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अपनी मातृभाषा से दूर हुआ है हिंदी का मध्यवर्ग

अशोक वाजपेयी वरिष्ठ सािहत्यकार – बेहतर लेखन के सूत्र क्या हैं? क्या इन सूत्रों को साध कर कोई लेखक बन सकता है? बेहतर लेखन के सूत्र कोई अपने लिए पा या निर्धारित तो कर सकता है, दूसरे के लिए नहीं. बेहतर लेखन कई तरह से, कई शिल्पों और दृष्टियों में संभव होता है. उस बारे […]

अशोक वाजपेयी

वरिष्ठ सािहत्यकार

– बेहतर लेखन के सूत्र क्या हैं? क्या इन सूत्रों को साध कर कोई लेखक बन सकता है?

बेहतर लेखन के सूत्र कोई अपने लिए पा या निर्धारित तो कर सकता है, दूसरे के लिए नहीं. बेहतर लेखन कई तरह से, कई शिल्पों और दृष्टियों में संभव होता है. उस बारे में सामान्यीकरण करना गलत होगा. अपने लिए जो सूत्र निर्धारित किये, वे ये रहे हैं- पहला कि जितना लिखो, उससे सौ गुना अधिक दूसरों का लिखा पढ़ो-गुनो. दूसरा, अपनी पीढ़ी के नहीं, बल्कि ज्यादा जरूरी कि प्राचीन साहित्य, मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य की कृतियां पढ़ें.

तीसरा, यह कि अपने आसपास जो हो रहा है, उसे ध्यान से देखो-समझो, लोग कैसे बातें करते हैं और बात-बात में नये शब्द या अभिव्यक्तियां गढ़ देते हैं, यह पहचानो. चौथा, याद रखो कि हम अपने समय में ही नहीं, समयातीत में भी रहते हैं. मानवीय स्मृति के कारण ही हमें याद रहता है कि हमसे पहले के जमानों में भी मनुष्य थे, जो हमारी तरह सोचते-रचते थे. लेकिन बिना अपने समय में धंसे-रमे, आप समयातीत को नहीं छू सकते.

पांचवां, अकेले पड़ जाने से मत घबराओ, कोई और क्या सोचेगा-कहेगा, इसकी परवाह मत करो. पर अपने अनुभव और दृष्टि से सच पर खड़े रहो. छठवां, अपने को बहुत सारे साधारण लोगों में से एक समझने में कभी कोताही मत करो. लेखक विशिष्ट नहीं साधारण लोगों की तरह होते हैं. सातवां, याद रखो कि साहित्य भाषा में रचा जाता है और उस भाषा के प्रति जिम्मेवारी निभाना लेखक का कर्तव्य है. आठवां, लेखन में विचार होता है, पर वह विचार से नहीं रचा जाता, उसमें अनुभूति-संवेदना-विचार आदि का रसायन होना जरूरी है.

नौवां, तुम्हे अपने लिखे पर विस्मय होना चाहिए, क्योंकि लिखना पहले से सोचे रास्ते पर चलना नहीं है, यह भटकना विपथ होना भी है. जिन्हें पहले से अपनी रचना का अंत पता होता है, वे अच्छी रचना नहीं कर पाते, क्योंकि रचना खोज होती है. दसवां, लेखन का इस्तेमाल दोस्ती या दुश्मनी को बढ़ाने-घटाने- हवा देने आदि के लिए करना अनैतिक है. ग्यारह, पाठकों की बुद्धि और समझ पर भरोसा करो और उन्हें जरूरत से ज्यादा समझाने की कोशिश मत करो.

यह दावा करना कठिन है कि इन सूत्रों काे साधकर बेहतर लेखन करना या लेखक बन पाना संभव है. मैंने अपने साहित्यिक जीवन और व्यवहार में इनका पालन किया है. मुझे नहीं मालूम कि मेरा लेखन बेहतर है कि नहीं. शायद नहीं.

– हाल ही में रिलीज हुई ‘हिंदी मीडियम’ फिल्म के बहाने इन दिनों ‘हिंदी मीडियम का होने का दर्द?’ की बहुत चर्चा है. हिंदी का ये हाल क्यों है?

हिंदी का जो भी हाल है, वह मुख्यत: हिंदी समाज के विशाल अौर विकराल मध्य वर्ग के कारण है. वह ऐसा वर्ग है, जो लगातार अपनी मातृभाषा से दूर जाता मध्यवर्ग है और जिसे, पढ़े-लिखे होने के बावजूद, न तो अपने साहित्य की कोई खबर है, न उसमें कोई रुचि. भारत की शायद ही किसी और भाषा का मध्यवर्ग अपनी भाषा के प्रति इतना उद्धत अज्ञानी है, जितना हिंदी का मध्यवर्ग. उसका बड़ा हिस्सा निंदनीय रूप से सांस्कृतिक निरक्षर है.

उसे भाषा और साहित्य ही नहीं, हिंदी अंचल में ही फले-फूले शास्त्रीय संगीत और उसके घरानों, ललित कलाओं, शास्त्रीय नृत्य, लोक संगीत, रंगमंच आदि में भी कोई दिलचस्पी नहीं. हिंदी अंचल की हर राज्य की सरकारों, विश्वविद्यालयों, अकादिमियों आदि ने भी अपनी भूमिका निभाने में कोताही बरती है. यह छवि रूढ़ हो गयी है कि विचार और ज्ञान हिंदी में संभव ही नहीं. उसमें ज्ञान की समृद्ध परंपरा रही है, जो अब शिथिल और िनष्प्राण हो गयी है़

– ‘इंग्लिश मीडियम’ के इस दौर में क्या आपको लगता है कि आज से एक-दो दशक बाद बतौर विषय हिंदी का कोई भविष्य है?

भाषाओं के बारे में भविष्यवाणी करना प्राय: मूर्खता साबित होता है. सो ऐसी मूर्खता से बचना चाहिए. पर इतना अलबत्ता कहा जा सकता है कि बावजूद सारे अड़ंगों और विश्वासघातों के हिंदी बढ़ती-फैलती रही है. इतनी बड़ी जनबहुल भाषा आसानी से सिकुड़ या हाशिये पर नहीं ठेली जा सकती.

– वैश्वीकरण के इस दौर में साहित्य बाजारवाद से प्रभावित होकर क्यों कालजयी नहीं हो पा रहा है? आधुनिक सृजनशीलता संवेदना सापेक्ष न होकर अंततः हाशिए पर तो नहीं आ गयी है?

साहित्य पर बाजारवाद का जो भी प्रभाव आप अांकें, यह देखने से आप चूक नहीं सकते कि इस समय बाजारवाद और बाजारूपन का सबसे गंभीर प्रश्नांकन साहित्य में ही हो रहा है, राजनीति या मीडिया में नहीं. कालजयी कृति का पता तो साल काफी गुजर जाने के बाद ही चलता है. फिर भी ‘शेखर एक जीवनी’, ‘त्यागपत्र’, ‘मैला आंचल’, ‘उसका बचपन’, ‘जिंदगीनामा’, ‘अंधेरे में’, ‘अंतिम अरण्य’, ‘असाध्य वीणा’, ‘अावारा मसीहा’, ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘अंधा युग’ आदि अनेक कृतियां निश्चय ही क्षणजीविता से आसक्त इस समय में दीर्घजीवी साबित हो रही हैं. प्रसाद, प्रेमचंद, निराला आदि की कृतियों के अलावा.

आधुनिक सृजनशीलता की अपनी समस्याएं और सीमाएं हैं, पर उसमें संवेदना के अभाव का आरोप नहीं लगाया जा सकता है. उलटे यह साफ देखा जा सकता है कि इस सृजनशीलता ने हिंदी संवेदना के भूगोल को फैलाया और अधिक समावेशी बनाया है. उसने साधारण को केंद्र में लाकर उसकी महिमा, संभावना, अौर गरिमा को प्रतिष्ठित किया है. उसमें अध्यात्म का अभाव, वैचारिक प्रश्नशीलता की क्षीणता, परंपरा का पुनराविष्कार करने में अरुचि आदि कमिया हैं. पर वह हाशिये पर न हैं, न हो सकती हैं.

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