जरूर पढ़ें : राज्यसभा सांसद व वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश की स्वामी निरंजनानंद जी से विशेष बातचीत
अध्यात्म आत्मशोध, आत्मचिंतन और आत्मपरिवर्तन का मार्ग है स्वामी निरंजनानंद जी का साक्षात्कार हरिवंश राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ पत्रकार भौतिक सुखों को पाने के बाद भी मनुष्य मानसिक रूप से तृप्त नहीं हो पाया है. सुकून की तलाश उसे अब भी है. वह काम, क्रोध, लोभ, मद और मोह का त्याग नहीं कर पाया है. […]
अध्यात्म आत्मशोध, आत्मचिंतन और आत्मपरिवर्तन का मार्ग है
स्वामी निरंजनानंद जी का साक्षात्कार
हरिवंश
राज्यसभा सांसद
और वरिष्ठ पत्रकार
भौतिक सुखों को पाने के बाद भी मनुष्य मानसिक रूप से तृप्त नहीं हो पाया है. सुकून की तलाश उसे अब भी है. वह काम, क्रोध, लोभ, मद और मोह का त्याग नहीं कर पाया है. भारत में कई ऐसे साधक संत हैं, जो प्रचार की चकाचौंध से दूर रहते हैं और जिन्हें इन व्याधियों से मुक्ति की राह अध्यात्म में दिखती है. राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश ने ऐसे ही साधक-संतों का श्रमसाध्य इंटरव्यू किया है. आज पढ़िए इस शृंखला की पहली कड़ी.
स्वामी जी, आप अत्यंत कठिन साधना पंचाग्नि साधना से अभी उठे हैं. सत्तर डिग्री से अधिक तापमान में. परमहंस सत्यानंद जी की समाधि के बाद आपका ज्यादा समय ध्यान, साधना, तप में गुजरता है. इस अनुभव से हम सांसारिक लोग मौजूदा स्थिति में क्या सीख सकते हैं.
वर्ष 2009 में जब स्वामी जी थे, तब उन्होंने मुझे कहा कि अब तुम अपनी यात्रा स्थगित करो और भारत में स्थिर हो जाओ. उन्हें आभास हो गया था कि उनका समय आ रहा है और वो कभी भी स्वेच्छा से जायेंगे. उन्होंने उसी समय मुझे आदेश किया कि तुम अब स्थायी हो जाओ और यात्रा कम करो. चालीस साल तक बहुत भ्रमण किये, अब स्थिर हो जाओ और योग और संन्यास-साधना में अपने आपको डाल दो. उन्होंने यह भी कहा कि अपने देश में साधुओं में विद्वता बहुत है, सार्मथ्य बहुत है, सेवा-भाव बहुत है, कुछ साधना भी अच्छे से करते हैं, लेकिन, हमारे देश में तपस्या की जो परंपरा है, वह लुप्त हो गयी है. तपस्या की परंपरा पुर्नजाग्रत करनी है. हमने उनसे प्रश्न किया कि आपने तो पंचाग्नि की.
प्रश्न पूरा करने के पूर्व ही उन्होंने कहा कि उसी परंपरा को तुमलोग आगे बढ़ाओ और समझो कि भारत का अध्यात्म वास्तव में क्या है. वर्ष 2012 से हमने पंचाग्नि आरंभ की. हमने जैसे अपने गुरु जी को करते हुए देखे थे, वैसा ही अभ्यास हम आरंभ किये. अभी चार साल हो चुके हैं, इसमें पहला अनुभव व्यक्तिगत है. दूसरा अनुभव है सामाजिक. व्यक्तिगत अनुभव यह कि शरीर और मन की जो ऊर्जाएं हैं, शक्तियां हैं, मन में जो संकल्प शक्ति है या चिंतन शक्ति है, वह बहुत ही प्रगाढ़ और स्पष्ट हो रही है. जो बात सीधी है, सीधा बोलना है. पंचाग्नि के बाद अब डिप्लोमेसी का मन बिल्कुल नहीं करता है. दूसरी चीज हमने नोटिस की है कि चार अग्नियों के बीच और सूर्य के नीचे जब महीनों तक बैठते हैं तो शरीर में गरमी आती है, और जैसे आग जलने के पश्चात भी अगर हम पानी डाल दें तो भी अंगार ठंडा नहीं होता है, उसी तरह अपने शरीर की गरमी को भी बाहर निकालने में कम से कम दो-तीन महीने का समय लगता है. इसके लिए भी काफी अभ्यास की आवश्यकता होती है. अपने शरीर को ठंडा करने के लिए जल-साधना भी करनी पड़ती है.
उस कार्यक्रम में अभी हम संलग्न हैं. अब आध्यात्मिक रूप से क्या होता है, यह तो मैं नहीं कह सकता, वह तो भविष्य ही बतलायेगा और समाज बतायेगा. और दूसरा पहलू पंचाग्नि साधना का यह है कि पंचाग्नि के पूर्णाहूति के समय हम कुछ ऐसे कार्यक्रमों को आरंभ किये, जो अभी तक कलयुग में संपादित नहीं हुए हैं, संपन्न नहीं हुए. हमने सोचा कि पंचाग्नि के समय हम किस प्रकार का यज्ञ-हवन-आराधना करें. पंचाग्नि पाशुपात्य दर्शन का अंत है.
पाशुपात्य दर्शन में पंचाग्नि विधि आती है और पाशुपात्य दर्शन में शिव के शक्ति पाशुपतास्त्र का आह्वान होता है. पंचाग्नि के अंतिम पांच दिनों में पाशुपतास्त्र यज्ञ हमलोग संपन्न किये. और यह जो मंत्र हैं महाभारत काल के बाद पुन: इस धरती पर अब सुनाई पड़े. महाभारत काल के बाद इन मंत्रों का कहीं पर कोई उपयोग नहीं हुआ था. लेकिन इस आराधना को अस्त्र-शस्त्र की आराधना हम नहीं मान रहे हैं, जिससे विश्व या राष्ट्र या समाज का संहार होता है. बल्कि अपने भीतर की गड़बड़ियों का संहार होता है.
पाशुपतास्त्र का उपयोग त्रिपुर-भेदन के लिए हुआ था. और वही एक बार है जब भगवान शिव ने अपने अस्त्र का संधान किया. उसके बाद उन्होंने दिया लोगों को, लेकिन किसी ने उसका प्रयोग नहीं किया. क्योंकि वह तो सबसे अंतिम शस्त्र है. और उसका तोड़ कुछ नहीं है. इसलिए उसका प्रयोग किसी ने नहीं किया. अर्जुन ने भी महाभारत में इसका उपयोग नहीं किया. हमलोगों ने संकल्प लिया कि हमारे जीवन में जो तीन ग्रंथियां हैं, जो हमें भौतिकता और माया के सम्मोहन में बांधे रखती हैं, उससे मुक्ति के लिए इसका उपयोग हो. ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु गंथ्रि, रुद्र ग्रंथि. हमारे शरीर के ये तीन पुर हैं और हमारे उत्थान में बाधक हैं, अवरोध हैं. तो वह एक कार्यक्रम पंचाग्नि के समय संपन्न हुआ. संन्यासपीठ के दूसरे कार्यक्रम के रूप में प्रतिवर्ष लक्ष्मीनारायण महायज्ञ संपन्न होता है. इस यज्ञ को संपन्न करने का आदेश गुरु जी ने ही दिया था कि जैसे रिखिया पीठ में चंडी यज्ञ की स्थापना हुई है, वैसे संन्यासपीठ में लक्ष्मीनारायण यज्ञ की स्थापना हुई है.
वो भी 2011 से हमने यहां पर प्रारंभ किया, जबसे संन्यासपीठ का रजिस्ट्रेशन व स्थापना हुआ है. पिछले वर्ष इसी लक्ष्मीनारायण यज्ञ में हमने नारायण की शक्ति का, नारायण अस्त्र का आवाहन किया. नारायणास्त्र का भी प्रयोग महाभारत काल में हुआ था. कौरवों की ओर से हुआ था. सभी दौड़ कर कृष्ण जी के पास गये थे और पूछा कि इसकी काट क्या है, तो श्री कृष्ण बोले कि इस अस्त्र की काट है कि अपने सभी अस्त्र-शस्त्रों को डाल दो, कवच को निकाल दो, मुकुट को निकाल दो, और एकदम असहाय नग्नावस्था में हो जाओ. मतलब अंहकार रहित होने से, दंभ के नहीं होने से वो अस्त्र निष्फल हो जाता है.
तो अंहकार को मारने के लिए, अंहकार को निशस्त्र करने के लिए नारायणास्त्र का संकल्प लिया गया. इस साल गुरु पूर्णिमा के पूर्व तीसरे अस्त्र का आवाहन कर रहे हैं. वह है ब्रह्मास्त्र. लेकिन मजेदार बात यह कि पाशुपतास्त्र शिव जी का है, नारायणास्त्र नारायण का है, ब्रह्मास्त्र ब्रह्मा जी का नहीं है, नाम है. लेकिन ब्रह्मास्त्र है दशमहाविद्या की आराधना, शक्ति आराधना का. इन तीन यज्ञों के लिए, जो अपने देश के लिए नवीनतम परंपरा और आराधना हैं, हमलोगों ने यहां आरंभ किया है. एक बार जब पंडित लोग इसमें सक्षम हो जाते हैं, तब फिर इसका प्रचार समाज के कल्याण के लिए होगा. तब तक हमलोग कुछ और भी शोध करेंगे, देखेंगे कि और क्या हमारे ऋषि-मुनियों की आध्यात्मिक या सामाजिक देन रही है.
योग को दुनिया में प्रतिष्ठित करने, वैज्ञानिक अध्ययन करने और अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बिना साधन सुविधा के गांव-गांव, घर-घर तक स्कूलों में पहुंचाने का काम परमहंस जी, आपने और मुंगेर योग स्कूल ने किया. आज योग दिवस दुनिया में स्थापित सच है. अरबों का यह व्यवसाय बन गया है. मगर, आप सबने मुंगेर स्कूल में शुरू से पवित्र स्थापित साधना रहने दिया. अत्यंत सावधानी से. आज आप इसको कैसे देखते हैं. प्रचार से दूर रहकर मुंगेर स्कूल ने जो भी किया, वह अद्भुत है. आपका काम पूरी दुनिया में स्थापित हो गया. इसे आप कैसे देखते हैं.
जब प्रथम विश्व योग दिवस पिछले वर्ष 21 तारीख को मनाया जा रहा था, तो यहां पर कार्यक्रमों की व्यवस्था कर हम मुंगेर छोड़ दिये. हमने कहा कि प्रथम विश्व योग दिवस हम अपने गुरु जी की समाधि के पास मनायेंगे. 1964 में उन्होंने घोषणा की थी कि योग एक दिन एक संस्कृति के रूप में उभरेगा. और हमारे लिए प्रथम विश्व योग दिवस उनके इस संकल्प और उद्घोषणा का परिणाम रहा है.
प्रथम दिवस में हम रिखिया में ही थे. समाधि के पास बैठे. जो भी हो रहा था, चारों तरफ से खबर मिल रही थी. और स्वामी जी को बता रहे थे कि ऐसा-ऐसा हो रहा है. और आपने जो उद्घोषणा की थी वह संकल्प, वह दृष्टिकोण आज सत्य साबित हुआ है. यह हमारे लिए हर्ष और भारत के लिए गौरव की बात है कि यूनाटेड नेशन के 177 देशों ने एक स्वर में इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया. विश्व की जनता ने भी बड़े धूम-धाम से इस योग दिवस को हर्षोल्लास से मनाया. निश्चित रूप से भारत के लिए यह ऐतिहासिक क्षण रहा है. गौरव का क्षण रहा है. हमलोग भी गौरवान्वित अनुभव करते हैं. इस व्यापक प्रचार से अब लोग योग के आर्थिक पक्ष को भी देखने लगे हैं.
मात्र अमेरिका में योग की इंडस्ट्री सत्ताइस बिलियन डॉलर है. यूरोप को छोड़ दीजिये, उसका आंकड़ा हमें नहीं मालूम है. साउथ-ईस्ट एशिया का आंकड़ा हमें नहीं मालूम है. अगर सबको एक कर दिया जाये तो सौ बिलियन डॉलर आराम से हो सकता है. यह लोगों के लिए एक बहुत बड़ी आर्थिक आधार है. हमारे देश में तथा बाहर बड़ी संख्या में लोग योग सीखने, योग शिक्षक बनने के लिए, इसका आर्थिक फायदा भी उठाने के लिए आते हैं. उसमें कोई दोष नहीं है. और हम भी उसका सर्मथन करते हैं. हमारा चिंतन केवल एक है.
योग हमारे लिए एक विद्या है. भले ही लोग कहें संस्कृति है, ऋषि-मुनियों की देन है, यह सब लोगों के कहने के लिए अलग-अलग वाक्य और शब्द हो सकते हैं, लेकिन वास्तव में यह विद्या है. और इस विद्या का उद्देश्य है- जीवन में पूर्णता. शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्पष्टता और प्रतिभा और आध्यात्मिक सजगता. आध्यात्मिक सजगता का अर्थ होता है अपने जीवन में जो अच्छाई है, उस अच्छाई को अपने व्यवहार में प्रकट करना और व्यवहार की जो संकीर्णता है, या जो व्यवहार में दुर्बलता है, उससे अपने आपको अलग करना. जो अच्छाई को जीवन में अपना कर चलता है वह आध्यात्मिक कहलाता है.
आध्यात्मिक का मतलब यह नहीं कि आप ईश्वर के बारे में ही चौबीस घंटा सोचें. बल्कि आध्यात्मिक वह है जो अपने कर्मों से, व्यवहारों से, विचारों से सभी का कुछ-ना-कुछ कल्याण और उत्थान होता रहे. भौतिकता में जिस प्रकार हम अपने उत्थान और कल्याण पर ज्यादा ध्यान देते हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिकता में हम दूसरों के कल्याण और उत्थान में ज्यादा ध्यान देते हैं. हर मनुष्य के जीवन में अपना ख्याल करना और दूसरों का ख्याल करना यह भौतिक बात और अध्यात्म बात में संतुलन है और इस विचार को योग समाज के सामने प्रस्तुत करता है. आसन तो योग का बहुत छोटा-सा पक्ष है. जितने योग हैं अगर उनमें हम आसनों को खोजें तो आसन की चर्चा दो-तीन योग में ही होती है. जैसे हठ-योग, राज-योग, मुख्यत: इन्हीं दो में चर्चा होती है. बाकी योगों में आसन-प्राणायाम की चर्चा नहीं है. वो तो मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक चिंतन को प्रेरित करते हैं.
संतुलन को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हैं. शुरू से ही बिहार विद्यालय का, स्वामी जी का यह प्रयास रहा कि हम जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए मस्तिष्क, बुद्धि, ह्रदय, भावना, हाथ, कर्म और व्यवहार को संतुलित करने के लिए एक ऐसे योग पद्धति का अभ्यास करें, जिसमें सभी योगों का समावेश हो. सभी योगों का समावेश, हठ-योग, राज-योग, कर्म-योग, ज्ञान-योग, मंत्र-योग, लय-योग, क्रिया-योग, भक्ति-योग. और अपनी दिनचर्या में इन सभी का अभ्यास कैप्सूल रूप में कहीं ना कहीं हो जाता है.
समाज में निश्चित रूप से आसनों के प्रति आकर्षण अधिक है, क्योंकि यह देखा गया है और वैज्ञानिकता से जांच की गयी है कि आसनों के अभ्यास से शरीर रोगमुक्त हो कर उर्जा को प्राप्त करता है. आज हम समाज में जो योग के पीछे लोगों के दौड़ को देख रहे हैं, उसका एक ही प्रयोजन है. हम अपने जीवन की दुर्बलता और रोग को किस प्रकार ठीक कर पायें. कोई बुरा ना माने तो मैं कहूं इस बात को कि आज सबका अधिक ध्यान चिकित्सा पर है, इसके बाद व्यवसाय पर है. इसके बाद परिवार पर है. और उसके बाद समाज पर है. कोई भी व्यक्ति समाज में स्वस्थ नहीं है. नॉट इवेन वन पर्सन. नाइंटी नाइन प्वाइंट वन परसेंट पीपुल गो टू थेरेपी, टू डॉक्टर, टू मेडिकल इंस्टिट्यूट्स. चाहे उनको सर्दी हो, जुकाम हो, अर्थराइटिस हो या कैंसर हो. लेकिन हर व्यक्ति की प्राथमिकता आज उपचार और स्वास्थ्य है. और यही एक कारण है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग योग सीखना चाहते हैं.
अपने उपचार के लिए, दूसरों के उपचार के लिए और उससे थोड़ा बहुत कमाई भी. इसमें कोई दोष नहीं है. लेकिन जो योग शिक्षक योग की शिक्षा लोगों को दे रहे हैं उनसे हमारा निवेदन है कि वह योग को, योग साधना को, विद्या को अलग नहीं करेंगे. योगाभ्यास को विद्या से अलग नहीं करेंगे. और जब किसी को योग सिखाते भी हैं तो विद्या का रिफरेंस हमेशा देना चाहिए, ताकि जो हमारे नवीन योग शिक्षक तैयार हो रहे हैं, वह हमेशा अपने विद्या से, अपने संस्कृति से और कम से कम विचार से तो जुड़े रहें.
स्वामी जी, एक तरफ यह प्रगति, भौतिक सुख, विज्ञान के चमत्कार दिखाई देते हैं. दूसरी ओर लगातार वर्षा का ना होना, पानी संकट. पर्यावरण संकट. हमारे यहां भविष्य पुराण की बातें इस पृष्ठभूमि में दुनिया-संसार को बहुत कुछ बताती है. आप इन चीजों को कैसे देखते हैं.
लालच का कोई निदान नहीं है. इसे दूर करने के लिए कोई दवाई नहीं है, कोई उपाय नहीं है. लालच के कारण ही मनुष्य स्वयं को मारता है और समाज को भी मारता है. और संसार को भी मारता है.
हम सब जानते हैं कि अपनी धरती का शोषण हो रहा है. हम सब जानते हैं कि इस कारण ग्रीनहाउस इफेक्ट हो रहा है. हम सब जानते हैं कि हमारे जो उद्योग है वह प्रदूषण फैला रहे हैं, कम नहीं कर रहे हैं. लेकिन विकल्प के होते हुए भी हम इन विकल्पों को अपने समाज में स्थान नहीं दे पा रहे हैं. न उस कार्यक्रम को लागू कर पा रहे हैं. क्योंकि अर्थ का उपार्जन उससे बाधित हो जायेगा. विज्ञान भले ही आपके जीवन में सुख-सुविधा भर दें, विज्ञान आपके जीवन में लालच को शांत नहीं कर पायेगा. और जब तक लालच शांत नहीं होता है हमलोग पतन के मार्ग पर चलते रहेंगे. अभी जो विश्व की जो परिस्थिति है वह हमारे पतन का मार्ग है. आज नहीं, पांच पीढ़ी पश्चात हमारी संतानों को जो कष्ट झेलना होगा- प्राकृतिक और सामाजिक, उसकी कल्पना आप और हम नहीं कर पा रहे हैं.
इसलिए जिस प्रकार हम अपने आप को स्वस्थ रखने का और अपने परिस्थितियों से संघर्ष करने का प्रयास करते हैं उसी प्रकार एकजुट होकर अपने संसार की जो समस्याएं हैं, जो हमारे जीवन के विरोध में उत्पन्न हो रही हैं, उनका समाधान खोजना और उसका निराकरण अत्यंत आवश्यक है. और इसके लिए यह केवल समाज ही नहीं, सरकार को भी जागृत होकर, चिंतन कर, समाज के लिए एक नये दिशा का निर्माण करना आवश्यक होगा. इसमें हर व्यक्ति का संगठित योगदान होना है. जब तक हर व्यक्ति का संगठित योगदान नहीं होगा, तब तक हम अपनी धरती की इस परिस्थिति को बदल नहीं पायेंगे.
ऐसा लगता है जीवन में भय से मुक्ति इंसान को नहीं मिलता है. कभी भविष्य का भय, अस्वस्थ होने का भय, किसी चीज का भय. इससे समाज कैसे मुक्ति पाये. या व्यक्ति इससे कैसे मुक्ति पाये. क्या रास्ता है.
इसको आप भय कहेंगे या पराजय की भावना. यदि गीता को देखें तो इसमें इस चीज को पराजय की भावना कहा गया है. हम हार जायेंगे. हम यह नहीं कर पायेंगे. वह हमारा यह काम नहीं करेगा. तो जिस स्थिति में हम अपने आपको देखना चाहते हैं, उस स्थिति में नहीं होने पर स्वयं को पराजित देखते हैं. और भय उसके कारण होता है. आपको याद होगा कि स्वामी श्रेयानंद जी ने अपने अब्दुल कलाम जी को क्या कहा था. पराजय की भावना को पराजित करो. डिफिट द डिफिटेस्ट टेंडेंसीज. यह संभव है. लेकिन उसके लिए हर व्यक्ति को पंद्रह मिनट प्रतिदिन रात्रि को आत्मविश्लेषण
करके अपने भीतर की नकारात्मकता को, मानसिक रूप से ब्लैक बोर्ड से साफ करके निश्चिंत होकर सोना चाहिए. यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है. हमारा सुझाव है- जब आप रात्रि विश्राम के लिए जाते हैं तो निश्चित रूप से विचार तो आते ही हैं. अपने कार्य के बारे में, परिवार के बारे में. अब ये जो सौ प्रकार के विचार आ रहे हैं, क्या आप सोते समय इससे मुक्ति पाते हैं. अंनकॉशस में वह चलते रहते हैं, तो दूसरे दिन जब उठते हैं, थकान लगती है, फ्रेशनेस नहीं महसूस होता है.
एक सरल उपाय है. सोते समय अपने दिन का परीक्षण कर ब्लैकबोर्ड-डस्टर को हाथ में लेकर अपने मन के पूरे ब्लैकबोर्ड को साफ कर देना है. पांच मिनट का समय है. लेकिन यह जो एक चेतन प्रक्रिया जो आप कर रहे हैं कि यह जो मैं अपने ब्लैकबोर्ड के लिखे हुए शब्दों को मिटा रहा हूं और कल सवेरे मेरा ब्लैक बोर्ड खाली रहेगा, उस पर मैं कल फिर कुछ अच्छी चीज लिखूंगा, इस विचार से आपका जो साइकोलॉजिकल स्ट्रेस है वह एक दिन में पचास प्रतिशत कम होगा. एक सप्ताह में नब्बे प्रतिशत कम होगा. एक महीने में नो स्ट्रेस. और आप उस पराजय को पराजित कर दिये होंगे.
आजादी की लड़ाई में दो चीजें दिखाई देती हैं. जैसे गांधी ने या बाद में महर्षि अरविंद ने. गांधी भी अध्यात्म की तरफ चले, बात की. गीता पर अलग से टिप्पणी लिखी. महर्षि अरविंद ने इतनी चीजों के बाद अध्यात्म का रास्ता ही चुन लिया. बिहार में एक पंडित रामनंदन मिश्र हुए. वह भी इसी रास्ते पर चले गये. कहा कि राजनीति यह सब चीजें नहीं बदल सकती. मैंने जेपी को भी नजदीक से देखा था. वह भी मानते थे कि राजनीति से सब चीजें नहीं बदल रही हैं. सचमुच आज लगता है कि राजनीति, लोगों का चरित्र, एटिट्यूड, चिंतन आदि नहीं बदल पा रही है. एक उम्मीद दिखायी देती है अध्यात्म से. आप अध्यात्म के शिखर पर हैं. इस बारे में क्या सोचते हैं.
पिछले तीन सालों से हमने कुछ ऐसे कार्यक्रम आरंभ किये हैं, जिसमें यम और नियमों की शिक्षा, आसन-प्राणायाम, जप-ध्यान के अतिरिक्त, यम और नियमों की भी शिक्षा देनी शुरू की है. यह यम-नियम महर्षि पंतजलि के नहीं हैं. पूरी दुनिया में जब से यह अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया, हम बहुत लोगों से बात करते हैं और पूछते हैं कि योग क्या है. वह हमको हाई फिलॉस्फी देता है कि समाधि है, मोक्ष है, मुक्ति है. फिर हम उससे पूछते हैं- तुमने हमको इतना सुंदर बात बताया, हमको बताओ कि तुम कौन-सी योग की किताब पढ़े हो. आदमी लड़खड़ा जाता है. वह कहता है महर्षि पंतजलि का योग-सूत्र. हम उससे पूछते हैं कि क्या आपने चार सौ सूत्रों का अध्ययन किया है. वह कहते हैं – नहीं, हम दो चार सूत्र ही जानते हैं. हम तीसरा प्रश्न पूछते हैं – तुमने एक फिलॉस्फी बताया. एक किताब हमने पूछा.
एक किताब का नाम तुमने लिया. स्वयं नहीं पढ़े हो लेकिन उसका रिफरेंस दे रहे हो. अब हमको बताओ कि आप कौन-सा योगाभ्यास करते हैं. उस लक्ष्य को पाने के लिए जिसके बारे में आपने मुझे लेक्चर दिया. तो कहता है कि मैं तो दो-चार आसन करता हूं. रोज करते हो क्या. नहीं सप्ताह में एक-दो बार. अच्छा सप्ताह में एक-दो बार आसन करके क्या तुम उस हाई फिलॉस्फी को प्राप्त कर पाओगे. कभी नहीं. तो, यह जो एक गैप है समझ में, सोच में, बहुत कुछ बोलते हैं, व्यवहार में इंप्लीमेंट नहीं कर पाते हैं. इसको कम करना है. और यह हमलोगों के लिए बहुत आवश्यक है. और यह एक बहुत बड़ा प्वांइट हैं जो लोग अब समझ रहे हैं. और दूसरा प्वांइट कि इस योग के अभ्यास में अगर हम कहें कि अध्यात्म के शिखर पर हमें पहुंचना है तो अध्यात्म के शिखर पर क्या हम बनते हैं पहले उसको समझा जाये. एक बार किसी ने एक संत से प्रश्न किया कि आप कौन हैं. संत ने कहा कि मैं कौन हूं, यह मेरे वस्त्रों को देख कर जानने का प्रयास मत करो. मेरे रहन-सहन को देख कर जानने का प्रयास मत करो. मैं क्या सोचता हूं, मैं क्या करता हूं, मैं क्या चाहता हूं, उसको जानो, तब जानोगे कि मैं कौन हूं. हमलोग बाहर की परिस्थिति को देख कर सोचते हैं कि यही एक व्यक्ति है.
लेकिन वह व्यक्ति बाहर की परिस्थिति के अनुसार नहीं है. तो जिसको हम कहते हैं सर्वोच्च शिखर, वहां पर कोई पहुंचे तो उसकी स्थिति क्या बनी है. सबसे पहला चीज सबसे बड़ा गुण जीवन की समझ. प्रेम-करुणा गुण नहीं है. अगर समझ नहीं तो प्रेम कहां. अगर समझ नहीं तो करुणा कहां. इसलिए हम प्रेम, सौहार्द, करुणा को गुण नहीं मानते हैं. वो अभिव्यक्ति है समझ की. और समझ संबंध की. संबंध की समझ की अभिव्यक्ति है प्रेम, करुणा या सेवा. और जब तक यह समझ नहीं है किसी को वो किसी भी प्रकार से गुणात्मक परिवर्तन नहीं कर पाता है. और न अपने आपको चेंज कर पाता है. और न अपने आपको सुधार सकता है. यह पहला क्वालिफिकेशन है, अध्यात्म के शिखर का क्वालिफिकेशन. आखिर कोई एक बेंचमार्क तो होना चाहिए. यह पहला बेंचमार्क है. यह है समझ. दूसरा अंहकार का अभाव. मैं कर्ता- नहीं. मैं- माध्यम. और वास्तव में देखा जाये तो हम सब माध्यम हैं. हम सोचते हैं कि कर्ता हैं लेकिन हम तो अपने डेस्टिनी को जीते हैं. तो जब हम अपने भाग्य को जी रहे हैं तो ‘मैं कर्ता’ यह पहले से निश्चित था कि आपके जीवन में ऐसी परिस्थिति आयेगी. और अगर आप इसका फायदा उठायेंगे तो ये बनेंगे, फायदा नहीं उठायेंगे तो यह नहीं बनेंगे. जब परिस्थिति आयी तो आप ने देखा कि हम सक्षम हैं उठाने के लिए तो उठायेंगे, नहीं सक्षम है तो नहीं उठायेंगे. प्रयास तो आप कर रहे हैं, लेकिन अंत में आप वही जी रहे हैं जो आपके प्रारब्ध में लिखा है. अहंकार को कम करने से प्रारब्ध परिवर्तित हो सकता है. अहंकार के नहीं रहने से प्रारब्ध बदल सकता है और यह अहंकार का नहीं होना, अड़ियल का नहीं होना, कठोरता का नहीं होना, ये दूसरा बेंचमार्क है अध्यात्म का. तीसरा बेंचमार्क- कर्मपरायण नहीं, कर्तव्यपरायण. कर्म अपने लिए है. जहां पर हम पूर्ण रूप से जुड़ जाते हैं वहां पर कर्तव्य होता है.
गांधी जी राज्यसभा, लोकसभा या मंत्रिमंडल के सदस्य कभी नहीं रहे, लेकिन समाज और राष्ट्र के प्रति उन्होंने जो कर्तव्य निभाया कोई राजनीतिज्ञ आज तक वैसा कर्तव्य नहीं निभा सका. सब कर्म कर रहे हैं, कर्तव्य नहीं निभा रहे हैं. कर्तव्यपरायणता, ये तीसरा बेंचमार्क है. चौथा बेंचमार्क- प्रसन्नता. अगर आप प्रसन्न हैं तो दुख से कभी परेशान होंगे ही नहीं. परिस्थितियों से कभी पराजित नहीं होंगे. प्रसन्नता जीवन के दुखों को और संघर्ष को दूर रखती है. उसके प्रभाव से आपको मुक्त रखती है. आपको अवसाद में, चिंता में और चिता में जाने की आवश्यकता नहीं है. अगर आपके पास प्रसन्नता है तभी. और इस प्रकार निश्चित रूप से अध्यात्म शिखर के बेंचमार्क होते हैं. और यह कहना उचित नहीं कि हम वहां पर पहंचे कि नहीं. हम तो मात्र एक छोटे-से साधक हैं. बहुत ही बड़े-बड़े दिग्गज लोग हैं इस देश में. लेकिन हां जो समझ आ रही है, अब उसको एक शिक्षा के रूप में, एक साधना के रूप में, एक यम के रूप, एक नियम के रूप में, हमलोगों ने सिखाना आरंभ किया है. और जिन लोगों ने उसको दृढ़ता से अपनाया है वो लोग तो एक प्रकार से यह मान कर चलें कि उनका बेड़ा पार हो गया. उनके जीवन में जो तकलीफें थीं, समस्याएं थी, आक्रोश था, चिंता-परेशानी, सब समाप्त हो गये. इस प्रकार के कार्यक्रमों को और भी विकसित कर रहे हैं, क्योंकि अंत में हमको तो अपने समाज के उत्थान के लिए परिश्रम करना है. संस्कृति को अपने समाज में जीवित रखना है. बाहर में भले ही प्रचार हो, लेकिन हमको अपने यहां जीवित रखना है. और उसके लिए हम प्रयत्नशील हैं.
आपने अध्यात्म के बारे में बहुत सुंदर बताया. धर्म और अध्यात्म में क्या अंतर है. असल अध्यात्म क्या है, जो एक मनुष्य को सत्य से भी अतिकठोर लगता है.
धर्म मान्यता है. धर्म श्रद्धा है. धर्म आराधना है और कर्मकांड है. उपासना है. अध्यात्म ज्ञान का अंत है. उसमें उपासना और कर्मकांड का कोई स्थान नहीं है. कर सकते हैं लेकिन अनिवार्य नहीं है, स्वैच्छिक है. और अध्यात्म आत्मशोध, आत्मचिंतन, आत्मपरिवर्तन का मार्ग है. यही मूल अंतर हम देखते हैं. अध्यात्म में स्वयं को तामसिकता से हटाकर सात्विकता में स्थापित करने का प्रयास है. हमारे जीवन की जो कमियां हैं, हमारे जीवन के जो दुर्गुण हैं, उनको हम सामर्थ्य, शक्ति, और सदगुण में परिवर्तित कर दें. धर्म हमें, आप विश्वास रखिये और जैसा हम रहना चाहें रहें. तो यह अंतर है.
आज की दुनिया बिल्कुल कटथ्रोट कंपीटीशन की दिखती है. युवकों के बारे में कहते हैं- एवरीथिंग नाउ जेनेरेशन. लगातार बच्चों में आत्महत्या, निराशा और अवसाद और मामूली बातों पर डिप्रेशन. इसको कैसे आप देखते हैं. इस चुनौती का क्यारास्ता है.
भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा अंग शिक्षित नहीं है. भारतीय समाज का जो शिक्षित वर्ग है, वह बहुत कम संख्या में है. शिक्षित वर्ग का मतलब केवल स्कूल की डिग्री नहीं. बल्कि दुनिया का अनुभव, जीवन का अनुभव. और जो अशिक्षित वर्ग है वह चाहता है उसी प्रकार के सुख-सुविधा को प्राप्त करना जो एक शिक्षित वर्ग के पास है या एक समृद्ध वर्ग के पास है. अपने देश में एक विचार बहुत ही प्राचीन है, लेकिन उसकी पकड़ बहुत कड़ी है. इतना कमाओ कि सात पीढ़ी तक किसी को काम करने की आवश्यकता नहीं पड़े. वह मानस में आज भी है. इसका कारण ट्राइबलिज्म है. क्योंकि हमारे यहां जो जमींदार है, उनके यहां नौकरी करते हैं, खेती करते हैं, झाडू लगाते हैं, काम करते हैं, सबकुछ करते हैं. हम उनके और उनके परिवार को देखते हैं.
तीन चार पीढ़ी आराम से बैठे हैं. उनको अंगुली हिलाने की आवश्यकता नहीं है. तो निश्चित रूप से हमारे मन में ऐसा विचार आयेगा कि काश मैं भी ऐसा होता. वह समृद्धि अब हमारे लिए बेंचमार्क हो गयी है. और आज समृद्धि के लिए भारत की जो दौड़ है उसके लिए अमेरिका बेंचमार्क बना हुआ है. और हर व्यक्ति की चाह है कि जैसा अमेरिकन के पास पैसा है उतना हमारे पास भी हो जाये. जो सुविधा वहां पर है, वह हमको यहां उपलब्ध हो जाये. यह जो मानसिकता है, वह पुरानी मानसिकता के चलते आज इस दौड़ में एक रोग को प्रदर्शित कर रही है. लेकिन हमें विश्वास हैं कि अपने भारतीय संस्कृति में कुछ ऐसे चेक्स एंड स्टॉप्स लगे हैं जो बाद में हमें सोचने के लिए विवश करेंगे कि क्या अपने जीवन के चैन और शांति का त्याग करके जो मैं कर रहा हूं, क्या मुझे शांति और समृद्धि दिला रही है. और तब एक सेचुरेशन प्वांइट पर आकर हमलोग अपने मोल को जानने का प्रयास करेंगे. अभी भारत के लिए यह एक एडवेंचर है. पश्चिम के लोग इस एडवेंचर की प्रक्रिया से गुजर गये. सेचुरेशन हो गया. व्यवस्था हो गयी. एक सामाजिक व्यवस्था का निर्माण हो गया. भारत में यदि उस प्रकार की एक व्यवस्था का निर्माण हो जाये तो यहां भी एक संतुलन की स्थापना हो जायेगी. क्योंकि अभी हमारा समाज समृद्ध नहीं है. अपने देश के छोटे-छोटे शहरों में या गांवों में कौन-सी सुविधा समाज के लिए उपलब्ध है. अगर भागलपुर में कोई बीमार पड़ता है तो उसे उपचार के लिए पटना जाना पड़ता है. मुंगेर में कोई बीमार पड़ता है तो उपचार के लिए पटना जाना पड़ता है. जबतक सामाजिक व्यवस्था और सुविधा सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध नहीं, तब तक यह दौड़ चलेगी. और जब सुविधा समान रूप से व्यक्ति के लिए उपलब्ध हो जायेगी तब हमलोग स्थिर होकर अपने भविष्य का निर्णय लेंगे.
मंत्र, तप, नाम, स्मरण वगैरह की एक सामान्य आदमी के जीवन में क्या उपयोगिता है. सार्थक ढंग से.
तप की उपयोगिता शायद एक सामान्य आदमी के लिए उतना नहीं है, जितना एक साधु के लिए है. किंतु मंत्र और जप की उपयोगिता निश्चित है. और पहले यम और नियम के रूप में हम प्रसन्नता और जप पर जोर देते हैं. जप और मंत्र पर इसलिए कि क्योंकि वही एक तरीका है, जिससे पांच मिनट के लिए अपने विचारों को संसार से कटऑफ कर अपने-आप में स्थिर कर सकते हैं. बहुत बार आप का विचार पुन: संसार में जायेगा. लेकिन अपने मन को वापस मंत्र और जप पर लौटायें. कम से कम पांच मिनट ही सही. जो सेनसोरियल बमबार्डमेंट हो रहा है, उससे आपको पांच मिनट के लिए मुक्ति मिलेगी. और उसी में फिर आप शांति का अनुभव करेंगे. उर्जा का अनुभव करेंगे. इसलिए मंत्र और जप का महत्व केवल धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं कि हम भगवान का नाम ले रहे हैं, केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं कि ध्यान लगाये हैं अपने आराध्य का बल्कि एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही सही, अपने साइकोलॉजिक्ल प्रेशर्स हम पर बाहर से अज्ञात अचेतन स्तर पर आ रहे हैं, उससे हम अपने आपको, अपने मन को डायवर्ट करके एक स्पंदन से जोड़ कर मन को स्थिर और शांत बनाये रहें. मंत्र को, जप को धार्मिक प्रक्रिया के रूप में नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक विश्राम की प्रक्रिया के रूप में हम समझें तो ज्यादा उपयोगी होगा.
स्वामी जी इधर मैं देखता हूं कि मृत्यु पर अपार साहित्य-शोध पर हो रहा है. पश्चिम में खास तौर से. अभी मैंने हांगकांग की एक भारतीय मूल की महिला, जो कैंसर के लास्ट स्टेज में थीं, ने नियर डेथ एक्सपीरिएंस लिखा. कैसे शरीर से परे जाकर अनुभव होता है. फिर वह स्वस्थ हो गयीं. उसी अनुभव पर किताब है, जिसको लेकर बड़ी चर्चा है. अपने पौराणिक धार्मिक साहित्य में पहले से ही परकाया निवास की बात है. मृत्यु को हमारा समाज कैसे देखता रहा है.
हमारा समाज हमेशा दो भागों में बंटा रहा. एक भाग जो कॉमन व्यक्ति का था, आम आदमी द्वारा निर्मित. वो मृत्यु से भयभीत, सामाजिक परिस्थितियों से भयभीत, प्राकृतिक परिस्थितियों से भयभीत एक सामान्य मनुष्य की तरह अपना जीवन व्यतीत करता था वह वर्ग. दूसरा वर्ग जो चिंतनशील और शिक्षक वर्ग था, वह वर्ग चिंतन करता था समाज के विकास के लिए हम क्या कर सकते हैं. क्या नयी चीज सिखा सकते हैं, क्या नया कार्यक्रम लागू कर सकते हैं. तो हमेशा यह दो वर्ग हमारे समाज में रहे हैं.
मृत्यु पर भी, जो चिंतनशील वर्ग था उसकी सोच अलग रही और जो आम आदमी था उसकी सोच अलग रही. योगी के लिए मृत्यु और आम आदमी के लिए मृत्यु की परिभाषा में बहुत बड़ा अंतर है. तो यह दो विचारधारा हमेशा साथ-साथ चली है. एक अशिक्षित वर्ग का जो मृत्यु से भयभीत और एक शिक्षित वर्ग का जो मृत्यु को आत्मसात कर जीवन के एक क्रम के रूप में देखता है. और अब पूछा जाये कि मृत्यु क्या है. जब आप रात को सोते हैं आप अनकान्शस स्थिति में चले जाते हैं. अगर आप दूसरे दिन सवेरे नहीं उठे, मृत्यु है. रात को जब आप सोते हैं वह मृत्यु की स्थिति है. जिसे आप निद्रा कहते हैं वह मृत्यु है. और योगी लोग कहते हैं जिसको तुम निद्रा कहते हो वह योगियों के लिए समाधि है. तब मृत्यु को ही समझाने के लिए यहां पर जोड़ा गया कि निद्रा ही मृत्यु है जहां पर मनुष्य को अपना कोई ख्याल नहीं, आभास नहीं. शरीर के किसी सुख-दुख से मतलब नहीं. जबतक आपको गहरी चोट नहीं लगती है. दर्द नहीं होता है.
अगर एक मच्छर गहरा काटे तो नींद खुल जाती है. लेकिन बहुत बार नींद नहीं खुलती है क्योंकि उतना गहरा नहीं काटता. मालूम भी नहीं पड़ता. हमलोग ऐसे ही सोये होते हैं. तो एबसेंस ऑफ कॉनशसनेस यानी चेतनता का अभाव मृत्यु है. उसी में हम सो रहे हैं. कोई गला काट दे तो सोशल मृत्यु है, लेकिन हमारे लिए वह निद्रा ही है. क्योंकि हम तो सो रहे थे. हमको मालूम ही नहीं. जिस स्थिति में थे वही स्थिति में अब भी हैं. यही अंतर है कि हम कल नहीं उठेंगे. पता नहीं किस जन्म में आंख खुलेगी. ‘बट इट इज स्लीप ऑल द थ्रू’. इसी चीज को जिसे आप कहते हैं ‘आउट ऑफ डेथ एक्सपीरिएंस’. कल्चरल इनपुट के हिसाब से लोगों ने अलग-अलग अनुभव किया है. भारत में भी बहुत लोगों का नियर डेथ एक्सपीरिएंस हुआ है. जिसको हम लोग दादी मां की कहानियां के रूप में सुनते थे कि यमदूत आये तो देवी प्रकट हुई कि अभी नहीं ले जा सकते हो. फिर हमारी आंखें खुलती है कि एक महीना और जीवित रहे. वो सब तो ‘नियर डेथ एक्सपीरिएंस’ है.
लेकिन यहां पर कल्चरल इनपुट हुआ है. टनल और व्हाइट लाइट के बदले हम यमदूतों को देखें. पश्चिम के लोग यमदूतों और एंजल में टनल और ह्वाइट लाइट देखेंगे. यह साइकोलॉजिकल प्रोग्रामिंग है. और जो नियर डेथ एक्सपीरिएंस होता है वह मनुष्य के साइकोलॉजिकल प्रोग्रामिंग से जुड़ कर होता है. अभी तो हम लोग केवल ईसाई और हिंदुओं की बात कर रहे हैं. क्योंकि दूसरे लोगों ने अपना अनुभव नहीं बतलाया है. लेकिन, उनका ‘आउट ऑफ बॉडी एक्सपीरिएंस’ सुनेंगे तो ना ‘टनल ऑफ लाइट’ होगा और ना यमदूत होंगे. तो ‘कल्चरल इनपुट एंड द इफ्लूएंस ऑफ साइकोलॉजी’ का बहुत ही बड़ा महत्व होता है, एक अनुभव के विश्लेषण के लिए. तो चाहे कोई टनल देखे, लाइट देखे या यमदूत देखे, उसको आप कल्चरल मान कर चलें. दैट इज नॉट फैक्ट. अब अगला प्वाइंट. मृत्यु जब होती है तब उस समय कुछ अनुभव कॉमन है. जो चाइनीज को, अमेरिकन को, इंडियन को, अफ्रीकन को, रशियन को,जापानी को समान रूप से होंगे. और वह सब फैक्टर है जो सबको ऑब्जर्व करता है.
जिसमें फिजिकल सेंसेशन क्या है. फ्लोटिंग. मैं उड़ रहा हूं. और वो जो फ्लोटिंग सेंसेशन है….जैसे लोग कहते हैं ना कि अस्पताल में अपने शरीर को देखा तो नीचे था, डॉक्टरों को देखा तो चारों तरफ खड़े थे, ऑपरेशन हो रहा था. फ्लोटिंग एक्सपीरिएंस. फ्लोटिंग एक्सपीरिएंस योग में एैस्ट्रल बॉडी है. तो आपकी चेतना फिजिकल को छोड़ कर एैस्ट्रल में आ गयी. और एैस्ट्रल उपर से क्या हो रहा है वह देख रहा है. और अगर आप एैस्ट्रल का या एैस्ट्रल एक्सपीरिएंस के अनुभवों को पढ़े तो एक कॉमन प्वाइंट हर जगह मिलेगा अम्बलिकल कॉर्ड. आप के नाभि से एक नाल निकली है और एस्ट्रल बॉडी के नाभि में वह नाल गयी है. यह संकेत है कि हमारा एैस्ट्रल बॉडी है जो फिजिकल बॉडी को, परिस्थिति को, लोगों को देखता है. और एक बार जब एस्ट्रल बॉडी का नाल कट जाये तो इधर में शरीर मृत्यु. जब तक नाल नहीं कटे फिर वापस नहीं आता है. यह एक कॉमन एक्सपीरिएंस है. फ्लोटिंग लाइटनेस. दूसरा अनुभव आउट ऑफ बॉडी का अज्ञात शांति. इनडिफाइनेबल पीस. स्वाभाविक है क्योंकि उस समय आपकी चेतना इंद्रियों से मुक्त हो गयी है.
जब आपकी चेतना इंद्रियों से मुक्त हो जाये, कोई इंद्रिय अनुभव तो हो नहीं रहा है, मनोअनुभव तो हो नहीं रहा है, चंचलता का अनुभव तो नहीं हो रहा है, विचारों का नहीं हो रहा है. शांति, पूर्ण शांति का अनुभव. तीसरा आफ्टर डेथ एक्सपीरिएंस. परमात्मा का अनुभव. ईश्वर अंश जीव अविनाशी. और परमात्मा का अनुभव अनेक तरीकों से होता है. जैसे आंनद के सागर में डूब रहे हैं और अपने आपको विलीन कर दिये. वह एक अनुभव. ज्योति में हम प्रवेश कर रहे हैं और उसी में एकाकार हो गये. एक अनुभव जैसे हमलोग सुनते हैं मीराबाई और अनेक योगियों के बारे में कि सशरीर उस विग्रह में विलीन हो गये. जितने भी अभी ‘आउट ऑफ एक्सपीरिएंस’ रहे हैं, उनमें सबका जो अनुभव रहा, वह फ्लोटिंग एंड पीस है, वह एक्युरेट है. बाकी कल्चरल इनपुट है. मुझे थोड़ा मालूम है कि मैंने स्लीप रिसर्च किया था अमेरिका में रहने के दौरान. शालर्टस यूनिवर्सिटी में. खुद भी सोया था और औरों पर प्रयोग भी किया था, यौगिक दृष्टिकोण से. स्लीप और उसकी विभिन्न स्थितियां और फिर उसको हम रिलेट किये थे ध्यान, धारणा समाधि इन स्थितियों से, तो थोड़ा बहुत अंदाज है.
आम आदमी की दृष्टि से जैसे आपने बताया कि कई चीजों में मंत्र का उपयोग है बाकी चीजों का….वैसे ही ईर्ष्या, द्वेष, लाभ, लोभ अंहकार से सामान्य ढंग से एक सामान्य व्यक्ति कैसे मुक्ति पा सकता है.
योग में एक शब्द आता है जिसका बहुत प्रयोग करते थे- प्रतिपक्ष भावना. प्रतिपक्ष भावना का मतलब होता है उलटी सोच. हम यहां पर बैठे हैं. अब कुछ अनर्गल विचार आ गया कि फलां व्यक्ति ऐसे हैं. हमारे भीतर की सजगता कहती है कि तुम निगेटिव सोच रहे हो. ईर्ष्या है, द्वेष है. उस चीज को आइडेंटिफाइ कर दिया. अब जब वह चीज आइडेंटिफाइ कर दी गयी तो उसको अब हम उलटी सोच में बदलते हैं. जब तक हम बुरा सोच रहे थे अब हम उसके बारे में अच्छा सोचें. तो जो एक चेन ऑफ थॉट है उसको कट करते जायें. और जितना आप निगेटिव चेन ऑफ थॉट को कट करेंगे,
उतना धीरे-धीरे उसकी प्रबलता कम होती जायेगी. और जितना आप पॉजिटिव थॉट को कंस्ट्रक्ट करेंगे उसकी दृढ़ता धीरे-धीरे बढ़ती जायेगी. स्वामी शिवानंद जी प्रतिपक्ष की भावना के मार्ग को लोभ, घृणा, द्वेष, छल-कपट, के निराकरण के लिए हमेशा बताया करते थे. गेट आउट ऑफ दिस फियर ऑफ निगेटिव इंफ्लूएंस. मेक दैट एफर्ट. और अगर हम उस निगेटव स्फेयर के इन्फ्लूएंस में रहेंगे तो चाहते हुए भी हम स्वयं को नहीं बदल पायेंगे. पानी में तैर कर हम सोचें कि हम शरीर को कैसे सुखायें यह कैसे संभव होगा. उसके लिए पानी से बाहर निकलना है. हमलोग जो निगेटिव फील्ड में हमेशा रहते हैं, किसी का बुरा सोचते रहते हैं, किसी से घृणा करते रहते हैं, किसी से ईर्ष्या करते हैं, किसी से द्वेष करते हैं. अपने आपको इसी गंदे तालाब से बाहर निकालना है. और वह मनुष्य का वास्तविक पुरुषार्थ है. श्रम तो कोई भी कर सकता है. श्रम को पुरुषार्थ नहीं कहते हैं. पुरुषार्थ उसको कहते है जो आपके जीवन को अधिक सुंदर बनाये. और श्रम उसको कहते हैं कि एक कार्य को पूरा करे.
अभी हाल में वृंदावन गया. कुछ समय पहले ऋषिकेश भी गया था स्वामी जी के आश्रम में. हर जगह इतनी भीड़ दिखाई देती है. इतना शोर है. मानसरोवर में भी मैंने देखा लगातार शोर, व्यवसाय और बढ़ती भीड़. वो पवित्रता-सात्विकता नहीं मिलती. आपकी यात्रा से स्मरण हुआ मानसरोवर का, सोमनाथ का, वह अद्भुत है. तो क्या हम सब लोगों को, सामान्य लोगों को अनुभूति होती है कि तीर्थ स्थल पर कुछ दिखाई नहीं देता.
हमको लगता है कि यहां पर भावों की ओर थोड़ा ध्यान देना चाहिए. क्योंकि जब हम तीर्थ यात्रा पर जाते हैं तो बहुतों को कहते-सुनते हैं कि बहुत गंदा है, कोई व्यवस्था नहीं है. कितनी देर तक लाइन में खड़े हैं. कोई पूछने वाला नहीं है. जब ऐसी चीजों को हम सुनने लगेंगे तो हमारा मन डिसिपेट हो जाता है. और फिर वह शोरगुल का अनुभव होने लगता है कि कौन क्या बोल रहा है. जैसे घोड़ा परदा लगा लेता है आंखों के बगल में कि सीधा देखे वैसे ही हम जब जाते हैं तो दिल में परदा लगा लेते हैं ताकि किसी को हम नहीं देखें. केवल जिस संकल्प को लेकर चले हैं वही हमारे सामने रहे. शोरगुल निश्चित रूप से रहता है, गंदगी रहती है. लेकिन उसमें हमको ना गंदगी दिखाई देती है ना ही शोरगुल. बल्कि शांति और दिव्यता का अनुभव होता है. क्योंकि मन उस वक्त विक्षिप्त नहीं है. दूसरे लोग क्या कह रहे हैं वह नहीं सुन रहे हैं. जो संकल्प है और जिस प्रयोजन को लेकर हम निकले थे वही. यही मार्ग है. देखो कितना सुंदर मार्ग है. भगवान के यहां जा रहे हैं. चल रहे हैं कीचड़ में, लेकिन मार्ग अत्यंत सुंदर है. जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से मिलने जाये तो वह लोग एक भाव में बह रहे हैं. वह थोड़े ही यह देखते हैं कि हम कहां है, कैसे जा रहे हैं, कौन है, क्या है.
मनुष्य और मशीन का रिश्ता दुनिया में बड़ी विचित्र अवस्था में पहुंच रहा है. जैसे, स्टीव जॉब्स जिन्होंने आइपैड बनाया, घर-घर पहुंच गया. पर, वह अपने घर में इन चीजों के प्रयोग की इजाजत नहीं देते थे. घर में बच्चों से डाइनिंग टेबुल पर वैल्यूज-इथिक्स की बातें करते थे. सिलिकन वैली, जहां से टेक्नोलाजी निकल कर दुनिया को नियंत्रित कर रही है, वहां के बहुत सारे सीइओ अपने घरों में इसकी इजाजत नहीं देते. भारत में युवाओं और बच्चों को देखता हूं. चलते हुए मोबाइल पर बात कर रहे हैं, गाड़ी चला रहे हैं, यह एक चुनौती बन गयी है. भीड़ में भी मनुष्य एलिनिएट हो रहा है. घर में बच्चे अलग हो गये हैं. टीवी से चिपक कर बैठ गये हैं. यह क्या है.
एक बहुत बड़ी समस्या है जो हमारे भविष्य की पीढ़ी को समझना होगा. कुछ दिनों पूर्व हम एक रिपोर्ट पढ़ रहे थे लंदन से. लंदन के साइकोलॉजिस्ट, साइकैट्रिस्ट लोगों ने एजुकेशन डिपार्टमेंट को सलाह दी है कि आप अलग-अलग आयु के हिसाब से स्कूल का टाइमिंग चेंज करें. क्योंकि उन्होंने पाया कि एवरेज एक विद्यार्थी दस घंटों का नींद खोता है. सोता नहीं है, खोता है. एक सप्ताह में. इसका कारण उन्होंने बताया है कि कमरे में बच्चे बैठकर फेसबुक पर बारह-एक बजे तक बात करते रहते हैं या कोई मूवी देखते रहते हैं. छोटा बच्चा – बड़ा बच्चा, सभी कोई. उसके चलते सोना लेट होता है. उसके चलते उठना लेट होता है. माता-पिता में दम नहीं कि अपने बच्चे को बोल सकें कि दस बजे बत्ती बंद करो और सो जाओ.
सामाजिक व्यवस्था बदलने के लिए लोग तैयार हैं, लेकिन अपने बच्चों को ठीक करने के लिए कोई तैयार नहीं है. स्कूल का टाइम ऑफिशियली बदलने के लिए पार्लियामेंट तैयार है, लेकिन अपने बच्चों को आठ बजे सुलाने के लिए कोई तैयार नहीं हैं. जब अभिभावक के रूप में हम इतने कमजोर हो जाते हैं कि अपने बच्चे को नहीं बोल पाते हैं कि तुम्हारे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित है, तो अभिभावक का कर्तव्य हम कहां निभा रहे हैं. दूसरी बात काम के चलते या सामाजिक परिवेश के कारण अभिभावकों का बच्चों से मिलना कम हो गया है. जब बच्चों से मिलते हैं, पैसा ले लो, तुमको जो चाहिए खरीद लो. वह जाता है, आइपैड खरीदता है. आइपॉड खरीदता है. क्या कोई अभिभावक चाहे व दिल्ली-मुंबई हो या मुंगेर-भागलपुर हो, बच्चों के साथ बैठ कर उनको कल्चरल एजूकेशन देता है. कह देंगे, पैसा लो, खेलो अपने मित्रों के साथ. बड़े शहरों में गो टू मार्केट, बाय एनिथिंग इलेक्ट्रॉनिक. समाज में अनुशासन कैसे, जब घर में ही अव्यवस्था है. आप का कहना भी सत्य है कि जितने भी बड़े-बड़े सीइओ हैं अपने घरों में इसका प्रयोग नहीं करने देते क्योंकि उन्हें मालूम है कि इसका परिणाम क्या है.
लेकिन बाहर के लोग तो सुविधा को देख रहे हैं. इसके दूरगामी परिणाम को नहीं देख रहे हैं. अगर आज इंगलैंड की पार्लियामेंट पास कर दे कि ठीक है, बच्चों की सुविधा के हिसाब से स्कूल का टाइमिंग. इज दैट जस्टिस टू एजुकेशन. इज दैट जस्टिस टू चिल्ड्रेन. इज दैट जस्टिस टू द सोसाइटी. इज दैट जस्टिस टू द कॉसेप्ट ऑफ सोसाइटी. फिर तो सब कोई समाज में अपने मन-मर्जी से करे. जिसको स्कूल जाना है जाये, जिसको नहीं जाना है न जाये. अगर एक व्यवस्था है तो सब पर होना चाहिए. और उस व्यवस्था को कायम रखने के लिए समाज का योगदान होना चाहिए. और यह परिस्थिति आ चुकी है. पाश्चात्य देशों में लोग लिखना भूल रहे हैं.
क्योंकि बचपन से ही कंप्यूटर में ही उनको सिखाया जा रहा है. हैंड राइटिंग भूल गये. आप और हम चार लाइन के कॉपी में अपना हैंडराइटिंग बना कर नंबर लिये. आजकल इंगलैंड में लोग लिखना भूल रहे हैं. बच्चे लोग गणित भूल रहे हैं. बिना कैलकुलेटर के मन में वो दो जोड़ दो चार नहीं कर सकते हैं. हमारे एक व्यक्ति अमेरिका अपने परिवार के साथ गये थे. बड़ा परिवार था. छह-सात बच्चे, तीन चार बड़े बच्चे घूम रहे थे. भूख लगी. एक बड़े मॉल में गये. जूस-ब्रेड लिया. काउंटर पर गये. काउंटर पर हाई स्कूल की एक लड़की थी- कंप्यूटर इज नॉट वर्किंग, कम लेटर. वहां एक दूसरा आदमी था, वह उठा. पांच डॉलर, दो डॉलर, तीन डॉलर, फिफ्टी सेंट, कैलकुलेट किया और उतना पैसा रख दिया. लड़की कहती है- हाउ डिड यू कांउट विदाउट कैलकुलेटर. यह सत्य घटना है.
बूढ़ा आदमी, जो वहां पर घूम रहा था आया कहा कि दैट इज द एक्यूरेट एमाउंट. तो बूढ़े को कहती है, हाउ डिड यू नो. बूढ़े ने कहा ब्रिंग मी पेपर एंड पेन. और वह सब लिखा और कैलकुलेट किया. लड़की कहती है- आइ हैव टू वेरिफाई विद कैलकुलेटर. दिस इज अमेरिका. निश्चित रूप से विज्ञान ने उन्नति की है और समाज को विज्ञान की तरक्की को साधुवाद देना चाहिए. लेकिन समाज को यह चिंतन करना चाहिए कि विज्ञान ने जो उपलब्धि हमें दी है, उसका उपयोग हम कैसे करें. चाहे वह रोबोट हो, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस हो. उसका उपयोग कैसे करें. किस प्रयोजन से कर रहे हैं और फिर उस प्रयोजन से हम भटकें नहीं. आज सब कोई अपनी आयु बढ़ाना चाहते हैं. क्रायोजेनिक चैंबर्स बन रहे हैं. आदमी को डीप फ्रिजर में रख दिया जाये. पचास साल बाद जब उपचार होगा, उसको जीवित कर उपचार किया जायेगा. लेकिन यह सब उपाय फेल हो जायेंगे. विज्ञान चाहे कुछ भी कर ले, डस्ट पार्टिकल का निर्माण नहीं कर सकता है.
क्या है पंचाग्नि साधना
पंचाग्नि साधना तपस्या का वह रूप है, जिसमें साधक जीवन के काम, क्रोध, मद, लोभ एवं मोह का नाश कर परम सत्ता को प्राप्त करता है. यह साधना अत्यंत ही कठिन व संयमित होने के साथ ही अनूठी है. जिसे सिर्फ सिद्ध व समर्पित संत, परमज्ञानी ऋषि-मुनि व नागा साधु करते रहे हैं. तपस्या पूर्ण होने पर साधक को अद्भुत फल की प्राप्ति होती है, जो जनकल्याण को समर्पित होता है.
इस साधना में साधक सूर्य के अधिकतम तापमान के बीच एक निर्धारित साधना स्थल पर खुले आसमान में बैठते हैं और उनके चारों ओर चार अग्निकुंड होता है, जिसके उष्मा के बीच साधना की जाती है. मनुष्य का शरीर अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी व आकाश का तत्व माना जाता है, जिसे साधना के माध्यम से तपाया जाता है. लगातार पांच वर्षों से पंचाग्नि साधना कर रहे परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का कहना है कि हमारे शास्त्रों में दो मार्ग बताये गये हैं, एक है उत्तर मार्ग और दूसरा है दक्षिण मार्ग. इन्हें उत्तरायण और दक्षिणायण भी कहते हैं.
पंचाग्नि की पांच अग्नियां दक्षिणायण से संबंध रखती हैं, लेकिन इनका प्रयोजन है आपको उत्तरायण की ओर ले जाना. पंचाग्नि साधना की यही विचित्रता है. पंचाग्नि की एक अग्नि सूर्य है, जिसे स्वर्ग में माना जाता है. इससे साधक अपने आपको मद-मुक्त एवं अहंकार-मुक्त करता है. वह फिर दक्षिण मार्ग का त्याग करते हुए उत्तर मार्ग पर चल पड़ता है. इसमें फिर ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्’ की बात नहीं होती.