्थयात्रियों पर हमला : उम्मीद के दामन पर यह बड़ा धब्बा
आतंकी वारदात अमरनाथ गुफा के तीर्थयात्रियों पर कायराना आतंकी हमले ने एक बार फिर यह साबित किया है कि आतंकवादी इंसानियत के दुश्मन हैं. देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ कर हिंसा और अव्यवस्था फैलाने के मंसूबे से किया गया यह हमला यह भी सबक देता है कि आतंकवाद के खिलाफ सघन लड़ाई की जरूरत […]
आतंकी वारदात
अमरनाथ गुफा के तीर्थयात्रियों पर कायराना आतंकी हमले ने एक बार फिर यह साबित किया है कि आतंकवादी इंसानियत के दुश्मन हैं. देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ कर हिंसा और अव्यवस्था फैलाने के मंसूबे से किया गया यह हमला यह भी सबक देता है कि आतंकवाद के खिलाफ सघन लड़ाई की जरूरत है तथा सुरक्षा इंतजामों को उत्तरोत्तर चाक-चौबंद करना होगा. इस हमले से जुड़े विविध पहलुओं पर नजर डालते हुए प्रस्तुत है आज का इन-डेप्थ…
हर आतंकी घटना या हमले के बाद उसके कारणों को लेकर कई सारी खामियां और चूक गिनायी जाती हैं. और कहा जाता है कि सुरक्षा में चूक के कारण आतंकियों ने इस हमले को अंजाम दिया. इन चूक और खामियों पर जरूर बात होनी चाहिए, उस पर बहस होनी चाहिए, उसकी जांच होनी चाहिए और इस नतीजे पर पहुंचने की कोशिश होनी चाहिए कि आखिर तमाम सुरक्षा व्यवस्थाओं के बावजूद ये खामियां रह कैसे गयीं कि आतंकियों को हमले का मौका मिल गया.
लेकिन, इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि आतंकियों द्वारा लोगों को मार दिये जाने की वजह सिर्फ ये खामियां ही हैं. मेरी नजर में इस हमले की सिर्फ एक ही वजह है, और वह है- आतंकवाद. अगर आतंकवाद नहीं होता, तो सुरक्षा में हजार खामियां भी लोगों की जान जाने की वजह नहीं बन सकतीं. दहशत फैलाने और लोगों को मारने का जो उद्देश्य है, वही आतंकवाद है. यह कहना उचित नहीं होगा कि सुरक्षा व्यवस्था में चौकसी नहीं बरती गयी, इसलिए यह आतंकी हमला हो गया और लोग मारे गये. ऐसा कहना एक प्रकार से मामले से बच निकलने की कवायद वाली बात है.
दरअसल, सुरक्षा व्यवस्था में चूक की बात करना आतंकी हमलों में हुई हत्याओं पर परदा डालने का एक तरीका है. यह ठीक बात नहीं है.
इसलिए मेरा मानना है कि सिर्फ आतंकवाद ही ऐसे हमलों की वजह है. क्योंकि जो हमलावर है, जो मरने-मारनेवाला है, उसके लिए तो चाहे कितनी भी सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी जाये, वह अपनी जान देकर हमले को अंजाम दे सकता है. इसलिए आतंकवाद के दायरे में जान देकर हमले करने की जो प्रवृत्ति है, यह खतरनाक है और इसी पर रोक लगाने की जरूरत है.
दरअसल, लोग गलती यह करते हैं कि इन दोनों मसलों को एक-साथ मिला कर देखते हैं, जबकि सुरक्षा व्यवस्था में खामियां और आतंकी हमले, इन दोनों को अलग-अलग करके देखने की जरूरत है. इन दोनों को जब भी एक-साथ करके देखा जायेगा, असल मसला कालीन के नीचे दब कर रह जायेगा और हम बहाना बना कर अपना काम चलाते रहेंगे. अक्सर हमने यही देखा है कि राजनीतिक गलियारे में और मीडिया में किसी हमले पर तवज्जो कम होता है, बल्कि सुरक्षा व्यवस्था की खामियों पर ज्यादा होती है. और कहा जाता है कि सुरक्षा में चूक के कारण यह हमला हुआ. ऐसा कहना नादानी वाली बात है. इसलिए जरूरी है कि आतंकी हमलों में हत्याओं को एक तरीके से और सुरक्षा व्यवस्था की खामियों को दूसरे तरीके से देखा जाये. इसका मतलब यह नहीं है कि मैं खामियों की अनदेखी करने की बात कर रहा हूं.
मेरे हिसाब से तो उस पर बहस के साथ उसकी जांच भी होनी चाहिए और यह देखा जाना चाहिए कि किन-किन सुरक्षा प्रावधानों का उल्लंघन हुआ, जिससे आतंकियों को मौका मिला. सुरक्षा व्यवस्था की खामियों पर विचार-विमर्श के साथ ही हमारी सरकारों ने जो नरमी बरती हुई है, उस पर भी विचार किये जाने की जरूरत है. क्योंकि नेताओं और पार्टियों के लिए अपने वोट बैंक की राजनीति को बनाये रखना होता है.
अमरनाथ यात्रियों पर हुए हमले के बाद वहां हालत नाजुक बनी हुई. लेकिन अच्छी बात यह है कि वहां हालात बेकाबू नहीं हुए हैं. यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि कश्मीर में जो कुछ भी होता है, जो कोई भी घटना घटती है, उसमें कहीं-न-कहीं पाकिस्तान का हाथ होता ही है. लेकिन, मैं फिर कहूंगा कि घटनाओं के लिए सिर्फ पाकिस्तान को जिम्मेवार मानने का बहाना उचित नहीं है.
कश्मीर में अगर किसी आतंकी समर्थक को पकड़ा जाता है और उसको अगर कोई चीन से सरकारी लोग और राजनेता आकर छुड़वा लेते हैं, तो इसमें न तो पाकिस्तान की गलती है और न ही हमारी गलती है. जब भी अगर सुरक्षा के कड़े कदम उठाने की जरूरत पड़ती है, तो राज्य सरकार में मंत्री और नेता लोग बाधा बन जाते हैं, क्योंकि उन्हें अपना वोट बैंक भी बचाना होता है. अब यह न तो पाकिस्तान की गलती है और न ही हमारी गलती है. जिस दिन हम इस चीज से बाहर जायेंगे, उस दिन आतंकवाद पर लगाम लगाने में फौरन ही कामयाब हो जायेंगे.
कश्मीर में जो हालात खराब हुए हैं, या जान-बूझ कर हालात खराब होने दिये गये हैं, इसमें राजनीति की बड़ी भूमिका है. बीते आठ-दस साल में कश्मीर में इस्लाम में जो बदलाव आया है, उसमें सुधार की जरूरत है. पहले कश्मीर में इस्लाम बहुत उदार और सूफियों वाला इस्लाम हुआ करता था, जो अब बदल कर सख्ती वाला और कट्टर हो गया. इसमें सुधार की जरूरत तो है, लेकिन वहां के नेता और मंत्री ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहते, क्योंकि वे डरते हैं कि इससे उनका वोट बैंक बिगड़ जायेगा. पीडीपी की समस्या यह है कि उसका सारा फोकस कश्मीर क्षेत्र में ही है, जहां पर उसकी ज्यादा सीटें हैं. अगर कट्टरता को रोकने के लिए पीडीपी वहां कड़े कदम उठाती है, तो उसको यह लगने लगता है कि अगली बार के चुनाव में खड़ा होना उसके लिए मुश्किल हो जायेगा. वहीं दूसरी ओर, बाकी देशभर में जो सांप्रदायिक तनाव पिछले कुछ समय में पैदा हुआ है, उसका भी असर कश्मीर में नजर आ रहा है.
यहीं पर सरकार की जिम्मेवारी है कि वह कड़े कदम उठाये. लेकिन, सरकार सारा दोष पाकिस्तान के मत्थे मढ़ कर खुद को बचाने की कोशिश करती है. इसमें कोई दो राय नहीं कि पाकिस्तान एक विलेन है, लेकिन सरकार की जिम्मेवारी है कि वह हीरो की तरह कड़े कदम उठाये और विलेन को मात दे. सिर्फ दोष देकर किनारा कर लेना सरकार की जिम्मेवारी नहीं है. लेकिन, अफसोस है कि वोट बैंक की राजनीति के चलते हमारी सरकारें कड़े कदम नहीं उठा पातीं.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने की जरूरत
सुशांत सरीन
रक्षा विशेषज्ञ
सुरक्षा व्यवस्था में चूक की बात करना आतंकी हमलों में हुई हत्याओं पर परदा डालने का एक तरीका है. यह ठीक बात नहीं है. इसलिए मेरा मानना है कि सिर्फ आतंकवाद ही ऐसे हमलों की वजह है. क्योंकि जो हमलावर है, जो मरने-मारनेवाला है, उसके लिए तो चाहे कितनी भी सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी जाये, वह अपनी जान देकर हमले को अंजाम दे सकता है.
पाक समर्थित आतंकियों ने दिया हमले को अंजाम
अमरनाथ दर्शन के लिए जा रहे बस सवार यात्रियों पर अनंतनाग जिले में आतंकियों के हमले में छह महिलाओं समेत सात लोगों की मौत हो गयी और 19 अन्य लोग घायल हो गये. आइजी कश्मीर मुनीर खान ने हमले के पीछे पाकिस्तानी आतंकी गुट लश्कर-ए-तैयबा का हाथ बताया है.
15 साल बाद चरमपंथियों ने श्रद्धालुओं को बनाया निशाना
1993 में पहली बार पाकिस्तानी आतंकी गुट हरकत-उल-अंसार ने अमरनाथ यात्रियों पर हमला किया था. उस वक्त कश्मीर में चरमपंथ से कश्मीरी पंडितों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा.
इस हमले से पहले भी श्रद्धालुओं पर कई आतंकी हमले हो चुके हैं. चरमपंथियों ने अगस्त, 2000 में पहलगाम बेस कैंप पर हमला कर दिया था, जिसमें 21 अमरनाथ यात्रियों समेत 32 लोगों की मौत हो गयी थी. जुलाई, 2001 में गुफा के रास्ते पर हुए हमले में 13 लोगों की मौत हो गयी थी, जिसमें तीन महिलाओं समेत दो पुलिस अधिकारी मारे गये थे. पहलगाम में ही अगस्त, 2002 में एक बार फिर हमला हुआ, जिसमें नौ लोगों की मौत हो गयी थी, जिसमें 30 अन्य घायल हुए थे.
यात्रियों को कैसे दी जाती है सुरक्षा
कश्मीर में लगातार बढ़ती आतंकी वारदातों के बीच यात्रियों की सुरक्षा के कड़े इंतजाम किये गये हैं. पिछले एक वर्ष से घाटी में जारी हिंसा और आतंकवादियों पर सेना द्वारा की जा रही कार्रवाई के बीच सुरक्षा को पुख्ता बनाने के लिए 14,000 जवानों को तैनात किया गया है. सेना, अर्धसैनिक बल और राज्य पुलिस के जवान 300 किलोमीटर लंबे रूट की निगरानी में लगाये गये हैं. गत वर्ष अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा में लगाये गये जवानों के मुकाबले यह संख्या दो गुनी है. अत्याधुनिक तकनीकों से सुसज्जित सीआरपीएफ और बीएसएफ की 100 टुकड़ियां तैनात हैं.
कैसे पूरी होती है अमरनाथ यात्रा
पवित्र अमरनाथ गुफा तक पहुंचने के लिए दो प्रमुख रास्ते हैं. पहला रास्ता दक्षिण कश्मीर के पहलगाम से होकर जाता है, जिसे पूरा करने में पांच दिन लगते हैं. कुल 46 किलोमीटर की यात्रा पैदल ही पूरी करनी होती है. दूसरा रास्ता सोनमर्ग के बालटाल से है, जो कि काफी दुर्गम है. मुश्किल चढ़ाई वाले इस रास्ते की लंबाई लगभग 16 किलोमीटर ही है. सावन महीने में यात्रा शुरू होती है, जो लगभग डेढ़ महीने तक चलती है.
अमरनाथ श्राइन बोर्ड आयोजित करता है यात्रा
अमरनाथ यात्रा की परंपरा सदियों पुरानी है. लगभग 45 दिन तक चलनेवाली इस यात्रा के लिए देश-दुनिया से श्रद्धालु पहुंचते हैं. श्रद्धालुओं की लगातार बढ़ती संख्या के मद्देनजर वर्ष 2000 में अमरनाथ श्राइन बोर्ड का गठन किया गया. यह बोर्ड राज्य सरकार की मदद से अमरनाथ यात्रा का आयोजन और निगरानी करता है.
उम्मीद के दामन पर यह बड़ा धब्बा
अशोक कुमार पांडेय
टिप्पणीकार
अमरनाथ का जिक्र छठवीं शताब्दी में लिखे नीलमत पुराण से लेकर कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी में भी पाया जाता है, जहां यह कथा नाग शुर्श्रुवास से जुड़ती है, जिसने अपनी विवाहित पुत्री के अपहरण का प्रयास करनेवाले राजा नर के राज्य को जला कर खाक कर देने के बाद दूध की नदी जैसे लगनेवाली शेषनाग झील में शरण ली, और कल्हण के अनुसार अमरेश्वर की तीर्थयात्रा पर जानेवाले श्रद्धालुओं को इसका दर्शन होता है.
सोलहवीं सदी में कश्मीर आये बर्नियर के यहां भी इसका वर्णन मिलता है और संभवतः 17वीं सदी तक यह यात्रा जारी रही थी. आधुनिक काल में कोई डेढ़ सौ साल पहले एक मुस्लिम चरवाहे बूटा मलिक ने इस गुफा को फिर से तलाशा तथा आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर श्रावण पूर्णिमा के बीच में बड़ी संख्या में यात्रियों का गुफा में निर्मित हिम शिवलिंग के दर्शन के लिए जाना शुरू हुआ.
वर्ष 1991-95 के बीच कश्मीर में आतंकवाद के चरम स्थितियों के अलावा यह यात्रा लगभग निर्बाध रूप से चलती रही है. अक्तूबर, 2000 में राज्य के तत्कालीन पर्यटन मंत्री एसएस सलातिया ने यात्रा के प्रबंधन के लिए श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के निर्माण का विधेयक प्रस्तुत किया और फरवरी, 2011 में राज्य सरकार ने बोर्ड का गठन कर दिया. वर्ष 2004 में बोर्ड ने पहली बार बालटाल और चंदनवाड़ी में जंगलात विभाग के अधीन 3642 कैनाल जमीन की मांग की और अगले तीन वर्षों तक मामला जंगलात विभाग, हाइकोर्ट और श्राइन बोर्ड के बीच कानूनी टकरावों में फंसा रहा.
अमरनाथ यात्रा को लेकर विवाद 2008 में शुरू हुआ, जब जम्मू-कश्मीर की कांग्रेस और पीडीपी की तत्कालीन साझा सरकार के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को लगभग 800 कैनाल (88 एकड़) जमीन देने का निर्णय लिया और यात्रा के बीच में ही 17 जुलाई, 2008 को राज्यपाल के मुख्य सचिव तथा श्राइन बोर्ड के तत्कालीन सीइओ अरुण कुमार ने एक प्रेस कांफ्रेंस में यह घोषणा कर दी जमीन का यह अंतरण स्थायी है. अगले ही दिन यह मामला राजनीतिक बन गया, हुर्रियत के दोनों धड़ों ने इसका विरोध किया, तो पीडीपी भी स्थायी भू-अंतरण के खिलाफ मैदान में आ गयी और दूसरी तरफ जम्मू में भाजपा ने मोर्चा खोल दिया और यह विवाद एक धार्मिक विवाद में तब्दील हो गया जिसमें हिंसक झड़पों में कई लोग मारे गये.
उधर शिवसेना, भाजपा, विश्व हिंदू परिषद्, बजरंग दल तथा नवगठित श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति ने जम्मू से आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति रोक दी तो घाटी के दूकानदारों ने चलो मुजफ्फराबाद का नारा दिया और अंततः 28 जून, 2008 को पीडीपी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. लालकृष्ण आडवाणी ने इसे चुनाव में मुद्दा बनाने की घोषणा की, तो कश्मीर में पीडीपी ने इसका उपयोग अपनी अलगाववादी और कट्टर छवि बनाने में किया. अलगाववादी नेता शेख शौकत अजीज सहित 21 से अधिक लोगों की जान और गुलाम नबी सरकार की बलि लेने के बाद यह मामला 61 दिनों बाद राज्यपाल द्वारा बनाये गये एक पैनल द्वारा अंतरण को अस्थायी बताने तथा बोर्ड को इस जमीन के उपयोग की अनुमति के बाद बंद तो हुआ, लेकिन कश्मीर के विषाक्त माहौल में सांप्रदायिकता का थोड़ा और जहर भर गया.
वर्ष 2000 में हिजबुल मुजाहिदीन ने यात्रा के समय युद्ध विराम की घोषणा की, तो बाहरी आतंकवादियों ने इसका विरोध करते हुए पहलगाम के यात्रा बेस कैंप पर हमला करके 21 से अधिक यात्रियों की जान ले ली थी. इसके बाद 2001 में शेषनाग के पास हमले में छह लोग मारे गये थे, तो 2002 में नुनवान कैंप पर लश्करे तैयबा के आतंकियों ने हमला करके आठ लोगों की जान ली थी.
लेकिन, इसके बाद श्राइन बोर्ड विवाद के बावजूद पिछले 15 सालों से यह यात्रा शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो रही थी. कश्मीर में यात्रा और पर्यटकों पर हमला न करने का अलिखित नियम पालन होता रहा है.
इस बार आठ जुलाई को बुरहान वानी के मुठभेड़ में मारे जाने की बरसी के मद्देनजर पहले से ही हमले की आशंका जतायी जा रही थी, जिसकी वजह से सुरक्षा के भारी इंतजाम किये गये थे और इस हमले के कुछ घंटे पहले ही राज्य के मुख्यमंत्री डॉ निर्मल सिंह सुरक्षा इंतजामों के पुख्ता होने की बात कर रहे थे, लेकिन जिस तरह नियम तोड़ कर यह बस सात बजे के बाद यात्रा कर रही थी, समूह के साथ न होने के कारण इसके साथ सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं था, बस टूरिस्ट परमिट पर चल रही थी और यात्रियों का अमरनाथ यात्रा के लिए पंजीकरण नहीं था, जाहिर है कि दावों से उलट सुरक्षा के इंतजाम संतोषजनक नहीं थे. वैसे जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा जारी बयान को मानें, तो आतंकवादियों ने पहले बाटेंगू में पुलिस बंकर पर हमला किया जिसमें कोई हताहत नहीं हुआ.
उसके बाद खानबल के पुलिस नाके पर हमला किया गया, जिसके जवाब में पुलिस ने भी गोलियां चलायीं और इसी गोलीबारी में टूरिस्ट परमिट पर चल रही इस बस के आठ यात्री मारे गये तथा कई अन्य घायल हुए.
इन्हीं अनियमितताओं के कारण जम्मू-कश्मीर पुलिस इसे अमरनाथ यात्रा का हिस्सा नहीं मान रही और उसके अनुसार आतंकवादियों का निशाना यात्री नहीं थे, लेकिन इसके उलट यात्रियों का कहना है कि पांच या छह लोगों ने बस पर ताबड़तोड़ गोलियां चलायीं और अगर बस ड्राइवर सलीम ने सूझ-बूझ के साथ लगातार बस न भगायी होती, तो और अधिक लोगों की जान जा सकती थी.
देश में पहले से ही सांप्रदायिक हो चुके माहौल में जिस दिन मानवाधिकार आयोग ने ह्यूमन शील्ड की तरह इस्तेमाल किये गये फारूक अहमद डार को दस लाख के मुआवजे की संस्तुति की, उसी दिन निर्दोष लोगों की यह हत्या एक भयावह विडंबना की ओर इशारा करती है, जब यह राशि देकर कश्मीरियों के जख्मों पर मरहम लगाया जा सकता था, तो आतंकवादियों ने इस जघन्य हत्याकांड से वह अवसर छीनने की कोशिश की है. ऐसे में राज्य और केंद्र सरकारों से उम्मीद की जानी चाहिए कि आतंकवादियों और देश के अन्य सांप्रदायिक तत्वों की साजिशों को नाकाम करते हुए एक तरफ कश्मीरी जनता में भरोसा जगाये, तो दूसरी तरफ हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा देकर हालात पर काबू करे.
अमरनाथ यात्रियों को आतंिकयों ने बनाया िनशाना
अमरनाथ यात्रियों को लेकर लौट रही एक बस पर आतंकवादियाें ने 10 जुलाई, 2017 की रात हमला कर दिया. पहलगाम से 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बाटेंगू के नजदीक एक रास्ते से गुजर रही बस पर आतंकवादियों ने गोलीबारी शुरू कर दी. इस गोलीबारी में सात लोगाें की मौत हो गयी, जबकि 32 लोग घायल हो गये. यह यात्रा 28 जून को शुरू हुई थी और यह 40 दिनों तक चलेगी. इससे पहले भी आतंकियों द्वारा अमरनाथ के तीर्थयात्रियों पर हमलों को अंजाम दिया गया है.
अगस्त, 2000
पहलगाम स्थित अमरनाथ यात्रियों के बेस कैंप पर दो अगस्त, 2000 को आतंकवादियों द्वारा किये गये हमले में 21 यात्री मारे गये थे. इसी दिन आतंकियों ने बेस कैंप सहित जम्मू-कश्मीर में पांच जगहों पर हमला किया था. जिसमें अमरनाथ यात्रियों सहित कुल 89 लोग मारे गये थे. इस हमले में हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकी शामिल थे.
जुलाई, 2001
20 जुलाई, 2001 को शेषनाथ के नजदीक एक कैंप पर रात 1.25 बजे के करीब ग्रेनेड से हमला किया था और उसके बाद अमरनाथ गुफा के नजदीक भी आतंकी ने अंधाधुंध गोलियां चलायी थी. इस हमले में तीन महिलाएं और दो पुलिसकर्मी सहित 13 लोगों की जान चली गयी थी, जबकि 15 लोग घायल हो गये थे.
जुलाई-अगस्त, 2002
अमरनाथ यात्रियों पर लगातार तीसरे साल भी हमला जारी रहा. इस वर्ष पहला हमला 30 जुलाई को श्रीनगर में तब हुआ जब यात्रियों को लेकर अमरनाथ बेस कैंप जा रही एक टैक्सी पर आतंकियों ने ग्रेनेड फेंका. इस हमले में दो यात्री मारे गये थे और तीन घायल हो गये थे. इस हमले के ठीक एक सप्ताह बाद छह अगस्त को पहलगाम स्थित नुनवान बेस कैंप पर लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े आतंकी समूह अल-मंसूरियन द्वारा की गयी गोलबारी में नौ यात्री मारे गये थे और 27 जख्मी हो गये थे.
जून 2006
एक बार फिर 21 जून, 2006 को आतंकवादियों ने अमरनाथ यात्रियों को निशाना बनाया था. इस दिन बेस कैंप से अमरनाथ यात्रियों को लेकर श्रीनगर जानेवाली एक बस पर सेंट्रल कश्मीर के बिहामा-गांदरबल के पास आतंकियों ने ग्रेनेड से हमला किया था, जिसमें पांच लोग जख्मी हो गये थे.
स्थानीय स्तर पर चूक का नतीजा है आतंकी हमला
– अजय साहनी, रक्षा विशेषज्ञ
सो मवार रात को जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ यात्रा से लौट रहे यात्रियों से भरी बस आतंकी हमले का शिकार हुई. प्रथम द्रष्टया इसमें स्थानीय स्तर पर पुलिस और प्रशासन की आेर से चूक होना कहा जायेगा. इस बस से यात्री निर्धारित नियमों के तहत नहीं आ रहे थे, जो अपनेअाप में एक गंभीर चूक है. ऐसा होना भी अजूबा है, क्योंकि बाहर से आने वाली सभी बसों का रजिस्ट्रेशन होता है और उसे पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करायी जाती है. इसमें एक किस्म का भ्रष्टाचार भी दिख रहा है. आम तौर पर जम्मू कश्मीर में संध्या सात बजे के बाद राष्ट्रीय राजमार्गों पर बसों के संचालन पर पाबंदी है.
स्थानीय पुलिस और सुरक्षा बल इस बात का पूरी तरह से ध्यान भी रखते हैं और वे सुनिश्चित करते हैं कि संध्या सात बजे के बाद कोई बाहरी बस सड़क पर संचालित न हो. इसके लिए जगह-जगह पर सुरक्षा जांच और बैरीकेड तक की व्यवस्था की गयी है. इनकी निरंतर निगरानी होती है. ऐसे में पहाड़ी इलाके में संध्या आठ बजे के बाद इस बस का हाइवे पर संचालित होना यह इंगित करता है कि इस पूरे मामले में कहीं-न-कहीं स्थानीय स्तर पर पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था की नाकामी है. यह कोई मैदानी इलाका भी नहीं है, जहां खेतों या किसी अन्य वैकल्पिक मार्गों के जरिये बस को हाइवे पर ला दिया गया हो.
पर्याप्त सुरक्षा बैरीकेड के बावजूद मैदानी इलाकों में कई जगहों पर ऐसा मुमकिन हो सकता है, लेकिन पहाड़ी इलाकों में ऐसा होना मुमकिन नहीं. इसलिए इस पूरे मसले में हमें यह भी समझना होगा कि ये सभी यात्री तय नियमों के मुताबिक यहां पर नहीं आये थे यानी इन्होंने यहां तक पहुंचने के लिए जो निर्धारित नियम और दिशा-निर्देश हैं, उनकी अवहेलना की थी.
मेरा मानना है कि पूछताछ होने पर यह बात सामने आ सकती है कि इसमें निचले स्तर के स्थानीय पुलिसकर्मियों के भ्रष्टाचार के कारण ऐसा हुआ है. और अगर इस कारण ऐसा हुआ है, तो सुरक्षा व्यवस्था में इसे बड़ी कमी के रूप में समझा जायेगा. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अमरनाथ यात्री प्राइम टारगेट थे, क्योंकि इससे पहले भी करीब छह-सात बार इन यात्रियों पर जानलेवा हमला किया जा चुका है.
राज्य और केंद्र सरकारों को इस घटना से यह सबक लेना चाहिए कि गैर-पंजीकृत यात्री कैसे इस यात्रा में शामिल हो गये. इसमें बहुत ही लीकेज है. आखिरकार आतंकियों के पास यह सूचना कैसे पहुंची कि यह बस एक खास राज्य (गुजरात) से आ रही है और यह बस शाम की निर्धारित अवधि के बाद प्रतिबंधित समय में संचालित रहेगी. व्यापक तादाद में सुरक्षा बलों की तैनाती के बीच यह बस कैसे चलती रही. इन सभी की जांच होनी चाहिए.
जहां तक सूबे में राष्ट्रपति शासन की बात है, तो मेरा मानना है कि फिलहाल ऐसी दशा नहीं है कि राष्ट्रपति शासन लागू किया जाये. यह सुरक्षा में चूक का मामला जरूर है, लेकिन हालात इतने बेकाबू नहीं हुए हैं कि इस बारे में सोचा जाये. मौजूदा समय में वहां पर तैनात सुरक्षा बल इलाके की पूरी निगरानी में जुटे हैं.
हालांकि, मीडिया खबरों में यह कहा जा रहा है कि आतंकियों ने सुरक्षा बलों का ध्यान भटकाने के लिए पहले दूसरी जगह सीआरपीएफ पर हमला किया, लेकिन मेरा मानना है कि इससे इस घटना को जोड़ना ठीक नहीं होगा. सीआरपीएफ पर जहां हमला हुआ, वहां स्थानीय स्तर पर इससे निपटने के इंतजाम भी होंगे. इस बस के ड्राइवर का पहले की घटना से क्या मतलब रहा होगा, या फिर प्रत्येक 200- 400 मीटर पर नाके होने के बावजूद यह बस आठ बजे के बाद भी कैसे संचालित रही.
मौजूदा समय में कश्मीर में जो हालात बिगड़ रहे हैं, इसका बड़ा कारण राजनीति है. सियासत ने ही यहां के हालात खराब किये हैं. सांप्रदायिक राजनीति के कारण कश्मीर की दशा बिगड़ रही है. कश्मीर में एक अलग संप्रदायों की बहुलता की सियासत और जम्मू में अलग संप्रदाय की बहुलता की सियासत खेली जाती है.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान कश्मीर में हालात में सुधार के कारण सुरक्षा बलों को एक जगह से दूसरी जगह भेजा जरूर गया, लेकिन ऐसा नहीं है कि यदि कहीं पर तत्काल हालात बिगड़ते हैं, तो वहां तक सुरक्षा बलों को पहुंचने में देरी होती है. इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि सुरक्षा बलों की वहां कमी है या फिर इलाके में पर्याप्त संख्या में इनकी तैनाती नहीं होने के कारण आतंकी इस घटना को अंजाम देने में कामयाब हुए हैं.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
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