अनिल एस साक्षी
श्रीनगर: कश्मीर की पहचान देश-दुनिया में पाक प्रायोजित आतंकी हमले, हर रोज के मुठभेड़, आतंकियों के समर्थन में सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी और आजादी के नारे लगाती भीड़ के रूप में बन गयी है. लेकिन, कश्मीर का दूसरा चेहरा भी है. कश्मीर में ‘कश्मीरियत’ आज भी जिंदा है. आतंकियों के नापाक मंसूबों को असफल करते हुए पुलवामा के कश्मीरी मुसलिम समुदाय और कश्मीरी पंडित समुदाय ने भाईचारा की मिसाल पेश की है.
पुलवामा में एक कश्मीरी पंडित के अंतिम संस्कार में बड़ी संख्या में मुसलमान शामिल हुए और उन्होंने एकता-भाईचारे का संदेश दिया. इतना ही नहीं, खुद उन्होंने सारी रस्मों को भी पूरा किया. इस वायके की चर्चा पूरे कश्मीर में हो रही है.
पुलवामा के मुसलिम बहुल त्रिचल गांव में निवास करने वाले कश्मीरी पंडित 50 वर्षीय तेज किशन करीब डेढ़ वर्ष से बीमार थे. शुक्रवार को उनकी मौत हो गयी. जैसे ही किशन की मौत की जानकारी इलाके में फैली, उनके मुसलिम दोस्त अस्पताल की ओर दौड़े. उनके शव को घर लाये. किशन की मौत की सूचना और अंतिम संस्कार में जुटने की जानकारी मसजिद के लाउडस्पीकर से सबको दी गयी. मुसलमानों ने हिंदू रीति रिवाजों से अंतिम संस्कार करने में शोक संतप्त परिवार की पूरी मदद की. मुसलिम समुदाय के लोग अंतिम संस्कार में शामिल हुए और उन्होंने परिवार की सहायता भी की.
मृतक तेज किशन के भाई जानकी नाथ पंडित ने कहा कि यह असली कश्मीर है. यह हमारी संस्कृति है और हम भाईचारे के साथ रहते हैं. हम बंटवारे की राजनीति में विश्वास नहीं रखते. 1990 के दशक में जब इस्लामिक कश्मीरी आतंकवाद की वजह से लाखों कश्मीरी पंडित वादी से पलायन कर गये, तब तेज किशन ने यहीं रहने का फैसला किया था.तेज किशन के पड़ोसी मोहम्मद युसूफ ने कहा कि हम सबने मिल कर अंतिम रस्मों को पूरा किया. उन्होंने कहा, हिंदू और मुसलमान को बांटने के प्रयास की घटनाओं की निंदा की जानी चाहिए. हम यहां शांति और प्रेमभाव से रहते हैं. तेज किशन के एक और रिश्तेदार ने बताया कि इस गांव की खासियत है कि दोनों धर्मों के लोग मिल जुल कर रहते हैं.
तेज किशन को याद करते हुए उनके एक पड़ोसी ने बताया कि उन्होंने कभी अपना पैतृक स्थान नहीं छोड़ा. वह कहते थे कि वह मुसलमान दोस्तों के साथ पले-बढ़े हैं, तो उन्हीं के बीच मरना पसंद करेंगे.
आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर वादी में पहले भी कश्मीरी मुसलमान कश्मीरी पंडित के अंतिम संस्कार में शामिल होते रहे हैं. यह घाटी के लोगों के लिए एकता व भाईचारे का संदेश और आतंकवादियों और अलगाववादियों के लिए ‘कश्मीरियत’ का पाठ है.