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फ्लू के टीके की जगह लेगा दर्दरहित माइक्रोनीडल पैच
अनेक बीमारी की दशा में इनसान को टीके लगाने की जरूरत पड़ती है. इस दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए विकल्प के रूप में माइक्रोनीडल पैच को विकसित किया है. दूसरी ओर, पिछले कई वर्षों से मेडिकल शोधकर्ताओं द्वारा किये गये अध्ययन रिपोर्ट के आधार पर दोबारा से वैसे ही नतीजे हासिल […]
अनेक बीमारी की दशा में इनसान को टीके लगाने की जरूरत पड़ती है. इस दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए विकल्प के रूप में माइक्रोनीडल पैच को विकसित किया है. दूसरी ओर, पिछले कई वर्षों से मेडिकल शोधकर्ताओं द्वारा किये गये अध्ययन रिपोर्ट के आधार पर दोबारा से वैसे ही नतीजे हासिल करने की ज्यादातर कोशिशें कामयाब नहीं हो पायी हैं. इसी माइक्रोनीडल पैच और तमाम शोध अध्ययनों से दोबारा नतीजे हासिल करने से संबंधित मसलों को रेखांकित कर रहा है आज का मेडिकल हेल्थ पेज …
भविष्य में इनसान को फ्लू का शॉट यानी टीके की जगह पर प्रायोगिक तौर पर पैच का इस्तेमाल किया जा सकता है. अन्य टीकों के मुकाबले इस टीके को इनसान के पूरे जीवनकाल में केवल एक बार ही लेने की जरूरत नहीं होती है. इस टीके को समय-समय पर, जब फ्लू का प्रकोप बढ़ता है, तब इसे लगाने की जरूरत होती है. लेकिन, इसमें दिक्कत यह है कि प्रत्येक प्रभावित इनसान इसे हर बार नहीं ले सकता है. सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक, अमेरिका में वर्ष 2016-17 के दौरान नवंबर तक वयस्कों में फ्लू के सीजन के दौरान केवल 37 फीसदी को ही यह टीका लगाया गया था. जबकि इसका वायरस अब भी घातक साबित हो रहा है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि फ्लू के कारण प्रत्येक वर्ष ढाई लाख से पांच लाख तक लोगों की मृत्यु होती है. उपचार को अधिक व्यापक रूप से इस्तेमाल करने के प्रयास में, शोधकर्ता एक टीके का इस्तेमाल करने के बजाय त्वचा के माध्यम से फ्लू के टीके को देने के लिए छोटी सुइयों में शामिल पैच का इस्तेमाल करने की संभावना तलाश रहे हैं.
शोधकर्ताओं ने हाल ही में करीब 100 लोगों पर इसका परीक्षण किया है. उन्होंने पाया कि इनसानों के लिए यह पैच सुरक्षित है और यह एंटीबॉडी रेस्पोंस पैदा करने में सक्षम होगा, जो फ्लू वायरस से लड़ने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं. इसके अलावा, इस टीके की जरूरत वाले इनसान स्वयं इस पैच को इस्तेमाल में ला सकते हैं यानी बिना किसी डॉक्टर के पास गये हुए या फिर मेडिकल क्लिनीक गये बिना खुद पूरी क्षमता से इसका इस्तेमाल कर सकते हैं.
एमोरी यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसीन के प्रोफेसर और इस अध्ययन के प्रथम लेखक नेडिन रॉफेल का कहना है, ‘यूनिवर्सल फ्लू टीकाकरण की सिफारिश के बावजूद, इंफ्लूएंजा इनसानों में इलनेस यानी बीमारी का एक प्रमुख कारण बना हुआ है, जिससे बीमारियां और मृत्यु दर उल्लेखनीय रूप से बढ़ जाती है. फ्लू वैक्सीन का एक विकल्प उपलब्ध होने पर आसानी से और दर्द रहित ढंग से स्व-संचालित किया जा सकता है, जो इस महत्वपूर्ण टीके द्वारा मुहैया कराये जाने वाली सुरक्षा और प्रतिरक्षण के दायरे को बढ़ा सकता है.’
कैसे काम करता है यह पैच
एक पैच में छोटे-छोट नीडल्स होते हैं. ये इतने छोटे होते हैं कि इनसान को दर्द तकरीबन नहीं के बराबर महसूस होता है. त्वचा के भीतर डालने पर ये नीडल्स बिलकुल ही चुभते नहीं हैं और इसीलिए ये दर्द रहित हाेते हैं. एक बार त्वचा के भीतर प्रविष्ट होने की दशा में, इसके जरिये दी गयी दवाएं शरीर के अंदर तक पहुंच जाती हैं, जो शरीर को फ्लू वायरस से लड़ने में सक्षम बनाने के लिए तैयार करती है.
बाद में इन माइक्रो नीडल्स के शरीर में गलने की दशा में इस पैच को बाहर निकाला जा सकता है. इस प्रकार फ्लू का टीका देने के लिए कोई नुकीली चीज शरीर में नहीं डालनी पड़ती है. यह दोनों ही लिहाज से ज्यादा बेहतर है, क्योंकि इसके लिए न तो डॉक्टर के पास जाने की जरूरत होती है और न ही इसमें कोई दर्द होता है.
परीक्षण के दौरान लोकप्रिय
माइक्रो नीडल पैच की लोकप्रियता इस दृष्टि से ज्यादा देखी जा रही है कि ये नीडल के जरिये दिये जाने वाले टीके के तरीके को बदल रहे हैं. परीक्षण के दौरान इस विधि में बहुत ज्यादा बदलाव देखा गया है. इस परीक्षण के नतीजे से संतुष्ट शोधकर्ता अब यह सोच रहे हैं कि माइक्रो नीडल पैच के इस्तेमाल से कैंसर का इलाज और डायबिटीज के लिए जरूरी इंसुलिन को शरीर के भीतर आसानी से डालने की प्रक्रिया को विकसित किया जाये. इस लिहाज से भी यह एक नयी उम्मीद लेकर आया है.
फ्लू वैक्सिन के लिए पहली बार इनसानों में इसका इस्तेमाल किया गया है. हालांकि, संबंधित प्राधिकरण द्वारा इस पैच के इस्तेमाल की मंजूरी मिलने से पहले इसके लिए अभी और परीक्षण करने की दरकार है, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि यह कितना सही और सुरक्षित है और फ्लू वायरस के खिलाफ यह कितना प्रतिरक्षण मुहैया करा सकता है.
शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि व्यापक परीक्षण के जरिये इसे जल्द ही उपयोगी बनाया जा सकता है. इतना ही नहीं, इस पैच के गुणों को विस्तार देने की कोशिश कुछ इस तरह से की जा रही है, ताकि इसे पोलियो, खसरा और रुबेला जैसी बीमारियों के खिलाफ प्रतिरक्षण के लिए वैक्सिन विकसित किया जा सके.
अनेक शोध अध्ययनों से दोबारा हासिल नहीं हो रहे नतीजे!
कैंसर की बीमारी दुनिया में अब तक ऐसी है, जिसका मुकम्मल इलाज मुमकिन नहीं हो पाया है. इतना ही नहीं, आरंभिक अवस्था में भी इसे आसानी से जानने के लिहाज से पर्याप्त कामयाबी नहीं मिल पा रही है. हाल में किये गये अनेक जांच के नतीजे यह इंगित करते हैं कि कैंसर रिसर्च के कई हाइ-प्रोफाइल पेपर्स को फिर से तैयार करने की जरूरत है.
इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक व्यापक रिपोर्ट तैयार की है. पूर्व में किये गये पांच प्रमुख अध्ययनों से इस रिपोर्ट को बल मिलता है, जिसके तहत ‘रिप्रोड्यूसिबिलिटी प्रोजेक्ट : कैंसर बायोलॉजी’ के नाम से एक पहल की गयी है.
यह प्रोजेक्ट अमेरिका के सेंटर फॉर ओपन साइंस और साइंस एक्सचेंज के बीच किया गया है, जो कैंसर के इलाज के लिए प्रीक्लीनिकल परीक्षण को अंजाम देगी, क्योंकि करीब 89 फीसदी अध्ययनों की रिपोर्ट को दोहराया नहीं जा सका.
पिछले कई वर्षों से शोधकर्ताओं ने विज्ञान में रिप्रोड्यूसिबिलिटी क्राइसिस यानी किसी चीज को दोबारा से पैदा करने से जुड़े संकट की ओर इंगित किया है, जिसके तहत साइकोलॉजी समेत अनेक दस्तावेजों में वैज्ञानिकों ने जिन दशाओं का उल्लेख किया है, अब उनसे पहले की तरह के नतीजे हासिल होंगे या नहीं इस बारे में संशय है. दरअसल, हाल ही में साइकोलॉजी के कुछ प्रमुख दस्तावेजों के जरिये पहले की तरह के नतीजे हासिल नहीं हो पाये हैं. इस कारण इस संबंध में वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ गयी है. यह भी सही है कि चूंकि पूर्व में पाये गये तथ्यों को दोबारा से तैयार नहीं किया जा सकता, तो इसका मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए के वे अपनेआप में गलत हैं.
विज्ञान में रेप्लिकेशन यानी प्रतिकृति का अपना अलग महत्व है. यदि हम किसी चीज के बारे में आश्वस्त होना चाहते हैं, तो किसी परीक्षण की विधि का अनुसरण करते हुए हमें दोबारा से ठीक पहले की तरह के नतीजे हासिल करने चाहिए. हालांकि, सभी वैज्ञानिक इस बात से सहमत नहीं हो सकते हैं कि इनके नतीजों को कैसे विश्लेषित किया जा सकता है, लेकिन जब एक ही विधि से एक से ज्यादा आंकड़ों का सेट पैदा होगा, तो ऐसे परीक्षण पर निश्चित रूप से भरोसा बढ़ेगा और इससे संभावनाओं के नये द्वार खुल सकते हैं.
फिलहाल इसे संकट कहना थोड़ा अतिरेक होगा, लेकिन मेडिकल क्षेत्र की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नेचर’ द्वारा पिछले वर्ष 1,576 शोधकर्ताओं पर किये गये एक सर्वे से यह बात सामने आयी कि इनमें से करीब आधे से अधिक ने यह स्वीकार किया था कि यह वाकई में एक उल्लेखनीय समस्या है.
क्या है रिप्रोड्यूसिबिलिटी प्रोजेक्ट
कैंसर बायोलॉजी अपने आप में एक पहल है, जिसके तहत उच्च-प्रोफाइल वाले दस्तावेजों से परिणामों को स्वतंत्र रूप से दोबारा से हासिल करने की कोशिश की जाती है. प्रत्येक दस्तावेज के लिए एक पंजीकृत रिपोर्ट प्रस्तावित प्रयोगात्मक डिजाइनों और प्रतिकृतियों के प्रोटोकॉल के बारे में बताती है, जिसमें आंकड़ों के संग्रह से पहले समीक्षकों की समीक्षा प्रकाशित की जाती है और फिर इन परीक्षणों से हासिल किये गये नतीजे एक प्रतिकृति अध्ययन के रूप में प्रकाशित किये जाते हैं. ‘इ लाइफ साइंसेज डॉट ओआरजी’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, फिलहाल कैंसर रिसर्च के क्षेत्र में इसका व्यापक तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है.
50 प्रभावी कैंसर दस्तावेजों की जांच
इस प्रोजेक्ट के तहत शोधकर्ताओं ने वर्ष 2010 से 2012 के बीच कैंसर संबंधी प्रकाशित हुई 50 प्रभावी दस्तावेजों को प्रमुखता से शामिल किया. बाद में शोधकर्ताआें ने पाया कि इतने दस्तावेजों के कारण उनका कार्य ज्यादा जटिल हो गया है, लिहाजा उन्होंने इसमें से 29 को छांट कर निकाला.
इसी वर्ष इस नतीजे का पहला चरण सामने आया, जिसे ज्यादा उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता है. इनमें से भी पांच प्रमुख अध्ययनों को दोबारा से प्रस्तुत करने पर संतोषनजक नतीजे नहीं हासिल किये जा सकते हैं. इनमें से ज्यादातर के साथ कुछ-न-कुछ तकनीकी समस्याएं जुड़ी हुई पायी गयीं, जिस कारण इन्हें रेप्लिकेट नहीं किया जा सका.
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